अनुबंध कृषि की एक सफल उदाहरण है आलुओं की खेती
भारत फ्रेंच फ्राइड का एक प्रमुख निर्यातक बनकर उभरा है, जिसका श्रेय सीधे उत्पादकों से आलू खरीदने वाली कंपनियों और किसानों की बढ़ती भागीदारी को जाता है। सन् 1992 में अमरीकी प्रसंस्कृत खाद्य कंपनी लैम्ब वेस्टन ने भारत में स्टार होटलों को आपूर्ति करने के लिए जमे हुए फ्रेंच फ्राइड (एफएफ) का आयात करना शुरू किया। कनाडा की बहुराष्ट्रीय कंपनी मैककेन फूड्स ने चार साल बाद मैकडॉनल्ड्स के लिए एकमात्र आपूर्तिकर्ता के रूप में भारत में अपना पहला रेस्तरां खोला। जैसे-जैसे आलू की खपत बढ़ी, वैसे-वैसे आयात भी बढ़ा। वर्ष 2000 के दशक के मध्य तक यह सालाना 5,000 टन को पार कर गया तथा वर्ष 2010-11 (अप्रैल-मार्च) में 7,863 टन के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया।
लेकिन वर्ष 2023-24 में जब आयात व्यावहारिक रूप से बंद हो गया है, तब भारत ने वास्तव में 1,478.73 करोड़ रुपये मूल्य के 1,35,877 टन फ्रेंच फ्राइड (एफएफ) का निर्यात किया है। वर्ष 2024 अप्रैल-अक्तूबर के दौरान निर्यात 1,06,506 टन था और इसकी कीमत 1,056.92 करोड़ रुपये थी।
यह बदलाव एक आयातक से एक अत्यधिक पश्चिमी फास्ट-फूड उत्पाद के निर्यातक बनने तक अवसरों का लाभ उठाने वाले घरेलू उद्यमियों के कारण संभव हो पाया है, जिन्होंने फ्रेंच फ्राइड बनाने के लिए उपयुक्त आलू की किस्मों के प्रसंस्करण और भारत में उनकी खेती की संभावनाओं का भी दोहन किया। भारतीय फ्रेंच फ्राइड निर्यात मुख्य रूप से दक्षिण पूर्व एशिया (फिलीपींस, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया और वियतनाम), मध्य पूर्व (सऊदी अरब, यूएई और ओमान) और यहां तक कि जापान और ताइवान किया जाता है। हाइफन फूड्स प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक हरेश करमचंदानी ने कहा, ‘हम इन बाज़ारों के लिए वैकल्पिक आपूर्तिकर्ता बन गए हैं, जो पहले केवल यूरोप और अमरीका से आयात करते थे।’
भारत का फ्रेंच फ्राइड निर्यात की अनुमानित घरेलू खपत 1,00,000 टन से अधिक है। इसका लगभग 80 फीसदी हिस्सा व्यवसायों (मैकडॉनल्ड्स, केएफसी और बर्गर किंग जैसी कंपनियों) को औसतन 125 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिक्री से आता है और बाकी खुदरा क्षेत्र को 200 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बेचा जाता है, जिससे कुल बाजार का आकार 1,400 करोड़ रुपये हो जाता है। भारत का आलू उत्पादन 60 मिलियन टन के आसपास है, जो चीन के 95 मिलियन टन के बाद दूसरे स्थान पर है।
हाइफन की किसान संपर्क शाखा हाइफार्म के प्रमुख एस. सौंदराराजाने ने कहा, ‘हमारा लक्ष्य वर्ष 2027-28 तक 80,000 एकड़ में खेती करने वाले 20,000 किसानों से दस लाख टन गेहूं खरीदना है।’ हाइफन किसानों को अगले महीने से कटने वाली फसल के लिए 13.8 रुपये प्रति किलोग्राम की पेशकश कर रहा है। यह कीमत, रोपण से पहले सितम्बर में अनुबंधित की गई और खेत पर भुगतान योग्य है, 40 मि.