एक नया प्रेम निवेदन
‘इस अप्रेम भरे और संवेदनाहीन माहौल में आपको प्रेम दिवस मनाते हुए कैसा लगता है?’ हमें पूछा जाता है।
क्या बताएं? हम तो भूल ही गए थे, कि कोई प्रेम दिवस भी होता है। हमें बताया गया कि बन्धु, केवल प्रेम दिवस ही नहीं, आलिंगन दिवस भी होता है। ‘जादू की झप्पी’ उसका फिल्मीकरण हो चुका है। आलिंगनबद्ध हो जाओ और पुराने सब गिले-शिकवे भुला दो।
पढ़ते हुए ये बातें बहुत अच्छी लगती हैं। आजकल तो सच के भी दो रूप हो गए हैं। एक अकादमिक सत्य होता है, और दूसरा जीवन सत्य। दोनों का एक दूसरे से जैसे कुछ लेना-देना ही नहीं रह गया। रहना भी नहीं चाहिए था। अभी डिग्रियों में मिलने वाली योग्यता का एक सर्वेक्षण हम पढ़ रहे थे। बताया गया है कि दसवीं पास छात्र भी चौथी श्रेणी की योग्यता नहीं रखते। प्रारम्भिक स्तर का गुणा भाग भी नहीं कर सकते। अपनी वर्णमाला तक उन्हें ज़बानी याद नहीं है। भाषा के इस ज्ञान के बारे में हम आपसे सहमत हैं। प्राय: लोगों के पास एक सीमित शब्द कोष रहता है या रहते हैं, उनके अहंकार सूचक तकिया कलाम। बस उन्हीं के सहारे ही ज़िन्दगी कट जाती है। भाषा की नफासत और उसकी गहराइयों में जाने की ज़रूरत ही भला क्या है?
सवाल तो अभिव्यक्ति का है। जब गाली देकर ज़िन्दगी कट सकती है, तो प्रशंसा के शब्दों के सागर की तलाश क्यों करें? जीवन मूल्य आज स्वीकार के नहीं अस्वीकार के बन गए हैं। प्रोत्साहन के नहीं निषेध के बन गए हैं।
विद्वता की पहचान यह हो गई है कि आप कितनी दबंगता के साथ किसी के उम्र भर काम का तिरस्कार कर सकते हैं। आलोचना के संक्षिप्त मार्ग अपना लिए गए हैं। किसी कृति को बिना पढ़े गाली दो। लेखक को अलेखक सिद्ध करने में अपना पूरा ज़ोर लगा दो। फिर सिर ऊंचा करके कह सको। ‘हम किसी की ठकुरसुहाती नहीं करते। मौलिक चिन्तन करते हैं, और बंधी लीक पर नहीं चलते।’
जी हां, बंधी बंधाई लीक की जगह चोर रास्ते ईजाद कर लिए गए हैं। यहां तो प्रकाशक महोदय अपने ही छापे हुए लेखकों को अपने स्वघोषित पुरस्कार दे रहे हैं और उन्हें साहित्य का सिरमौर बता रहे हैं। एक फिल्मी संवाद है, ‘हम जहां खड़े हो जाते हैं, कतार वहां से शुरू हो जाती है।’
अब ऐसे संवादों का परिष्कार हो चुका है। लोगों की कतार उनसे शुरू होकर उन्हीं पर खत्म हो जाती है। उनके सीमित वृत्त के लोग ही उनकी दुनिया की पहचान हैं। वहां बस यही एक सूत्र वाक्य चलता है। ‘तू मेरा मुल्लाबगो मैं तेरा हाजी बगोयम’। अर्थात् मैं तेरी इज्ज़त करूं, तू मेरी इज्ज़त कर। थोड़ा-सा उससे भी आगे। ‘इज्ज़त तो तू ही मेरी कर। मैं तुझे अपनी मसीहागिरी का आशीर्वाद दे दूंगा।’
बात केवल साहित्य या कला की ही नहीं हो रही। आजकल तो पूरा जीवन, पूरा परिवेश ही इस सत्य के गिर्द घूमता हुआ दिखाई देता है। लोग अब अपनी प्रशंसा में सम्मेलन आयोजित करवाने लगे हैं, प्रशस्ति गायन करवाने लगे हैं, तो यह अपने आपको स्वयं ही पुरस्कार देना नहीं तो और क्या है?
