दिल्ली विधानसभा चुनाव : अंतत: खत्म हो गया भाजपा का वनवास
अंतत: 27 सालों बाद देश की राजधानी दिल्ली से भाजपा का वनवास खत्म हुआ। हालांकि जो नतीजे अंतत: सामने आये हैं करीब करीब वैसे ही नतीजों का सुराग एग्ज़िट पोल से मिल गया था, लेकिन हाल के सालों में जिस तरह से एग्ज़िट पोल कई बार पूरी तरह से गलत साबित हुए हैं, उस पृष्ठभूमि में शुरुआती रुझानों के बाद भी दावे के साथ यह कह पाना आसन नहीं था कि भाजपा सचमुच आम आदमी पार्टी के तिलस्म पर झाडू लगा रही है, लेकिन दो घंटे गुज़रने के बाद वही सच सामने आया, जो 5 फरवरी, 2025 को मतदान के बाद आये 14 एग्जिट पोल में से 12 में दिखाया गया था कि भाजपा आसानी से जीतेगी और दो में केजरीवाल सरकार बना रहे थे। एग्ज़िट पोल में आम आदमी को सरकार बनाने लायक बहुमत की जिन दो पोल एजेंसियों ने घोषणा की थी, उनमें से एक माइंड ब्रिंक थी, जिसके मुताबिक आम आदमी पार्टी 44 से 49 सीटें जीत रही थी और दूसरी वीप्रिसाइड थी, जिसके मुताबिक आम आदमी पार्टी 46 से 52 सीटें जीत रही थी। ये दोनों पोल एजेंसियां जहां कांग्रेस को 0 से 1 सीटें दे रही थीं, वहीं इनके अनुसार भाजपा को 18 से 25 सीटें मिल रही थीं।
लेकिन गौरतलब बात यह थी कि एग्ज़िट पोल के दंगल में ये दोनों एजेंसियां बहुत कम सुनी थीं बाकी जो 12 एजेंसियों के एग्ज़िट पोल सामने आये थे, उन सबमें भाजपा जीत रही थी और इन 12 एजेंसियों में कई जानी पहचानी थीं। इन सारी एजेंसियों के एग्ज़िट पोल में भाजपा को न्यूनतम 39 से अधिकतम 61 सीटें मिल रही थी यानी हर एग्ज़िट पोल में उसे सरकार बनाने के लिए पूर्ण मत मिला रहा था। जो परिणाम सामने आया है, उसमें भाजपा को 48 सीटें और आम आदमी पार्टी को 22 सीटें मिली हैं जबकि कांग्रेस को कोई भी सीट हासिल नहीं हुई।
दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में इस बार 60.54 प्रतिशत मतदान हुआ था, जो पिछली बार के मुकाबले 4 फीसदी कम था। चुनाव में कुल 699 उम्मीदवार मैदान में थे और भाजपा के एड़ी चोटी के जोर लगाने, केंद्र सरकार की कई नीतियों, रणनीतियों के बावजूद अंतिम समय तक किसी के लिए भी यह कह पाना आसान नहीं था कि भाजपा आसानी से चुनाव जीत जायेगी, लेकिन जो नतीजे अंतत: सामने आये हैं, शायद उतने आसान नतीजों की कल्पना भाजपा ने भी नहीं की होगी। हालांकि वे इस बात को स्वीकार करेंगे नहीं, कोई भी जीती हुई पार्टी क्यों स्वीकार केरगी कि उसे इससे कम जीत की उम्मीद थी। लेकिन जिस तरह से आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल, दिल्ली सरकार में नंबर दो रहे मनीष सिसोदिया और जेल के अंदर भी अपने रसूख का जलवा दिखाते देते गये सतेंद्र जैन चुनाव हार गये, वह सचमुच नतीजे आने के बाद लगा कि भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों ने सारी ताकत झोंक दी थी। मगर जिस तरह कांग्रेस के संदीप दीक्षित हारे, वह भी देखने वाला रहा। अवध ओझा एक लोकप्रिय कोचिंग टीचर हैं और हाल के दिनों में सोशल मीडिया में अपने प्रचार के हर हथकंडे अपना रखे थे। युवाओं के बीच वह काफी लोकप्रिय भी हो रहे थे और उनका आत्मविश्वास भी कुछ ऐसा था कि ज्यादातर लोग यह मान रहे थे कि वह जीतेंगे लेकिन वो भी हार गये हैं और जिन आतिशी को ज्यादातर अंदर की बात जानने वाले विश्लेषक दबी जुबान हारने वाली प्रत्याशी बता रहे थे, उस आतिशी ने आखिरकार रमेश बिधूड़ी को चारों खाने चित्त कर दिया, जिन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान संवेदना, शिष्टता और सम्मान की हर सीमा का अतिक्त्रमण किया था।
अगर दिल्ली विधानसभा चुनाव नतीजों को थोड़ा बड़ा करके देखें और समझें कि आखिर इन नतीजों की असली वजह क्या रही, तो उसके पहले ये दिलचस्प तथ्य देखने होंगे कि भाजपा को 2020 के मुकाबले इस बार महज 5.8 फीसदी ज्यादा वोट के बदले 600 फीसदी ज्यादा सीटें मिलीं और आम आदमी पार्टी को महज 8 फीसदी कम वोट मिलने से 200 फीसदी सीटों का नुकसान हुआ। लेकिन सबसे मज़ेदार और कहना चाहिए कि निर्णायक आंकड़े कांग्रेस के रहे। हालांकि पिछली बार की तरह, इस बार भी उसे एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन बिना कोई सीट पाये भी जिस तरह से कांग्रेस के मतों में 2 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ, वह तथ्य कम से कम अनुमान के स्तर पर तो यह कहने का आधार बनता ही है कि अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिलकर चुनाव लड़ते तो 51 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करते और तब भाजपा का जीतना अगर असंभव नहीं तो बेहद मुश्किल तो होता ही, क्योंकि उस स्थिति में विशेषकर जो मुस्लिम वोट करीब 0.76 फीसदी ओवैसी की एआईएमआईएम को गये, वो नहीं जाते और उस स्थिति में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के वोट करीब 52 फीसदी होते, जबकि भाजपा अब तक के सबसे अच्छे प्रदर्शन के बावजूद इनके साझे वोट से 6 फीसदी से ज्यादा कम वोट पाती। भाजपा का अभी करीब 46 फीसदी वोट है और अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के वोट मिला दें तो अब तक 51.63 फीसदी बैठते हैं।
इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि यह विधानसभा चुनाव कई ज़रूरी सबक दे गये हैं। पहला सबक तो यह कि अगर वाकई विपक्ष को आने वाले दिनों और अंतत: 2029 के आम चुनावों में भाजपा को टक्कर देनी है तो उन्हें ईमानदारी से और विश्वसनीय ‘इंडिया’ गठबंधन के रूप में सामने आना होगा। उन्हें आम मतदाताओं को मूर्ख समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि वह उनके राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन को तो स्वीकार करेगा और स्थानीय स्तर पर उनकी निजी महत्वाकांक्षाओं की अनदेखी कर देगा।
इस नतीजे में एक सबक यह भी है कि सिर्फ वोकल होकर मुकाबले में साबित होने के लिए बढ़-चढ़कर आरोप प्रत्यारोप करने से मतदाता किसी को अतिरिक्त रूप से ताकतवर नहीं मान लेते। आम आदमी पार्टी ने बहुत अच्छा चुनाव लड़ा, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि इन चुनावों में उसकी सबसे बड़ी खामी यह थी कि वह लोगों की नजरों में आम आदमी की पार्टी ही नहीं रही।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर