भारत की मुश्किलें बढ़ा सकती हैं अमरीका की नीतियां
सवाल यह है कि जो काम कोलम्बिया और मैक्सिको जैसे छोटे देश कर सकते हैं वह भारत जैसा बड़ा देश क्यों नहीं कर सकता? क्या मध्य अमरीका के ये दोनों देशों का आत्मसम्मान भारत से ज्यादा बड़ा है? जब डोनाल्ड ट्रम्प के अमरीका ने इन देशों से कहा कि उनके यहां के गैर-कानूनी आप्रवासियों को सैन्य विमानों में भर कर और हथकड़ी-बेड़ी लगा कर वापस भेजा जाएगा तो उन्होंने कड़ी आपत्ति जताई। उन्होंने अमरीका से साफ कह दिया कि अगर इस तरह से उन्हें भेजा गया तो वे किसी भी ़कीमत पर इन गैर-कानूनी आप्रवासियों को वापिस नहीं लेंगे। उन्होंने शर्त रखी कि वे अपने नागरिक विमान अमरीका भेजेंगे और उनमें भर कर आये बिना हथकड़ी-बेड़ी वाले आप्रवासी ही वापिस लिये जाएंगे। क्या भारत यह शर्त नहीं लगा सकता था? मोदीजी ने ट्रम्प से यह बात क्यों नहीं की? ऐसा लगता है कि हमारे प्रधानमंत्री पूरी तरह से ट्रम्प के सामने घुटने टेक दिये हैं। उनके अमरीकी दौरे की असलियत अब धीरे-धीरे खुल रही है। एक-एक करके वे सब बातें सामने आ रही हैं जो सरकार समर्थक मीडिया द्वारा छिपाई गई थीं।
डोनाल्ड ट्रम्प जब राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रहे थे, तभी लगने लगा था कि वे अगर जीत गये तो ऐसा कुछ करेंगे जो पहले कभी नहीं किया गया होगा। लेकिन, किसी नयेपन का अंदाज़ा लगाना और उसे अपने सामने घटते हुए देखने में काफी अंतर होता है। 20 जनवरी को शपथ लेने के बाद अभी डेढ़ महीना भी नहीं हुआ है, उन्होंने अपने हर कदम, हर घोषणा और प्रत्येक नयी दावेदारी से दुनिया में उथल-पुथल मचा दी है। सारे अंदाज़े गड़बड़ा गये हैं, सारी योजनाएं दोबारा बनानी पड़ रही हैं। ट्रम्प के कारण परिस्थितियां ही पूरी तरह से बदल गई हैं। दुनिया के दूसरे देशों को तो छोड़ ही दीजिये, अमरीका से 22 हज़ार किलोमीटर दूर स्थित हमारा अपने देश को अपनी अर्थव्यवस्था और अपनी विदेशनीति में बड़ी तब्दीलियां करने की तैयारियां करनी पड़ रही हैं। हमारी चुनावी राजनीति में भी ट्रम्प के कारण सत्तापक्ष और विपक्ष आपस में भिड़े हुए दिख रहे हैं। अ़खबारों में हर दिन ट्रम्प संबंधी सुर्खियां होती हैं। टीवी और सोशल मीडिया पर ट्रम्प संबंधी खबरों को अलग तरह की लोकप्रियता मिल रही है।
भारत को पूरी कोशिश करनी पड़ रही है कि तीखे सीमा विवाद के बावजूद किसी न किसी तरह चीन से उसके संबंधों में नरमी आ जाए। ट्रम्प के कारण बदले हालात से पैदा हुई इस मज़बूरी का ही कमाल है कि चीन भी भारत द्वारा मुहैया कराये जा रहे इस मौके का लाभ उठाने के मूड में लग रहा है। अगर ऐसा न होता तो जोहानीसबर्ग में जी-20 की बैठक के दौरान विदेश मंत्री जयशंकर और चीनी विदेशमंत्री वांग यी सीमाओं पर शांति, कैलाश-मानसरोवर यात्रा की फिर से शुरुआत और दोनों देशों के बीच हवाई यात्राओं को सुलभ करने पर सकारात्मक वार्ता करते नज़र न आते। अगर ऐसा न होता तो सरकार समर्थक अर्थशास्त्री चीनी पूंजी के लिए भारतीय बाज़ार के दरवाज़े खोलने की स़िफारिश करते हुए न दिखते। नीति आयोग के उपाध्यक्ष रह चुके अरविंद पनगढ़िया की यह संस्तुति भला कौन नज़रअंदाज़ कर सकता है कि सीमा विवाद संबंधी पहलुओं को छोड़ कर बाकी सभी क्षेत्रों में चीन के साथ सहयोग की शुरुआत की जानी चाहिए। दरअसल, अब इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अगर चीन से भारत की सैन्य टक्कर हुई तो अमरीका भारत का साथ देगा। ट्रम्प की प्राथमिकता चीन के मुकाबले भारत की पीठ पर हाथ रखने की नहीं है, क्योंकि इससे उनके घरेलू एजेंडे (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) में बाधा आ सकती है।
