हमारे गांवों का बदलता रूप 

मैं पंजाबी ट्रिब्यून, चंडीगढ़ की सम्पादकीय सम्भालने से पहले 30 वर्ष भारत सरकार के कृषि एवं ग्रामीण विकास मंत्रालय में तैनात रहा हूं। 1956 से 1984 तक मुझे भारत के प्रत्येक राज्य में जाने का अवसर मिला, जिसने मुझे समूचे भारत की कृषि के ढंग-तरीकों से अवगत करवाया गया। केरल के निवासी अपने खेतों में नारियल के पेड़ नहीं काटते, अपितु इनके बीच अनाज की फसलें बोते एवं काटते थे। मध्य प्रदेश में कुओं (रहिदा) की टिंडें लोहे की नहीं, अपितु मिट्टी की थीं। गाधी को जुड़े बैल जितना पानी कुएं में से खींचते थे, उसका तीसरा हिस्सा पानी के पाड़छे में चला जाता था। शेष दो तिहायी मिट्टी की टिंडों में से बह कर वापिस कुएं में जाता था। 
वह लोहे की टिंडें इस्तेमाल क्यों नहीं करते थे, इसका उत्तर था कि इनके लिए पैसा चाहिए। मैंने इसके लिए सस्ता ऋण लेने के लिए ग्राम विकास मंत्रालय द्वारा दी जा रही सुविधा की पेशकश की तो किसान क्रोधित हो गया। इसलिए कि ऋण लेने की राह पर तो उसके बाप-दादा भी नहीं चले थे, मैं कौन था उन्हें परामर्श देने वाला?
यह 40 वर्ष पहले की बातें हैं। इन वर्षों में कोई सुधार हुआ हो तो मुझे इसका ज्ञान नहीं। यह वे दिन थे जब गांवों में कृषि सुधार लाने की ज़िम्मेदारी लेने वाले सेवा-मुक्त सैनिक भी होते थे। वही जिन्होंने कृषि में तकनीकी सुधार लाकर तथा नये बीजों का इस्तेमाल करके दाना मंडियों में फसलों के अम्बार लगाए थे। मुरब्बाबंदी का पूरा लाभ लेते हुए अपने गांवों के कच्चे घर त्याग कर खेतों में पक्के मकान निर्मित करने की प्रथा शुरू करने वाले भी वही थे। खेतों में मावेशियों का भी आसानी से पालन-पोषण होता था और उनके लिए चारा भी पहुंचाने में कोई मुश्किल नहीं थी।
ऐसी पहल करने वालों में अविभाजित पंजाब के किसान समूचे हिन्दुस्तान के मार्गदर्शक थे। पश्चिमी तथा पूर्वी पंजाब के किसान ही नहीं, हरियाणा, हिमाचल तथा उत्तर प्रदेश की तराई में जाकर रहने वाले भी। जहां तक पंजाब का संबंध है, वर्तमान में यहां के गावों में कृषि के अधीन रकबा तेज़ी से कम हो रहा है। बड़े ठेकेदार तथा पूंजीपति छोटे किसानों से उनकी कृषि योग्य ज़मीन खरीद कर उस पर नई बस्तियां बसा रहे हैं। राज्य सरकारें ही नहीं भारत सरकार भी बड़ी तथा चौड़ी सड़कें बनाने के लिए छोटे किसानों की ज़मीन हड़पने से गुरेज़ नहीं करतीं। अब तो यह बात भी सुनने में आती है कि पंजाब के खेतों में फसलों के स्थान पर कस्बे तथा शहर उगने लग पड़े हैं। रुझान बहुत बुरा है, परन्तु है बिल्कुल सच।
जल स्रोत विभाग द्वारा ऐसे रकबे की पहचान की गई तो लगभग 53611 एकड़ रकबा खेतों में से निकलने के तथ्य सामने आए हैं और इन खेतों का रकबा कालोनियों तथा सड़कों के अधीन आ गया है।
नियमों के अनुसार जब कृषि के अधीन रकबे का गैर-कृषि कार्यों के लिए इस्तेमाल होने लगता है तो जल स्रोत विभाग द्वारा इस गैर-कृषि वाले रकबे का पानी काट दिया जाता है और कटौती वाले रकबे का पानी दूसरे किसानों में विभाजित तक दिया जाता है। कई दशकों से कृषि योग्य ज़मीन गैर-कृषि कार्यों के अधीन आ गई है, परन्तु उसके हिस्से वाले पानी में कटौती नहीं की जाती।
