बधाल में फैली रहस्यमयी बीमारी कोई जैविक हथियार तो नहीं ?
जम्मू के राजौरी ज़िले के गांव बधाल की एक रहस्यमयी बीमारी इन दिनों राष्ट्रीय चर्चा का विषय बनी हुई है। इस बीमारी ने अब तक 17 से अधिक जानें ली हैं और करीब 40 लोग अभी भी अस्वस्थ हैं। देश में हर साल कुछ रहस्यमयी बीमारियां सीमित क्षेत्रों तक फैलती हैं। कभी मौतों या प्रभावितों की संख्या दहाई के भीतर रहती है, कभी सैकड़ा पार कर जाती है। किसी किसी बीमारी या स्वास्थ्य विसंगति की पहचान हो जाती है और बहुत बार ये रहस्य ही बनी रह जाती हैं। अभी तक अचानक फैलने वाली अज्ञात बीमारियों की आशंकाओं के आगत, रोकथाम या पहचान का कोई सुगठित, सुनिश्चित तंत्र नहीं बन पाया है। देश का कौन सा क्षेत्र किस तरह की बीमारी अथवा स्वास्थ्य विसंगति के प्रति आशंकित है, अथवा किस आयु, वर्ग, अथवा प्रकार के लोग किस मौसम में किन बीमारियों के किन नए प्रकारों से प्रभावित हो सकते हैं, देश और राज्य के स्तर पर इस पुख्ता आंकड़े या जानकारी का सर्वथा अभाव है। तब जबकि इसकी, तकनीक, तरीके, प्रविधियां मौजूद हैं और कई देश इसको इस्तेमाल कर रहे हैं। आवश्यकता है ऐसी स्वास्थ्य समस्याओं को गंभीरता से लेने के अलावा इनका समग्रता के साथ समाधान तलाशने की।
बधाल की मौजूदा स्थिति इन सवालों और ज़रूरतों को एक बार फिर प्रकाश में ले आयी है, इस परिदृश्य ने व्यवस्था को स्मरण दिलाया है कि इस दिशा में सुविचारित तथा समष्टिपूर्ण समाधान के महती प्रयासों की कितनी आवश्यकता है। बधाल में कुल 17 मौतों में डेढ़ किलोमीटर के दायरे में रहने वाले, एक प्रीतिभोज में खाना खाने वाले दो परिवार के 7 लोग हैं। 5 बच्चे और दो वयस्क। अन्य मृतकों में कुछ स्त्री पुरुष बुजुर्ग भी शामिल हैं। यह तथ्य बताता है कि संबंधित बीमारी ने हर आयु वर्ग को प्रभावित किया है, यहां जमीन के लिये होनी वाली साजिशों, हत्याओं की ओर इस ओर भी इशारा करता है। जहां तक पारिवारिक आपराधिक साजिश या खाद्य विषाक्तता का प्रश्न है, वह पुलिस अभी तक साबित नहीं कर पायी है। राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं ने पाया है कि किसी तरह के जीवाणु अथवा वायरस के प्रकोप का संबंध इस बीमारी से नहीं है। इससे किसी तरह की संक्रामक बीमारी की आशंका स्वत: खारिज हो जाती है। सामान्य विषाक्तता या मिलावट का भी मामला नहीं है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट यह कहती है कि उल्टी, तेज़ बुखार, सांस लेने में तकलीफ और बेहोशी के बाद मरने वालों के दिमाग में सूजन पायी गयी।
सुदूर क्षेत्र होने के चलते मरीज को लाने में देरी हुई थी, इसने दिमाग इस स्तर तक प्रभावित हुआ कि इनका इलाज मुमकिन नहीं था। विशेषज्ञों ने मृतकों के नमूनों में पाए जाने वाले ‘न्यूरोटॉक्सिन’ को इसका दोषी माना। तंत्रिकातंत्र को प्रभावित करने वाला यह रसायन प्राकृतिक जीवों, जैसे बैक्टीरिया, पौधों या जानवरों द्वारा उत्पादित किए जा सकते हैं या सिंथेटिक केमिकल हो सकते हैं। सुदूर क्षेत्रों तक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच तमाम दावों के बावजूद लचर है इसलिए न्यूरोटॉक्सिक से प्रभावित दिमाग को समय से इलाज न मिल पाना समझा जा सकता है; लेकिन लाख टके का सवाल यह कि यह रसायन मृतकों के शरीर में कैसे पहुंचा, इसका अभी तक कोई जवाब नहीं मिला। बधाल में पहली मौत के बाद अगले 48 घंटे में आधा दर्जन मौतें उन्हीं लक्षणों के चलते हुईं और तकरीबन सारे परीक्षण तभी प्राप्त हो चुके थे लेकिन तकरीबन डेढ़ महीना बीतने के बाद स्वास्थ्य सहित तमाम विभाग किसी निर्णायक परिणिति पर कैसे नहीं पहुंच पाए, यह भी एक रहस्य ही है। आंध्र प्रदेश में रहस्यमयी बीमारी के चलते जिसमें लोग चक्कर खाकर अचानक बेहोश हो जाते थे, एक समय 400 से ज्यादा लोग अस्पताल में भर्ती हुए थे कुछ मर भी गये। महाराष्ट्र के बुलढाना शहर में अचानक 60 लोग गंजेपन का शिकार हो गए, जिसमें महिलाएं भी शामिल थीं। आजतक इनका रहस्य नहीं खुला, ये महज कुछेक उदाहरण हैं।
