अमरीका के बगैर पेरिस समझौते को सफल बनाने के प्रयास होने चाहिएं

अमरीका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने 20 जनवरी, 2025 को पद संभालते ही पहला काम यह किया कि पेरिस क्लाइमेट समझौते (2015) से अपने देश को अलग कर लिया। समझौते से अलग होने का अर्थ है कि अमरीका उत्सर्जन कम करने के लक्ष्यों को पूरा नहीं करेगा और ‘ग्रीन क्लाइमेट फंड’ में अपने हिस्से का पैसा नहीं देगा। यह फंड उन देशों की मदद करने के लिए है जो जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहे हैं और स्थिति से निपटने के लिए आर्थिक रूप से कमज़ोर हैं। 
बहरहाल, जब 2017 में अमरीका पेरिस समझौते से अलग हुआ था तो वह तकनीकी रूप से अलग नहीं हुआ था क्योंकि समझौते की शर्तों में यह शामिल था कि सदस्य देश अपनी घोषणा के तीन वर्ष बाद ही अलग हो सकता था और इसके अतिरिक्त एक वर्ष संयुक्त राष्ट्र की प्रशासनिक इकाई को बताने में लगेगा। इसका अर्थ यह था कि समझौते से अलग होना नवम्बर 2020 में ही प्रभावी हो सकता था, लेकिन उस समय तक जो बाइडन अमरीका के राष्ट्रपति चुन लिए गये थे और जनवरी 2021 में पद संभालते ही उन्होंने अमरीका को पुन: समझौते में शामिल कर दिया था। पेरिस समझौता इस बात के लिए समर्पित है कि सभी देश मिलकर तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे न बढने दें और उसे हर हाल में 2 डिग्री सेल्सियस तो कम रखें। ट्रम्प के 2017 के आर्डर के विपरीत, उनका नवीनतम आदेश अमरीका को एक साल के भीतर पेरिस समझौते से अलग कर देगा। 
अमरीका न सिर्फ संसार की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है बल्कि 2006 तक वह दुनिया में सबसे ज़्यादा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित करता था। यूरोपीय यूनियन द्वारा समर्थित जलवायु समझौतों पर उसका नज़रिया यह प्रदर्शित करने का रहा है कि जैसे वह ही जलवायु संकट का समाधान कर रहा है, लेकिन कानूनी तौर पर उसने कभी भी उत्सर्जन कम करने का समर्थन नहीं किया। बॉन में 1995 में हुई पहली कांफ्रैंस ऑफ पार्टीज़ से लेकर अब तक उसने यूएनएफसीसीसी के बुनियादी स्वत: सिद्ध सत्य के प्रति असहजता व्यक्त की है, जिससे क्योटो प्रोटोकॉल व पेरिस समझौतों जैसे प्रयासों को अर्थ मिलता है। चूंकि वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा ऐतिहासिक दृष्टि से विकसित देशों के एमिशन से बढ़ी है, इसलिए उनकी ही ज़िम्मेदारी है कि सफाई का अधिकतर खर्च भी वह ही वहन करें। विकसित देशों की वजह से विकासशील देशों को भी जीवश्म ईंधन के मार्ग पर चलना पड़ा। चूंकि मुख्य जीवश्म ईंधन अर्थव्यवस्थाओं अमरीका, ऑस्ट्रेलिया व कनाडा  ने असहजता व्यक्त की इसलिए संयुक्त रूप से कार्यक्रम को लागू करने जैसे विचारों ने जन्म लिया, जिनमें विकासशील देशों में स्वच्छ ऊर्जा प्रोजेक्ट्स लागू करने के लिए देश क्रेडिट अर्जित करते हैं। अमरीका जलवायु समझौतों से वाक-आउट करने के बावजूद कांफ्रैंस में ‘पर्यवेक्षकों’ के तौर पर बड़े दल भेजता रहा और वार्ताओं में करीब से शामिल रहा। मोंट्रियल (कनाडा) में 2005 में आयोजित कोप 11 में अमरीकी दल ने वार्ता से वाक आउट किया बावजूद इसके कि अमरीका उस समय क्योटो प्रोटोकॉल का हिस्सा नहीं था। अगर वर्तमान की बात करें तो अमरीका में तेल व गैस उत्पादन को कम न करने के लिए द्विपक्षीय समर्थन है। बाइडन प्रशासन के दौरान तेल व गैस का उत्पादन बढ़ा। अमरीका विश्व में सबसे