पंजाब सरकार के ताज़ा आंकड़े एक वर्ष की जानकारी देते हैं, जिनके अनुसार अब 53611 एकड़ रकबे को गैर-कृषि कार्यों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। लगभग 1707 एकड़ ऐसे रकबे बारे फैसला अभी विचाराधीन है। इससे पहले ऐसे तथ्य कभी सामने नहीं आए कि कितना रकबा कृषि से हर साल निकल रहा है। पंजाब में सबसे अधिक गुरदासपुर नहरी डिवीज़न में से 14770 एकड़ रकबा कृषि से निकला है। दूसरे नम्बर पर जालन्धर डिवीज़न में से 13773 एकड़ रकबा कृषि से निकला है। इसी प्रकार संगरूर डिवीज़न में से 1130 एकड़, देवीगढ़ डिवीज़न में से 6614, बठिंडा डिवीज़न में से 2339 एकड़, रोपड़ डिवीज़न में से 1564 एकड़, मजीठी डिवीज़न में से 704 एकड़ तथा बरनाला नहरी डिवीज़न में से 987 एकड़ रकबा कृषि से निकल चुका है।
पंजाब में नये हाईवे भी बन रहे हैं जिनके लिए हज़ारों एकड़ ज़मीन अधिकृत की गई है। एक स्टडी के अनुसार वर्ष 1991 से 2011 तक लगभग दो लाख छोटे किसान सड़कों के निर्माण के कारण कृषि से बाहर हुए हैं, जिनकी संख्या 5 लाख से कम होकर 3 लाख रह गई है। सड़कों की चौड़ाई, शहरीकरण, विकासोन्मुख योजनाएं तथा नई कालोनियां पंजाब के किसानों को विदेशों की ओर धकेल रही हैं, जिसके विपरीत परिणाम किसी को भूले हुए नहीं। 
खेतों में उगने वाले शहरों की बात तो एक ओर रही अब तो महानगरीय बस्तियों के आस-पास तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में भी पूंजीपति कृषि योग्य ज़मीन खरीद कर उस स्थान पर कालोनियां बसा रहे हैं। यहां तक कि अनेक कालोनियां योजनाबद्ध स्वीकृति के बिना ही विकसित हो रही हैं। मुझे भारत के ग्रामीण विकास मंत्रालय से यह पता चला है कि अनेक स्थानों पर एक ही प्लाट की दो, तीन या चार बार बिक्री हो चुकी है, जिसके परिणामस्वरूप कचहरियों में मुकद्दमों में इतनी वृद्धि हो गई है कि ऐसे केसों के निपटान में अंतों की देरी हो रही है।
दुर्लभ हुई ‘प्रीत लड़ी’ का नया चेहरा
मेरे अस्वास्थ्य रहने तथा निजी लापरवाही के कारण लम्बे समय से मुझे ‘प्रीत लड़ी’ नहीं मिल रही थी। अब जब अगामी माह मैंने 91 वर्ष का हो जाना है तो 92वें वर्ष में प्रवेश करने वाली इस पत्रिका का जनवरी अंक मेरे आंगन में आ गया है। आज के दिन इसकी खुशबू 8 दशक पहले जैसी प्रतीत हो या न हो, इसकी आमद ने मुझे अपनी जवानी के दिन याद करवा दिए हैं जब प्रीत लड़ी लाने वाले डाकिये के इंतज़ार में घर के चौबारे की छत पर चढ़ जाया करते थे। 
मुझे इस बात का भी पूरा गर्व है कि मैंने गुरबख्श सिंह, जवाहर लाल नेहरू तथा ई.एम.एस. नंबूदरीपद के समय जन्म लिया, जवान हुआ और विचरण किया। गुरबख्श सिंह की कलम ने मुझे आशावान एवं उत्साही बनाया, पंडित नेहरू की सोच ने दृष्टिकोण दिया और नंबूदरीपद ने आग्रणी मार्ग-दर्शन। वर्तमान में मैं जो कुछ भी हूं, इसमें मेरे माता-पिता के अतिरिक्त इनका भी योगदान है। 
मेरे आंगन में ‘प्रीत लड़ी’ का नया अंक महकाने वाला सरबत दा भला चेरिटेबल ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी सुरिन्दर पाल सिंह ओबराए हैं, जो इस पत्रिका के साथ सदा के लिए जुड़ गए हैं। मुझे नहीं पता था कि इसके वर्तमान प्रबंधकों एवं सम्पादकों ने अंग्रेज़ी भाषी पाठकों की सुविधा के लिए 50 में से 5 पृष्ठ अंग्रेज़ी के रखे हुए हैं और ‘निक्कियां दी नुक्कर’ के रूप में पुराने समय का ‘बाल संदेश’। नवतेज सिंह की यादों का भी कोई जवाब नहीं।  
प्रीत लड़ी तथा प्रीत नगर ज़िन्दाबाद!
अंतिका
(ईश्वर चित्रकार)
तेरी उडीक विच्च इयों कीली गई ऐ कल्पना,
उठ के तरंग कोई जिवें इक्को जगह खड़ी रही।   
मेरे प्यार साहमने तेरी निगाह की टिके,
फुल्लां दी महक है सदा फुल्लां तों दौड़दी रही। 

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