तीन भाषा नीति : केन्द्र व तमिलनाडु में टकराव क्यों ?

किल्पौक (तमिलनाडु) स्थित भावना राजाजी विद्याश्रम स्कूल में एक कक्षा 3 का छात्र हिंदी की कविता न सुना सका तो हिंदी विषय की अध्यापिका पदमालक्ष्मी ने न सिर्फ उसे पीटा बल्कि उसे स्कूल कैंपस में न घुसने देने की धमकी भी दी। यह आरोप संबंधित छात्र के पैरेंट्स का है, जिनकी शिकायत पर स्कूल प्रशासन ने अब पदमालक्ष्मी को निलम्बित कर दिया है। सीबीएसई के दिशा-निर्देशों के अनुसार, छात्रों को शारीरिक दंड दिए जाने पर सख्त प्रतिबंध है और किसी भी प्रकार के शारीरिक, शाब्दिक या भावनात्मक दुर्व्यवहार के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही का प्रावधान है, जिसमें अध्यापक के निलंबन या बर्खास्तगी भी शामिल है। बहरहाल, यह स्थानीय खबर शायद राष्ट्रीय सुर्खी न बन पाती, अगर इस समय केन्द्र सरकार और तमिलनाडु की राज्य सरकार के बीच अनावश्यक भाषा विवाद न चल रहा होता। 
इस विवाद की पृष्ठभूमि यह है कि समग्र शिक्षा योजना के तहत तमिलनाडु को जो 2,152 करोड़ रूपये फंड्स में दिए जाने थे, उन्हें केंद्र सरकार ने रोक लिया है; क्योंकि तमिलनाडु ने पीएम श्री योजना (प्राइम मिनिस्टर स्कूल्स फॉर राइजिंग इंडिया) पहल में शामिल होने से इंकार कर दिया है। तमिलनाडु का कहना है कि वह पीएमश्री योजना में शामिल होने का तो इच्छुक है, लेकिन उसके साथ जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 को लागू करने की शर्त लगायी गई है, उसका सख्ती से विरोध करता है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन का कहना है कि अगर उनके राज्य को 10,000 करोड़ रूपये भी दिए जायेंगे तो भी वह एनईपी लागू नहीं करेंगे। तमिलनाडु की एनईपी पर मुख्य आपत्ति स्कूलों में तीन-भाषा फार्मूला लागू किये जाने पर बल देने के संदर्भ में है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इस सिलसिले में कोई भी रियायत देने से स्पष्ट मना कर दिया है और इस बात पर बल दिया है कि तमिलनाडु को आवश्यक रूप से ‘संविधान के अनुरूप’ चलना चाहिए। इस पर स्टालिन का सवाल है कि संविधान का कौन-सा प्रावधान इस प्रकार का आदेश देता है। स्टालिन ने घोषणा की है कि उनका राज्य इस किस्म के ‘ब्लैकमेल’ के आगे नहीं झुकेगा और न ही ऐतिहासिक दो-भाषा नीति का त्याग करेगा। 
गौरतलब है कि तीन-भाषा फार्मूला का प्रस्ताव सबसे पहले 1968 की एनईपी में लाया गया था, जिसे 2020 की एनईपी में बरकरार रखा गया है। दोनों में मुख्य अंतर यह है कि 1968 में एनईपी ने पूरे देश में हिंदी को अनिवार्य कर दिया गया था। हिंदी भाषी राज्यों के लिए आवश्यक था कि वह हिंदी, अंग्रेजी के साथ कोई आधुनिक भारतीय भाषा (दक्षिण भारतीय भाषा को प्राथमिकता देते हुए) पढाएं, जबकि गैर-हिंदी भाषी राज्यों के लिए यह था कि वह कोई स्थानीय क्षेत्रीय भाषा के साथ हिंदी व अंग्रेजी पढाएं। इसके विपरीत एनईपी 2020 में अधिक लचीलापन है, तकनीकी तौर पर किसी भी विशिष्ट भाषा को किसी भी राज्य पर थोपा नहीं गया है। इसमें कहा गया है कि ‘जो तीन भाषाएं बच्चे सीखेंगे वह राज्यों, क्षेत्रों और यकीनन छात्रों की अपनी पसंद की होंगी, जब तक कि तीन में से कम से कम दो भाषाएं भारत की देशज हों।’ इसका अर्थ यह है कि राज्य की भाषा के अतिरिक्त बच्चों को एक अन्य भारतीय भाषा सीखनी होगी और ज़रूरी नहीं कि वह हिंदी ही हो। इस नीति में द्विभाषिक शिक्षाण पर बल दिया गया है, विशेषरूप से गृह भाषा/मातृ भाषा और अंग्रेजी में। तीन-भाषा फार्मूला में सुस्पष्टता के साथ वैकल्पिक पसंद के रूप में संस्कृत पर अत्यधिक बल दिया गया है।