मी. से अधिक व्यास वाले आलू के लिए है । बड़े आयताकार आकार के कंद जो फ्रेंच फ्राइड बनाने के लिए आदर्श हैं। कंपनी फ्लेक्स में प्रसंस्करण के लिए छोटे आकार के कंद और कम 8 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर भी स्वीकार करती है। ‘अनुबंध खेती अच्छी तरह से काम करती है, क्योंकि हमारे उत्पाद की कीमत या विपणन पर कोई अनिश्चितता नहीं है। हम उत्पादन और फसल की पैदावार के साथ-साथ गुणवत्ता में सुधार पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।’ यह अल्पेश नवीनभाई पटेल, जो 180 एकड़ (21 एकड़ खुद के और बाकी पट्टे पर) पर सैन्टाना किस्म की खेती करते हैं, ने बताया। 43 वर्षीय पटेल साबरकांठा के प्रांतिज तालुका के सोनासन गांव के कई लोगों में से एक हैं, जो कुल 3,900 एकड़ में आलू की खेती करते हैं और उसमें से 3,000 एकड़ विशेष रूप से हाइफन के लिए है।
बीज से शेल्फ तक
अनुबंध खेती सिर्फ सुनिश्चित कीमत और खरीद से कहीं आगे की बात है। इसका मतलब खेत पर किसानों की भागीदारी को और गहरा करना भी है। हाइफन अपने किसानों को सैंटाना, फ्राइसोना और फ्रायओएम आलू के अच्छे गुणवत्ता वाले रोग-मुक्त बीज उपलब्ध कराता है। यह टिशू-कल्चर लैब में उगाए गए अपने छोटे कंदों को बीज-आलू कंपनियों—आईटीसी टेक्निको एग्री साइंसेज, महिंद्रा एचजेडपीसी और केएफ बायोटेक से प्राप्त करता है। इन्हें पहले हाइफन के कॉरपोरेट फार्मों के 250 एकड़ से अधिक क्षेत्र में और फिर पंजाब, हरियाणा और यूपी में अनुबंधित बीज उत्पादकों के माध्यम से दो पीढ़ियों में उगाया जाता है। तीसरी पीढ़ी के बीज को पटेल जैसे किसान हाइफन को वाणिज्यिक आलू के रूप में वापिस आपूर्ति करने के लिए लगाते हैं।
सौंदरारादजाने ने दावा किया कि वर्ष 2026 तक पंजाब में हमारे पास मिनी-कंदों के उत्पादन के लिए अपनी ग्रीनहाउस सुविधा होगी, जिसमें मिट्टी रहित एरोपोनिक्स और स्टरलाइज़्ड कोकोपीट मीडिया तकनीक का उपयोग किया जाएगा। इससे हमारी पीढ़ी-शून्य रोपण सामग्री की लागत आधी हो जाएगी।
हाइफन किसानों के साथ मिलकर उनके खेती की लागत कम करने के लिए भी काम कर रहा है। पटेल आलू बोने से पहले अपनी मिट्टी में जैविक कार्बन और पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाने के लिए मानसून के दौरान 60-65 दिनों तक हरी खाद वाली फलीदार फसल के रूप में ग्वार और ढैंचा उगाते हैं। पिछले साल उन्होंने प्रति एकड़ औसतन 13.5 टन आलू की फसल ली थी। 13.8 रुपये प्रति किलोग्राम की कीमत और 85,000-90,000 रुपये की उत्पादन लागत के हिसाब से उनका प्रति एकड़ मुनाफा 96,300-1,01,300 रुपये होता है।
पटेल ने कहा, ‘1,560 रुपये प्रति बैग के हिसाब से आज मेरे बीज की कीमत अकेले 39,000 रुपये प्रति एकड़ है। अगर मैं 6 बैग कम बीज, 2 बैग डाई-अमोनियम फॉस्फेट और म्यूरेट ऑफ पोटाश (3 से) और 2 बैग यूरिया (2.5 से) का इस्तेमाल करता हूं, तो इससे प्रति एकड़ 12,500 रुपये की बचत होगी। यह मेरे आलू के लिए 0.9 रुपये प्रति किलोग्राम अधिक भुगतान किए जाने के बराबर है।’ बिचौलियों के बजाय सीधे किसानों से उपज प्राप्त करना, कुछ ऐसा है जो आम तौर पर कृषि-कंपनियों को करना पड़ सकता है। बीज से लेकर शेल्फ तक का दृष्टिकोण प्रासंगिक है, खासकर जब वैश्विक बाज़ारों में बिक्री की जाती है, जहां लागत प्रतिस्पर्धा और उत्पाद की गुणवत्ता समान रूप से मायने रखती है।
-वरिष्ठ विश्लेषक