लोग राजनेताओं पर विश्वास करें, लेकिन जागरूक रहें
राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक या व्यक्तिगत जीवन में यदि लगने लगता है कि छल-फरेब हुआ है तो बहुत कुछ उलट-पलट होना तय है। प्रश्न यह है कि जब ऐसी स्थिति बन जाए और दल, नेता या घर का सदस्य भी कहे कि एक बार फिर दूसरा अवसर दिया जाए तो क्या करना उचित होगा? यदि जिसने विश्वास तोड़ा, वह गारंटी भी दे तब भी उसे सज़ा देंगे या सुनिश्चित करेंगे कि दोबारा ऐसा न हो। इसी से जुड़ा सवाल यह है कि इस परखने के फेर में ठगी तो हो ही जाती है। मुद्दा यह है कि दिल्ली में भाजपा सरकार का गठन हो चुका है और इसका भविष्य नए लोगों के हाथों लिखा जाना है, इसलिए सोच विचार तो करना ही होगा।
दिल्ली का राजनीतिक परिदृश्य यह रहा है कि यहां अधिकतर कांग्रेस का शासन रहा और उसके मुकाबले भाजपा का अतीत भारतीय जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टियां रहीं। अब हुआ यह कि केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद भी दिल्ली की सत्ता एक नए दल आम आदमी पार्टी (आप) के हाथों चली गई जिसने कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार को इस वायदे और विश्वास के आधार पर हराया था कि वे ईमानदार, स्वच्छ और शिक्षित लोगों की सरकार देंगे। हालांकि शीला सरकार ने दिल्ली की कायापलट की थी लेकिन अरविंद केजरीवाल ने कुछ ऐसा करिश्माई नज़ारा दिखाया कि जनता ने उन्हें अपना नेता मान लिया। जितने भी लोग चुने गए उनमें से अधिकतर को राजकाज का अनुभव नहीं था, जिन्हें था उनकी हैसियत का लाभ उठाकर नज़रअंदाज़ कर दिया गया और कुछ समय बाद से ही बहुत-से निष्ठावान और परिवर्तन की उम्मीद लगाये दिल्लीवासी, विशेषकर युवा पीढ़ी निराश होने लगी और इस पार्टी से किनारा करने में ही भलाई समझी।
देखा जाए तो दिल्ली की समस्याएं ज़्यादा नहीं हैं और क्योंकि जनसंख्या में फेरबदल होता रहता है, इसलिए ये कभी गंभीर नहीं हो पातीं। मूलभूत सुविधाएं हरेक को मिल जायें वही काफी हैं और अगर वह भी न मिलें तो निराशा होना स्वाभाविक है। सबसे बड़ी समस्या है प्रदूषण की। लगातार बढ़ते वाहनों, यमुना में कल-कारखानों से निकलने वाले रसायनों के बेरोकटोक गिरने और केवल राजनीतिक लाभ के लिए बसाई गई अवैध कॉलोनियों और सड़कों की ख़राब हालत, इसका मूल कारण है। इसी से जुड़ी स्वास्थ्य की समस्या है जो दूषित हवा, गंदे पानी के इस्तेमाल से जुड़ी बीमारियों के कारण होती है। राजधानी होने के नाते केंद्र सरकार का यहां दख़ल उतना ही होता है जितना केंद्र शासित प्रदेश में होता है और शेष सब कुछ स्थानीय सरकार के अधीन है कि वह दिल्ली की आन, बान और शान कायम रखे। यातायात के साधनों को सुविधाजनक बनाना और दिल्लीवासी जिस जीवनशैली के अभ्यस्त हैं, प्रदान करना, बस इतना ही, यह भी न कर सके, तब क्या कहा जाए?
पिछली ‘आप’ सरकार को जनता ने धन की कमी नहीं आने दी, उन्हें ज़रूरत से ज़्यादा ही दिया, दिल खोलकर उनकी मदद की और बदले में यह उम्मीद की कि जो विश्वास उन पर किया, वे उसे कभी टूटने नहीं देंगे। अब यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि उन्होंने धन का इस्तेमाल किस प्रकार और कहां तथा किन कामों के लिए किया। अपनी राजनीतिक छवि को चमकाने और देश के अन्य राज्यों में अपनी सरकार बनाने का सपना देखने लगे। गोवा में स्वयं अपने कानों से वहां के लोगों से सुना कि चुनाव के समय केजरीवाल आते हैं, दिल्ली का पैसा बांटते हैं और वोट मांगते हैं। दिलदार दिल्ली ने यह भी मंज़ूर कर लिया और एक बार फिर उन्हें सत्ता की चाबी सौंप दी। इससे उनकी हिम्मत बढ़ी और धन की बर्बादी तथा भ्रष्टाचार की कहानियां उजागर होने लगीं।
इसके बाद दिल्ली की सेहत खराब करने में आम आदमी पार्टी का योगदान शुरू हुआ। वर्ष के अधिकतर महीनों में यहां सांस लेना दूभर हो जाता है जिसका असर आसपास पर पड़ता है। दिल्ली का एक्यूआई ख़राब हुआ तो नतीजा पूरे एनसीआर को भुगतना पड़ता है। अनुमान लगाया जा सकता है कि जब ग्रैप लगता है तो परिवहन, निर्माण कार्यों तथा अन्य गतिविधियों पर विपरीत असर पड़ता है। सब कुछ थम जाता है, घर से बाहर निकलना मुश्किल और बाल तथा वृद्ध लोगों की जान सांसत में आ जाती है। स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से दिल्ली वाले निरंतर जूझते रहते हैं। इसके बाद आती है चरित्र की हानि। ज़रूरतमंद, निर्धन, असहाय और कमज़ोर लोगों की सहायता करने से किसी को कोई परेशानी नहीं होती, लेकिन जब सरकार जनता के धन को अपनी वाहवाही के लिए मुफ्त बांटने लगे, तब अवश्य सोचने वाली बात है। बिना इस बात का अनुमान लगाए कि विद्युत उत्पादन और पेयजल की आपूर्ति करने में कितना धन व्यय होता है, बिजली और पानी के प्लांट लगाना कितना कठिन और महंगा है, आपने सब को मुफ्त देने की हिमाकत कर दी। तनिक भी विचार नहीं आया कि मुफ्तखोरी की लत लगाना अपराध के समान है। बिना श्रम या पैसा खर्च किये कुछ भी देना, लेने वाले के चरित्र को गिराना है। जिसे दिया वह मना नहीं कर सकता क्योंकि सरकार के आदेश के अनुसार उसे दिया जा रहा है। मुफ्त में सुविधाओं के दिए जाने की शुरुआत हुई, यहां तक कि महिलाओं को चाहे अमीर हो या गरीब, खाते में रुपये पहुंचने की बात कही। यह आलसी बनाने की कोशिश नहीं है तो और क्या है? विडम्बना देखिए कि अदालत भी इस मुफ्तखोरी पर रोक नहीं लगा सकती क्योंकि आदेश सरकारी है। दुर्भाग्य से मुफ्त की रेवड़ी का चलन देश के अनेक राज्यों में सत्ता हासिल करने का साधन बन रहा है।
कुछ ही उदाहरण समझने के लिए पर्याप्त हैं। जहां पिछली सरकार से यह उम्मीद थी कि वह सड़कों पर गढ्ढों के कारण होने वाली दुर्घटनाओं का संज्ञान लेकर उन्हें ठीक करेगी, ट्रैफिक व्यवस्था में सुधार और घंटों तक लगने वाले जाम से निपटने के उपाय करेगी, जिन औद्योगिक इकाइयों में प्रदूषण नियंत्रण उपकरण नहीं लगे होने के कारण उनसे निकले रसायन यमुना में गिरने से जल इस्तेमाल करने लायक नहीं रहता, उन्हें बंद करने की कार्रवाई करेगी, वहां उसने पूरी दिल्ली के साथ विश्वासघात कर उनके भरोसे को तोड़ा है।
जो नई सरकार बनी है, वह भी कोई दूध की धुली नहीं कहीं जा सकती क्योंकि इसने भी मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने की योजनाओं को और अधिक पोषित करने का वायदा किया है। रुकावट डालने और आरोप-प्रत्यारोप लगाने का एक और दौर शुरू होने वाला है। इससे किसी का क्या भला होगा, सामान्य नागरिक के लिए यही चिंता का विषय है। जनता को केवल जागरूक रहना है ताकि उसके हितों की बलि न चढ़ सके।