बेशक हर ऐसी घटना अकारण नहीं होती। उसके पीछे कुछ कारण, कारक अवश्य होते हैं। ऐसी परिस्थितियां न आएं या आ जाएं तो इससे सफलता पूर्वक निपटा जा सके, वे रहस्यमयी या पूर्णतया अबूझ न बनी रह जाएं, इसके लिये उन कारकों पर निगाह रखना, उनके निदान हेतु व्यवस्था बनाकर काम करना, सचेत रहना इन जैसी परिस्थितियों के समाधान हेतु आवश्यक है जिन्हें सरकारी व्यवस्थाएं लगातार नजरअंदाज करती रही हैं। बहुतेरे देशों में बीमारियों के प्रकार और उनके प्रभाव क्षेत्र दर्शाने वाले मानचित्र होते हैं। देश में किस क्षेत्र में लोग कौन सी बीमारी से सबसे ज्यादा जूझ रहे हैं, किस शहर में किस प्रकार के डॉक्टर की सबसे ज्यादा ज़रूरत है और लोग किस विशेषज्ञ की खोज सबसे ज्यादा कर रहे हैं, इसके वार्षिक आंकड़े मौजूद होते हैं। अपने देश में बीमारियों का कोई न मानचित्र है न ही इस तरह के विश्वसनीय सरकारी आंकड़े, जिससे यह पता लगाया जा सके कि फलां क्षेत्र में इस तरह की बीमारी आशंकित है। कुछ देश दुर्लभ बीमारियों का राष्ट्रीय मानचित्र बनाते हैं, इसमें जीनोटाइप बीमारियां या क्षेत्र विशेष की आनुवांशिक बीमारियों का ब्योरा होता है, तो फीनोटाइप का भी। इससे क्षेत्र विशेष में किसी भी नई बीमारी के उभार या सघनता का पता चलता है। बीमारी का हॉट स्पॉट नियत हो पाता है, बीमारी रहस्य नहीं रहती बल्कि इनके इलाज का पहले से ही प्रबंध रहता है। क्लिनिकल रिसोर्स समय से वहां उपलब्ध हो जाता है।
रोगनिरोधी भविष्य के साथ स्वास्थ्य देखभाल रणनीतियों और नई बीमारियों के रहस्य से पर्दा उठाने के लिये जीनोम मैपिंग और जीनोम सीक्वेसिंग बड़े काम की चीज है पर इस क्षेत्र में हमारी जो पोल कोरोना के समय खुली, अभी ढंकी नहीं है। ऑरल ऑटोप्सी की प्रक्रिया के तहत गांव गिरांव में मौखिक सर्वेक्षण के जरिये अदृश्य और अज्ञात रोगों का पता लगाने की तो देश में कभी बात ही नहीं हुई। यह दूर की कौड़ी सही पर चीन ईरान सरीखी कोई ताकत अपने बायो वेपन या जैविक हथियार का परीक्षण भी इस तरह कर सकती है, क्या हमारे पास इसका शीघ्रता से पता लगाने का कोई मैकनिज्म है? शायद नहीं। डेढ़ महीने से ज्यादा समय के बाद भी रहस्य बनी हुई कथित बीमारी के पीछे किसी अज्ञात बीमारी, खाद्य विषाक्तता, संदूषण, साजिश, अपराध, अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र, बायोटेरोरिज्म, किसी दुश्मन देश द्वारा जैविक हथियार के परीक्षण जैसे कई कोण शामिल हैं। स्थानीय और राज्य का पुलिस महकमा अपनी स्पेशल टास्क फोर्स बनाकर इसमें लगा है, वहीं राज्य का स्वास्थ्य मंत्रालय इस पहेली को सुलझाने के लिये पुणे के भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद, दिल्ली के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र, ग्वालियर के रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन तथा पीजीआई चंडीगढ़ जैसे अनेक राष्ट्रीय संस्थानों की मदद ले रहा है। सेना की कोशिशें बहुत पहले ही जारी हैं। मौजूदा हालात यह हैं कि सेना, पुलिस, राज्य और केंद्र के स्वास्थ्य संस्थानों तथा गृह मंत्रालय किसी को भी इस बीमारी के उद्गम का कोई सूत्र नहीं मिल पाया है और न ही साजिश, षडयंत्र अथवा अपराध का कोई सुराग। संभव है कि जांच दल कोई पता जल्द लगा ले पर यह हर दूसरे बरस आने वाली रहस्यमयी बीमारियों का पता लगाने का स्थायी समाधान नहीं होगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर