लोगों को गुलाम बना रही हैं मुफ्त की सुविधाएं

भारत में दास प्रथा का इतिहास सदियों पुराना है। इसका उल्लेख भारत के प्राचीन ग्रंथ ‘मनुस्मृति’ में भी मिलता है। दासों का मालिकों के अधीन पूरा जीवन काम करना, बस इतना ही उनका जीवन था। अमरीका और इंग्लैंड सहित लगभग सभी देशों में गुलामों की मंडियां लगती थीं और उनका व्यापार होता था। दास प्रथा के उन्मूलन के लिए कई देशों ने कदम उठाए। सन 1807 में ब्रिटेन ने दास प्रथा उन्मूलन कानून के तहत अपने देश में अफ्रीकी गुलामों की ख़रीद-फरोख्त पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी। इसके बाद, 1808 में अमरीकी कांग्रेस ने गुलामों के आयात पर प्रतिबंध लगाया। भारत में दास प्रथा का उन्मूलन 1843 ई. में हुआ था, जब ब्रिटिश शासन के समय एक अधिनियम पारित किया गया था। इसके बाद 1975 में भारत सरकार ने बंधुआ मज़दूरी अधिनियम पारित किया, जिसके तहत बंधुआ मज़दूरों को मुक्त किया गया। 
मानसिक दासता का खेल 
आज संसार में कहीं भी किसी को दास, गुलाम, बंधुआ नहीं बनाया जा सकता लेकिन अमीर और ताकतवर देशों के शासक तथा धनाढ्य लोगों ने गरीब, साधनहीन, अशिक्षित और शोषित लोगों को विकास का रंगीन चश्मा पहनाकर अपना बिना मोल का पिछलग्गू अथवा गुलाम बना लिया। हमारा पड़ौसी देश पाकिस्तान इसका उदाहरण है। अमरीका ने उसे सभी तरह के साजोसामान तथा विलासिता के साधन देकर एक तरह से पंगु बना दिया। वह खाये तो अमरीका का, पहने तो भी विदेशी और लड़े तो उनके हथियारों से, यही नहीं भारत के साथ हमेशा के लिए दुश्मनी मोल लेने की इबारत भी लिखकर दे दी। अमरीका ने इसी तरह अन्य देशों को भी अपने जाल में रखने की चाल चली, कहीं कामयाबी मिली तो कुछ देशों ने उसका मंसूबा समझकर उसके साथ दोस्ताना और व्यापाराना संबंध तो रखे, लेकिन कभी उसे अपने आंतरिक मामलों में दखल नहीं देने दिया। यह एक उदाहरण है इस बात को समझने का कि कोई किसी को कुछ भी मुफ्त नहीं देता, उसकी नीयत अपनी मुंहमांगी कीमत वसूलने और दूसरे को हमेशा याचक की मुद्रा में रखने की होती है। 
अब हम अंतर्राष्ट्रीय परिपेक्ष्य से निकलकर अपने देश की बात करते हैं। कुछ उदाहरणों से आज जो कुचक्र चल रहा है, उसकी पोल खोलनी पड़ेगी। सबसे पहले संविधान में एक सीमित अवधि के लिए रखी गई आरक्षण व्यवस्था की बात करें। हमारे शातिर राजनीतिज्ञों ने इस प्रावधान का इस्तेमाल इस तरह करने की ठानी कि यह व्यवस्था हमेशा के लिए चलती रहे। इसे हटाना तो दूर, अधिक मज़बूत करने के स्थायी इंतज़ाम कर दिए। अब चाहे कोई कितना भी ज़ोर लगा ले, आरक्षण व्यवस्था कभी समाप्त नहीं की जा सकती बल्कि इसकी परिधि का विस्तार किसी न किसी बहाने से होता ही रहेगा। 
