ट्रम्प की मनमानी नीतियां
अमरीका में हुए राजनीतिक बदलाव ने विश्व भर को आश्चर्यचकित और परेशान कर दिया है। नए चुने गए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी पहले से घोषित घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों पर तेज़ी से काम करना शुरू कर दिया है। सबसे पहले अमरीका से व्यापार करते विश्व भर के देशों से आपसी टैक्सों के मामले पर उन्होंने स्पष्ट रूप में कहा है कि अमरीका घाटे वाला सौदा नहीं करेगा। विगत दिवस भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वाशिंगटन यात्रा के दौरान भी दोनों देशों के आपसी व्यापार संबंधी उन्होंने अपनी नीतियों को स्पष्ट किया है। चाहे ट्रम्प भारत से दोस्ती का दम ज़रूर भरते हैं, परन्तु अपनी घोषित व्यापारिक नीतियों को वह किसी भी तरह बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। यही रवैया उन्होंने अमरीका में अनेक देशों से आने वाले ़गैर-कानूनी प्रवासियों संबंधी अपनाया है। उन्होंने बड़ी तेज़ी से इन प्रवासियों की पहचान करके सख्ती से उन्हें अपने-अपने देशों में भेजने का काम शुरू कर दिया है। इसी राजनीति के तहत जिस शर्मनाक तरीके से अब तक सैकड़ों भारतीय नागरिकों को अमृतसर भेजा गया है, उससे भारत का अपमान हुआ है, परन्तु ट्रम्प पर इसका किसी तरह का कोई प्रभाव दिखाई नहीं देता।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने विगत चार वर्षों से रूस-यूक्रेन के चले आ रहे युद्ध को रोकने के नाम पर अपनी अजीबो-गरीब नीति पर चलने के बयान दिए हैं। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने कहा था कि इस बेहद गम्भीर मामले को सुलझाने के लिए वह रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ सीधी बातचीत करने के लिए तैयार हैं। इसी सन्दर्भ में सप्ताह भर पहले ट्रम्प ने पुतिन से फोन पर बातचीत भी की थी। इसके शीघ्र बाद सऊदी अरब की राजधानी रियाद में दोनों देशों के प्रतिनिधियों की बातचीत भी हुई है। इस युद्ध में अमरीका के अतिरिक्त यूरोपियन यूनियन के दर्जनों ही देश अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं, जो इस युद्ध में यूक्रेन की हर तरह से सहायता कर रहे हैं। अब तक अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों ने अरबों-खरबों की हर तरह की सहायता से यूक्रेन को रूस के समक्ष खड़ा रखा है। चाहे रूस ने यूक्रेन के बड़े भाग को लगातार बमबारी से तबाह कर दिया है। इस युद्ध में दोनों देशों के हज़ारों लोग मारे गए हैं और यूक्रेन के लाखों ही लोगों ने शरणार्थियों के रूप में यूरोपियन देशों में शरण भी ली हुई है। इसी कारण यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदीमीर जैलेंस्की ने अमरीका के रूस-यूक्रेन युद्ध संबंधी अपनाये मनमानी भरे व्यवहार के विरुद्ध आवाज़ उठाई है और कहा है कि यूक्रेन को शामिल किए बिना रूस और अमरीका अकेले रूप में इस युद्ध संबंधी कोई फैसला नहीं कर सकते। यूरोपियन देशों ने भी अमरीका की इस नीति पर कड़ी आपत्ति व्यक्त की है।
रूस ने इस युद्ध में यूक्रेन के लगभग 20 प्रतिशत ज़मीनी भाग पर कब्ज़ा कर लिया है, जिसे वह अब छोड़ने के लिए तैयार नहीं। इसके साथ ही रूस ने लगातार यह रुख भी अपनाया हुआ है कि वह अपने पड़ोसी देश यूक्रेन को किसी भी तरह नाटो यूनियन में शामिल नहीं होने देगा, क्योंकि वह अपनी सीमाओं पर नाटो की सेनाओं को तैनात किए जाने के विरुद्ध है। दिसम्बर 1991 में सोवियत यूनियन के टूटने के बाद इससे दर्जन भर देश आज़ाद हो गए थे, जिनमें यूक्रेन भी शामिल था। पुतिन के रूस के राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने जहां यूक्रेन के महत्त्वपूर्ण क्षेत्र क्रीमिया के विशाल क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था, वहीं उसने दोनों देशों के साथ लगती सीमाओं पर यूक्रेन के बागियों को सुरक्षा भी दी हुई थी, जो लगातार यूक्रेन के लिए चुनौती बन रहे थे। जैलेंस्की यूक्रेन की प्रभुसत्ता की रक्षा के लिए तथा अपने देश को रूस से लगातार बढ़ते ़खतरे से बचाने के लिए अमरीका और यूरोपीयन देशों के सैनिक संगठन नाटों का सदस्य बनना चाहता था, ताकि हमेशा के लिए उसके सिर से रूस का ़खतरा हट जाए, परन्तु रूस की ओर से इसका कड़ा विरोध किया गया। लगातार युद्ध के चलते यह स्थिति और भी गम्भीर हो चुकी है। अब अमरीका इसमें से निकलना चाहता है, ताकि वह इस युद्ध पर किए जा रहे भारी खर्च से बच सके।
चाहे डोनाल्ड ट्रम्प ने रूस के साथ बातचीत करने का स्वतंत्र रूप से कदम उठाया है, परन्तु इससे युद्ध के खत्म होने की सम्भावनाएं प्रतीत नहीं होती, न ही ट्रम्प का ऐसा तरीका यूरोपियन देशों को पसंद आ रहा है। नि:संदेह डोनाल्ड ट्रम्प के जल्दबाज़ी में उठाए ऐसे कदम अमरीका के लिए निराशा पैदा कर सकते हैं। अपनी मनमानी नीतियों को एकाएक लागू करने की जल्दबाज़ी के कारण अमरीका में उनके विरुद्ध प्रदर्शन भी होने शुरू हो गए हैं, परन्तु चारों ओर से पेश आ रही चुनौतियों से राष्ट्रपति ट्रम्प कैसे निपटेंगे, यह देखने वाली बात होगी।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द