क्या किसान आन्दोलन का नया रिकॉर्ड बनेगा ?

पांच साल पहले किसान दिल्ली घेर कर बैठे तो एक साल में सरकार ने उनकी मांग मान ली थी और ठीक एक साल बाद उनका आंदोलन खत्म हुआ था। केंद्र सरकार ने तीन विवादित कृषि कानूनों को वापिस ले लिया था। उस समय किसानों की अन्य मांगों को लेकर भी केंद्र ने वादा किया था, लेकिन जिसे अभी तक पूरा नहीं किया गया। उन मांगों को लेकर अब किसान एक साल से ज्यादा समय से पंजाब और हरियाणा की सीमा पर आन्दोलन कर रहे हैं। इस बार किसी तरह से उनको दिल्ली नहीं आने दिया गया है। जब भी किसान दिल्ली की ओर कूच करते हैं तो हरियाणा पुलिस उन्हें घग्गर नदी के पुल पर रोक देती है और उनसे बेदा सवाल करती है कि उनके पास दिल्ली जाने की अनुमति है या नहीं। इस बीच किसानों के साथ केंद्र सरकार ने किस्तों में बात शुरू कर दी है। ऐसा लग रहा है कि सरकार ने वार्ता की मासिक किस्तें बांधी हैं। महीने में एक बार वार्ता होती है। बुज़ुर्ग और बीमार किसान जगजीत सिंह डल्लेवाल करीब एक सौ दिन से अनशन पर हैं। पंजाब और हरियाणा की सीमा पर शंभू और खनौरी बॉर्डर पर हज़ारों किसान एक साल से आन्दोलन कर रहे हैं और सरकार महीने में एक बार वार्ता करने की औपचारिकता कर रही है। सवाल है कि कितने महीने तक वार्ता का यह सिलसिला चलेगा? 
पिछली बार के किसान आन्दोलन का एक साल का रिकॉर्ड 11 फरवरी को टूट चुका है, लेकिन लगता है कि सरकार और भी बड़ा रिकॉर्ड बनवाना चाहती है। 
बिहार सर्वे की हकीकत 
हर समय किसी न किसी मुद्दे को लेकर प्रायोजित ओपिनियन पोल (सर्वे) करने वाली एजेंसी सी-वोटर ने हाल ही में एक सर्वे किया है, जिसे देख कर किसी को भी यह लग सकता है कि इस समय बिहार में मुख्यमंत्री पद के लिए तेजस्वी यादव लोगों का पसंदीदा चेहरा हैं, लेकिन हकीकत में ऐसे होने वाले तमाम सर्वे फज़र्ी होते हैं, जो एक कमरे में बैठ कर किसी खास मकसद से तैयार किए जाते हैं। फिर उन सर्वे को सरकार के ढिंढोरची मीडिया के ज़रिये प्रचारित किया जाता है। बहरहाल, बिहार में चुनाव से सात महीने पहले किए गए इस सर्वे में तेजस्वी यादव को बतौर मुख्यमंत्री 41 फीसदी लोगों की पसंद बताया गया है। सर्वे के मुताबिक मुख्यमंत्री नितीश कुमार की लोकप्रियता में बेहद कमीआई है और वह सिर्फ  18 फीसदी लोगों की पसंद हैं। सर्वे की सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि 15 फीसदी लोगों ने प्रशांत किशोर को मुख्यमंत्री के रूप में पसंद किया है। इस सर्वे का मकसद तेजस्वी के मुकाबले नितीश कुमार को कमज़ोर दिखा कर उन पर दबाव बनाना और साथ ही चुनावी रणनीतिकार के तौर पर प्रचारित प्रशांत किशोर को 15 फीसदी लोगों की पसंद दिखा कर बिहार की राजनीति में स्थापित करना है। गौरतलब है कि प्रशांत किशोर भी अरविंद केजरीवाल की तरह राजनीति को बदलने के लिए राजनीति में उतरे हैं और उन्होंने जन सुराज के नाम से एक पार्टी भी बनाई है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस सर्वे की लाभार्थी भाजपा है। 
मोदी को आई जयललिता की याद
तमिलनाडु में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा यह तय करने में लगी है कि उसे अकेले चुनाव लड़ना है या तालमेल करना है और तालमेल करना है तो लोकसभा चुनाव की तरह छोटी पार्टियां सहयोगी होंगी या अन्ना डीएमके से तालमेल करना है। इस बीच 24 फरवरी को उनकी जयंती आई तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ी शिद्दत से उन्हें याद किया। सोशल मीडिया में और कहीं जयललिता की जयंती को लेकर कोई हलचल नहीं दिखी, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर एक लंबी पोस्ट लिख कर जयललिता को याद किया। मोदी ने उन्हें दयालु नेता और सक्षम प्रशासक बताया। मोदी ने जयललिता के लिए कहा कि उन्होंने अपना जीवन तमिलनाडु के विकास के लिए लगाया। 
मोदी ने खुद को भाग्यशाली बताया कि उन्हें जयललिता के साथ काम करने का मौका मिला। इसमें संदेह नहीं है कि जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने जयललिता के साथ बेहतर समन्वय बनाया था, लेकिन उनको इतने ऐहतराम से याद करने के पीछे शुद्ध राजनीति है। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष  अन्नामलाई तीन महीने की छुट्टी पर विदेश गए थे। वहां से लौटने के बाद उन्होंने अन्ना डीएमके से तालमेल करने की संभावना जताई थी। दूसरी ओर फिल्म स्टार विजय की नई बनी पार्टी टीवीके भी जयललिता की पार्टी से तालमेल करना चाहती है। तो क्या टीवीके, अन्ना डीएमके और भाजपा मिल कर चुनाव लड़ेंगे? अगर ऐसा होता है कि तमिलनाडु का चुनाव बहुत दिलचस्प हो जाएगा। 
मोदी सरकार को फासीवादी मानने पर विवाद
भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच कई मुद्दों पर विवाद चलता रहता है। आमतौर पर यह विवाद वैचारिक ही होता है, लेकिन कई बार राजनीतिक विवाद भी होते हैं। खासतौर से उन राज्यों में जहां कम्युनिस्ट पार्टियों का थोड़ा बहुत आधार है और जहां चुनाव लड़ने पर उनके जीतने की संभावना रहती है, लेकिन अभी देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीएम और सबसे नई व अपेक्षाकृत ज्यादा क्रांतिकारी सीपीआई  एमएल के बीच केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर विवाद छिड़ गया है। विवाद यह है कि मोदी सरकार को फासीवादी या नव फासीवादी कहा जाए या नहीं कहा जाए। 
इस पर दोनों पार्टियों के बीच वैचारिक संघर्ष छिड़ा है। एमएल के नेता सीपीएम को समझौतावादी बता रहे हैं। असल में इस साल सीपीएम की राष्ट्रीय कांग्रेस होनी है, जिसके लिए पार्टी का राजनीतिक प्रस्ताव तैयार हुआ, जिसमें मोदी सरकार को फीसीवादी प्रवृत्ति का कहा गया, लेकिन बाद में पार्टी ने अलग से एक नोट जारी करके कहा कि वह मोदी सरकार को फासीवादी या नव फासीवादी नहीं मानती है। इस नोट के बाद से सीपीआई एमएल के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य भड़के हुए हैं। उन्होंने सीपीएम को समझौतावादी बताया है और कहा कि केंद्र की मोदी सरकार फासीवादी सरकार है और ऐसा कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। हालांकि एमएल की आपत्तियों के बाद भी लगता नहीं है कि सीपीएम के राजनीतिक प्रस्ताव में कोई बदलाव होगा।

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