सवाल यह है कि तमिलनाडु में इस नीति का विरोध क्यों हो रहा है? तमिलनाडु में ‘हिंदी को थोपने’ का विरोध बहुत लम्बे समय से हो रहा है। जब 1937 में मद्रास प्रेसीडेंसी (अब तमिलनाडु) में सी राजगोपालाचारी (राजाजी) की सरकार ने सैकेंडरी स्कूलों में हिंदुस्तानी को अनिवार्य विषय बनाने का प्रस्ताव रखा था तो जस्टिस पार्टी ने इसका जबरदस्त विरोध किया था। इस आंदोलन में शामिल दो युवक थालामुत्हू व नटराजन का निधन हो गया था और वह हिंदी-विरोधी मुहिम के आइकॉन बन गये थे। राजाजी को मजबूरन इस्तीफा देना पड़ गया था और ब्रिटिश सरकार ने संबंधित आदेश को वापस ले लिया था। इसके बाद जब 1965 में हिंदी को पूरे भारत में एकमात्र आधिकारिक भाषा को स्वीकार करने की अंतिम तिथि करीब आने लगी तो तमिलनाडु में हिंसक प्रदर्शन आरंभ हो गये, जिनमें लगभग 70 लोग पुलिस की गोलीबारी या आत्मदाह में मारे गये। यह विरोध प्रदर्शन फिर शुरू हो गये जब 1967 में संसद ने आधिकारिक भाषा (संशोधन) कानून गठित किया और जब 1968 में आधिकारिक भाषा प्रस्ताव लाया गया, जिसमें हिंदी की शिक्षा को तीन-भाषा फार्मूला का लाज़मी हिस्सा बनाने की पेशकश थी। 
जनवरी 1968 में मद्रास विधानसभा में पहली द्रमुक सरकार ने सीएन अन्नादुरई के नेतृत्व में तीन-भाषा फार्मूला को निरस्त करने का प्रस्ताव पारित किया गया और साथ ही तमिलनाडु के स्कूलों के पाठ्यक्रम से हिंदी को हटा दिया गया। तब से इस राज्य में दो-भाषा नीति लागू है, जिसके तहत तमिल व अंग्रेजी में शिक्षा प्रदान की जाती है। इस नीति में फेरबदल करने के किसी भी प्रयास का तमिलनाडु की सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों, जिनमें द्रमुक व अन्ना-द्रमुक भी शामिल हैं, ने निरंतरता से विरोध किया है। इनके विरोध के चलते ही 2019 में कस्तूरीरंगन कमेटी को ड्राफ्ट एनईपी से हिंदी को अनिवार्य बनाने के प्रस्ताव को हटाना पड़ा था। जब तीन-भाषा फार्मूला में हिंदी को अनिवार्य बनाया ही नहीं गया है, तो इस नीति को हिंदी थोपने के रूप में क्यों देखा जा रहा है? तमिलनाडु की राजनीतिक पार्टियां व एक्टिविस्ट्स तीन-भाषा फार्मूला को एक ऐसे पर्दे के रूप में देखते हैं, जिसकी आड़ में हिंदी को थोपने की कोशिश की जा रही है। उनका तर्क है कि चूंकि भाषा अध्यापकों और शिक्षण मटेरियल के लिए संसाधनों का अभाव है इसलिए आखिरकार हिंदी को पढ़ाने की ही मज़बूरी हो जायेगी। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार और भाजपा के प्रमुख नेताओं ने नियमित तौर पर हिंदी को प्रोत्साहित करने की वकालत की है। धर्मेंद्र प्रधान के बयानों से स्पष्ट है कि तीन-भाषा नीति पर कोई समझौता नहीं होगा और इसलिए तमिलनाडु के फंड्स को रोक लिया गया है। प्रधान चाहते हैं कि स्टालिन ‘राजनीतिक मतभेद से ऊपर उठें’ और एनईपी 2020 को ‘तंग नज़री’ से न देखें। दूसरी ओर स्टालिन ने प्रधान पर ‘हिंदी थोपने’ का आरोप लगाते हुए कहा है कि द्रमुक सरकार तमिल व तमिलनाडु के हितों से समझौता नहीं होने देगी। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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