ज़्यादा कच्चे तेल का उत्पादन करता है और 2023 में उसने रिकॉर्ड उत्पादन किया। अमरीका गैस का भी सबसे बड़ा उत्पादक है और 2022 में वह लिक्विफाइड नेचुरल गैस का संसार में सबसे बड़ा निर्यातक बना। ट्रम्प इसमें और वृद्धि करने के समर्थक हैं। इस सबके बावजूद अमरीका ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन लक्ष्य के संदर्भ में बहुत पीछे है। उत्सर्जन कम करने का जो 2030 तक का लक्ष्य रखा गया है, उसका अमरीका ने 2022 तक केवल एक-तिहाई ही हासिल किया था। 
सवाल यह है कि अमरीका के पेरिस समझौते से अलग होने का क्या प्रभाव पड़ेगा? ध्यान रहे कि अमरीका पेरिस समझौते से अलग हुआ है न कि यूएनएफसीसीसी से। अनेक समीक्षकों का कहना है कि 2017 के बाद से रीन्यूएबल एनर्जी में निवेश बहुत अधिक बढ़ा है, जिसमें अमरीका से निजी फाइनेंस भी शामिल है। कोयले पर निर्भर बड़ी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं—भारत, चीन व इंडोनेशिया- के विपरीत अमरीका कोयले पर कम निर्भर है। जलवायु वार्ताओं में अमरीका ने हमेशा से ही यूरोपीय संघ के कोयला-विरोधी दृष्टिकोण का समर्थन किया है। लेकिन ट्रम्प का ‘ड्रिल बेबी ड्रिल’ नारा तेल व गैस की ड्रिलिंग को अधिक प्रोत्साहित करेगा, जिसे पिछली सरकारों ने मामूली तौर पर ही धीमा किया था। अमरीका का पेरिस समझौते से अलग होने का अर्थ होगा कि विकासशील देश कम महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को ही प्राथमिकता देंगे। वैसे इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि जलवायु लक्ष्यों से वैश्विक उत्सर्जन को कम नहीं किया जा सका है, इसलिए इस समय अमरीका के अलग होने से कुछ खास फर्क पड़ने नहीं जा रहा है। 
तस्वीर का दूसरा रुख यह है कि पेरिस समझौते में लगभग 200 पार्टियां हैं जो औसत वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने की इच्छुक हैं और कोशिश यह कर रही हैं कि तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर यानी 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर दिया जाये। अमीर देशों ने वायदा किया है कि वह 2035 तक प्रति वर्ष 300 बिलियन डॉलर गरीब देशों को देंगे ताकि वह तापमान को कम करने में सहयोग कर सकें। यह नया वायदा तब हुआ है, जब अमीर देश 2020 तक प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर देने का वायदा दो वर्ष से पूरा न कर सके। चूंकि अमरीका संसार की सबसे बड़ी औद्योगिक अर्थव्यवस्था है, इसलिए ग्रीन फंड में उसे सबसे अधिक हिस्सा देना था, जो अब नहीं आयेगा। साथ ही ट्रम्प के ‘ड्रिल बेबी ड्रिल’ कार्यक्रम से अमरीका 2030 तक जितनी कार्बन डाईऑक्साइड गैस निकलता, अब उस समय तक उससे 4 बिलियन टन अधिक निकालेगा जिससे वैश्विक तपिश बढ़ेगी ही। अमरीका के इस रवैये से अमीर देशों के प्रति अविश्वास में वृद्धि हुई है और संसार एकजुट होने की बजाय खेमों में विभाजित हुआ है। जलवायु परिवर्तन वैश्विक समस्या है, जिसका समाधान एकजुट होकर ही निकाला जा सकता है। अमरीका के जाने से अन्य देशों पर पेरिस समझौते को मज़बूत करने का दबाव अवश्य बढ़ा है, लेकिन पृथ्वी व मानवता को बचाये रखने के लिए उन्हें अधिक जोश से पेरिस समझौते को सफल बनाने का प्रयास करना चाहिए, भले ही वर्तमान तनावपूर्ण और भविष्य खतरे से भरा प्रतीत हो रहा हो।  
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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