पासा पलटना, केंचुल बदलना पहले दलबदल कहलाता था। निंदा का पात्र हो जाता था। आजकल समय की ज़रूरत बन गया है। चार लोगों ने तो इसके दार्शनिक स्पष्टीकरण भी दे दिए हैं कि जब जीवन क्षण भंगुर है, कुछ भी स्थायी नहीं, तो रिश्तों में ही स्थायित्व क्यों तलाशते हो? अरे अब तो न्यायपालिका ने भी पाणिग्रहण में सात जन्म के बन्धन की जगह ‘लिव इन रिलेशन’ की इजाज़त दे दी। इसे स्थायी सम्बन्ध के कानूनी अधिकार देने की भी योजनाएं बनती रहती हैं। तो फिर चिरस्थायी सम्बंधों की महक से भरा हुआ प्रेम दिवस क्यों मनाएं? जब प्रतिदिन अपना इष्टदेव बदल ही लेना है, तो अब साधना किस की करें? प्रेम दिवस है तो गुलाब का फूल किसे भेंट करें? घुटनों पर बैठ कर प्रेम दिवस किससे करें?
सवाल का जवाब है। निवेदन करें, लेकिन अवसरवादिता का। कल तक जो व्यक्तित्व के दोष माने जाते थे। आज वही चरम सफलता के गुण बन गए। अरे प्रेम निवेदन की शब्दावली तो वही है, केवल आपका आराध्य बदलता रहे, तो विजय ही विजय है।
विजय के पैमाने भी बदल गए हैं। अब यह किसी दार्शनिक चिन्तन की विजय नहीं होती, स्व-चिन्तन की विजय होती है, जिसे पुरानी भाषा में स्वार्थ कहते थे। स्व: साधना की यह टोली मौसमों की तरह बदलती है। ‘गंगा गए गंगा राम और यमुना गए यमुनादास’ एक ऐसा अकाट्य सत्य बन गया है, कि कोई इन शब्दों के इस्तेमाल से चौंकता नहीं।
प्रकृति प्रेमी भी कहते हैं। जब जीवन में कुछ स्थायी नहीं। मौसम भी एक से नहीं रहते। उसके साथ पहने कपड़े भी तो बदल जाते हैं। तो फिर एक पांसा, एक स्टैंड, एक गुट रखना कैसा? समय के साथ कदम-ताल मिलाकर चलो। इसका अर्थ क्या यह है, कि ऐसे कदम-ताल मिलाओ कि समय सदा तुम्हारा ही रहे। ‘अपना भी समय आएगा, मेहनत मजदूरी से आएगा। श्रम साधना से आएगा, ऊंचे आदर्शों के पालन से आएगा।’
आज यह सब पुरानी बातें हो गई बन्धु। अब तो नया मन्त्र है, ‘अपना ही समय रहेगा।’ वही मॉडल सार्थक है, जिससे सफलता मिले। वही आदर्श है। जो कुर्सी दे। कुर्सी से चिपके रहने की ताकत दे। उम्र गुज़र जाए, तो अपनी कुर्सी अपने नाती-पोतों के हवाले करने का चक्रव्यूह रच लो। वही सत्य है।
यूं नए खून की आमद होती है, इस मुखौटाधारी समाज में, लेकिन किसी को मुखौटाधारी कहना भी अब पुरानी बात हो गई। अब तो बन्धु तलाश करो कि चेहरों की इस भीड़ में तुम्हारा असली चेहरा कौन-सा है? कल जो अधिनायक था, आज अपने आपको प्रताड़ित घोषित करके आरक्षण की मांग कर सकता है। सवाल तो रंक से राजा बन जाने का है। जिस तरीके से भी हो सके, वही अच्छा। एक परिचित कथन है, प्रेम और युद्ध में सब कुछ उचित है। अब इस औचित्य को ही मार्गदर्शक बनाओ, और इन नये सिद्धांतों का एक नया धर्म-ग्रन्थ लिख लो।