ट्रम्प से पहले भारत रूस-यूक्रेन युद्ध को दो पक्षों के बीच के विवाद और उनमें नरेंद्र मोदी द्वारा बीच-बचाव करने की ज़रूरत के रूप में देखता था। लेकिन ट्रम्प ने पुतिन से सीधे बात शुरू करते हुए जेलेंस्की को तानाशाह घोषित करके यूक्रेन की सारी मदद बंद कर दी। ट्रम्प रूस को जी-7 में शामिल करके युरोप-अमरीका के संबंधों को पूरी तरह से बदल देना चाहते हैं। अब भारत को इस बीच-बचाव की नीति से अपना हाथ खींचना पड़ रहा है, क्योंकि ट्रम्प के अमरीका ने पाला बदल लिया है।
अर्थव्यवस्था की हालत यह है कि 11-12 फरवरी को हुए मोदी के अमरीकी दौरे में ट्रम्प ने प्रधानमंत्री के मुंह पर कहा कि वे भारतीय माल पर उतना ही आयात शुल्क (टैक़िफ) थोपेंगे जितना भारत ने अमरीकी माल पर लगा रखा है। प्रधानमंत्री के अमरीका पहुंचने से पहले ट्रम्प ने भारतीय इस्पात और एल्युमिनियम पर टैऱिफ लगाया, और उनके दौरे के बाद भारतीय दवा निर्यात पर 25 प्रतिशत टैऱिफ थोप दिया। इससे भारतीय दवा कम्पनियों को सवा दो अरब डॉलर के नुकसान का अंदेशा पैदा हो गया। गोल्डमैन साक्स के अनुसार इसके कारण भारत की जीडीपी भी थोड़ा गिर जाएगा। अभी तो यह शुरुआत है। ट्रम्प अभी कई तरह के भारतीय माल के साथ ऐसा ही सुलूक करने वाले हैं। अब भारत सोच रहा है कि होने वाले द्विपक्षीय व्यापार समझौते में प्रस्ताव रखे कि भारत और अमरीका जवाब टैऱिफ लगाने की टकराव में जाने के बजाये दोतरफा टैऱिफ घटाने के सिलसिले की शुरुआत करें। क्या ट्रम्प इसे मानेंगे? अनुमान लगाना मुश्किल है।
दोनों देशों की जो संयुक्त घोषणा जारी हुई है वह बहुत हद तक अमरीका के पक्ष में झुकी हुई है। मसलन, भारत को 2030 तक यानी 5 साल में अमरीका से 500 अरब डालर प्रति वर्ष का व्यापार करना है। इसके लिए हमें अमरीका की गैस और कच्चा तेल ़खरीदना होगा। अंदेशा यह है कि अमरीकी तेल रूस और अरब देशों से मिलने वाले तेल से महंगा हो सकता है। इसके अलावा ट्रम्प ने भारत को ए़फ-35 लड़ाकू विमान ़खरीदने का प्रस्ताव दिया है। यह अत्याधुनिक तो है, पर ऐसे एक विमान की कीमत 18 हज़ार करोड़ रुपए की है, और यह सौदा 50 लाख करोड़ का होगा। सरकार समर्थक सैन्य रणनीतिकार भी इस सौदे को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। इस विमान के इस्तेमाल और प्रौद्योगिकी पर अमरीका ने इतनी कड़ी शर्तें लगाई हैं कि भारत को लेने के देने पड़ सकते हैं। हमारी वायुसेना मुद्दतों से नये विमानों के स्क्वाड्रनों के लिए तरस रही है, पर विमान जितने महंगे होंगे, उनकी संख्या उतनी ही कम होगी। क्या भारत ट्रम्प के इन प्रस्तावों को मानने से इंकार कर सकता है? इसकी संभावना न के बराबर है। ट्रम्प-कालीन अमरीका के हितों की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वे भारत जैसे दूसरे देशों के पैर पर पैर रख कर ही पूरे हो सकते हैं। भारत को कुछ तो अंदाज़ा था। लेकिन, जब ट्रम्प की चौतऱफा कार्रवाई शुरू हुई तो अब लग रहा है कि ट्रम्प-कालीन दुनिया हमारे अनुमान से बहुत अलग साबित होने जा रही है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।