इसके विपरीत जो अनारक्षित वर्ग है, वह एक तो सिमटा हुआ रहता है और दूसरे वह कभी एकजुट नहीं हो सकता क्योंकि सत्तारूढ़ लोग उसे भी कोई न कोई प्रलोभन देकर संतुष्ट करने का काम करते रहते हैं। योग्य और प्रतिभाशाली विदेश चले जाते हैं और अपने ज्ञान का लाभ दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिये करते हैं। देश का जो विशाल वर्ग आरक्षण की बैसाखी पर चल रहा होता है, वह इतना कमजोर और प्रतिभाहीन रह जाता है कि कभी योग्यता के मापदंड तथा स्वस्थ प्रतियोगिता करने के काबिल नहीं बन पाता। 
राजनीतिक दलों और सत्तारूढ़ व्यक्तियों को यह सबसे आसान तरीका लगता है कि लोगों को मुफ्त की चीज़ों के सेवन की लत लगा दी जाए तो फिर उन्हें अपने पक्ष में करने और रखने के लिए कुछ और करने की आवश्यकता ही नहीं है। यही मानसिक दासता है जिसके फेर में एक बार व्यक्ति आ जाए तो फिर उसे अपनी सामर्थ्य और परिश्रम से उन वस्तुओं को पाने की कोशिश करना बेमानी लगता है। 
निर्धन या साधनहीन की इस प्रकार सहायता की जाए कि वह कुछ कमा सके, न कि भिखारी की तरह उसे कुछ सिक्के थमा दिए जायें, अनपढ़ को शिक्षा इसलिए कि वह अपना भला बुरा समझ सके और नौकरी के योग्य हो और जीविका चला सके, न कि उसे हमेशा के लिए अहसानमंद बना दिया जाए, बीमार की मुफ्त चिकित्सा इसलिए कि वह जल्दी स्वस्थ हो और किसी पर बोझ न बने। 
आर्थिक और सामाजिक बदहाली का दौर 
केंद्र सरकार की पहल पर उसका अनुसरण करते हुए राज्य सरकारें लोगों को मुफ्त में सब कुछ देने की होड़ में लगी हैं। वित्तीय घाटा और केंद्र से उधार लेने की मज़बूरी है। जो धन विकास कार्यों पर खर्च होता, सड़क, परिवहन, स्कूल, अस्पताल तथा अन्य संस्थान बनाने और औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने में लगना चाहिए, वह मुफ्त के चंदन की तरह बांटने में लग रहा है। लोगों के दिए टैक्स की बंदरबांट और किस तरह अधिक वसूली की जाए, इस नीति पर जब योजनाएं बनेंगी तो विकास दर का घटना तय है। वर्तमान वित्तीय वर्ष के आंकड़ों से सिद्ध भी हो रहा है। महंगाई का बढ़ना और गरीब तथा अमीर के बीच का फासला चौड़ा होना इसी का परिणाम है। 
मध्यम वर्ग जो वास्तव में देश की रीढ़ की हड्डी है, उस पर टैक्सों का बोझ बढ़ रहा है, रुपये की कीमत गिरने का असर सबसे अधिक उसे ही झेलना पड़ता है। उच्च वर्ग को अपार सुविधाएं देकर और निम्न वर्ग को मुफ्त की आदत लगाकर दोनों को अपने झांसे में रखने के विरोध में कोई अपना मुंह नहीं खोल पाता। इससे जो बीच का वर्ग है, उसे पीसते रहने की सहूलियत मिल जाती है क्योंकि चुप रहकर सब कुछ सहना ही उसकी नियति है। 
वर्तमान दौर कुटिलता, विश्वासघात और भ्रष्टाचार का है। इसमें राजनीतिक ईमानदारी अर्थात राजधर्म का पालन भूतकाल की बात है। जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल नेता लोग करते हैं, उसे देख और सुन कर यही आभास होता है कि कदाचित भविष्य में यही लोग वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए आदर्श होंगे। तब की कल्पना करना कठिन नहीं है लेकिन एक संवेदनशील व्यक्ति को भय लगना स्वाभाविक है। 

#हैं मुफ्त की सुविधाएं