देश की प्रगति में बाधा डालती है हिंसा

मनुष्य स्वभाव से देखी सुनी बातों पर विश्वास करता है और उनकी तह तक जाए बिना मान लेता है कि ऐसा ही हुआ होगा। इससे होता यह है कि उसके अंदर भय, आत्मविश्वास की कमी और असुरक्षा का भाव पनपने लगता है। चाहे कोई घटना सैंकड़ों, हज़ारों वर्ष पहले हुई हो, उसे लगता है कि जैसे वह उसके सामने वर्तमान में ही घट रही है। वह विचलित होने लगता है, उसके अंदर क्रोध पनपने लगता है और वह कुछ ऐसा कर बैठता है जो उसके लिए ही नहीं, समाज के लिए भी हानिकारक हो जाता है। इस मन:स्थिति से बाहर निकलने के बाद वह पछतावा या पश्चाताप भले ही कर ले, लेकिन जो हो गया, उसे बदलना संभव न होने के कारण उसे अपने किए का नुकसान उठाना पड़ता है। 
भारतीय स्वभाव से हिंसक नहीं होते, इसका कारण प्राकृतिक हो या कुछ और, कुछ कहा नहीं जा सकता। यह भी सत्य है कि हम छोटी-सी बात से आहत हो जाते हैं और मानसिक तनाव में आ जाते हैं। इसी बात का फायदा उठाकर बहुत-से असामाजिक तत्व अपना उल्लू सीधा करने में लग जाते हैं। द्वेष, वैमनस्य, बदले की भावना और क्रोध इतना बलवती हो जाता है कि अपने पर काबू नहीं रहता और वह कर बैठते हैं जो करना तो दूर, कल्पना में भी नहीं होता। अचानक से वह ऐसे हो जाता है जैसे कोई हमें अपने नियंत्रण में रखकर करवा रहा है। यही वह खेल है जिसे समझे बिना टकराव की स्थिति बन जाती है और फिर विध्वंस शुरू हो जाता है। लगता है कि यदि यह नहीं किया या इसमें अपना योगदान नहीं दिया तो हमारा धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, हमारी नाक कट जाएगी और हम किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। यह धार्मिक उन्माद बन जाता है और धर्म की बनावटी रक्षा करने का भाव बनने लगता है। 
ज़रा सोचिए, कब औरंगज़ेब का शासन था, कब उसने अत्याचार किए थे और कैसे युद्ध में उसकी हार या जीत हुई थी। एक फिल्म शावा ने ऐसा माहौल बना दिया कि मानो वह सब कुछ अभी की घटना है। हिंदू और मुस्लिम आमने-सामने आ गए और यह तक भूल गए कि कल तक हम पड़ौसी थे, भाईचारा निभाते थे, कोई अनबन नहीं थी, लेकिन अचानक से एक फिल्म ने उस घटना को ऐसा ताज़ा कर दिया कि उन लोगों की पौ बारह हो गई जो इसी सामाजिक अव्यवस्था का लाभ उठाने को तैयार रहते हैं, क्योंकि इससे इनका राजनीतिक हित सधता है। फिल्म बनाने वालों को अनुमान भी नहीं होगा कि इससे लोगों में मुस्लिम शासकों के प्रति आक्रोश और हिंदुओं के लिए सहानुभूति का यह अंजाम होगा कि हिंसक घटनाओं की वजह बन जाएगी और अराजकता फैलाने की कोशिश करने वाले जनमानस को गुमराह करने लगेंगे। 
एक बात तो है कि बहुत-से दर्शक जो युद्ध की मारकाट और भयानक हिंसा से भरी फिल्में देखकर यह भी सोचते होंगे कि जो शासक रहे हों, उन्होंने युद्ध के अतिरिक्त और भी अनेक ऐसे कार्य किए होंगे जो प्रगति का इतिहास बन गए और उनकी गाथा प्रेरणा का स्रोत बन गई। विडंबना यह है कि यदि उनके शासन की बेहतरीन बातों को लेकर कोई फिल्म बनती भी है तो उसे दर्शक ही नहीं मिलेंगे। 
 न जाने कितने धार्मिक स्थान तथा अन्य सौन्दर्य तथा अनूठी कला के प्रतीक स्मारक क्रोध की भेंट चढ़ा दिए गए होंगे। एक बात और है कि जिसने कभी न तो युद्ध देखा और न कभी एक सैनिक की तरह उसमें भाग लिया, उसके लिए क्रूरता का व्यवहार करना आसान हो जाता है, क्योंकि यह उसका पहला अनुभव होता है। जो लड़ाइयां लड़ चुका होता है, उसे उनकी विभीषिका का अनुमान होता है, इसलिए वह कभी आवेश में नहीं आता और चाहता है कि विनाश की स्थिति न बने, लेकिन वह अपने को असहाय पाता है, क्योंकि सैनिक जीवन में अपने कमांडर का आदेश उसके लिए सबसे ऊपर होता था, लेकिन यहां तो अनियंत्रित भीड़ और सिरफिरे नेतृत्वहीन लोगों से मुकाबला करना है, इसलिए वह चुप रहकर सब कुछ होते हुए देखता रहता है। यह कर्त्तव्य और आचरण का भेद है, जो साधु प्रवृत्ति को दबाकर शैतानियत को अपने ऊपर हावी होने देता है।  विश्व के इतिहास पर नज़र डालें तो देखेंगे कि जो देश युद्ध के लिए तैयार तो रहते हैं, लेकिन केवल अपनी सीमाओं की रक्षा करने तक, इसके बाद तो उनका लक्ष्य आर्थिक विकास ही रहता है। विज्ञान और तकनीक के ज़रिए वे दुनिया में सबसे आगे रहना चाहते हैं और इसके लिए इस तरह की संरचना विकसित करते हैं कि भविष्य की चुनौतियों से निपटने के लिए क्या किया जाए, जिनमें आर्थिक विकास तो है ही, साथ में संसार में जीवन को जीने योग्य कैसे बनाया जाए, सुख समृद्धि के साधन कैसे उपलब्ध हों और नए आविष्कारों से कैसे उन्नति के शिखर तक पहुंचा जाए। 
यह मनोवैज्ञानिक स्थिति है कि जिस पर आक्रमण होता है या जो करता है, वह और उनका देश या समाज तो प्रभावित होता ही है, लेकिन उसका असर उन लाखों करोड़ों लोगों पर भी पड़ता है जो इन घटनाओं को आज के युग में स्क्रीन पर होते हुए देखते हैं। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि वास्तविक युद्ध से बहुत दूर बैठे लोगों को इनसे ऐसा भय लगने लगता है जिसका कोई कारण भले ही न हो और किसी भी संघर्ष का उनसे कोई लेना देना न हो, लेकिन वे डर में जीने लगते हैं। जाति और धर्म के बीच कड़वाहट जब घुल जाती है तो उसके परिणाम भयंकर रूप धारण कर ही लेते हैं। राजनीतिक दलों के लिए यह एक ऐसा अवसर होता है जो उनके लिए स्वर्णिम, लेकिन सामान्य व्यक्ति के लिए काल के समान होता है। प्रतिदिन इस प्रकार के उदाहरण सामने आते रहते हैं। 
आगज़नी की घटनाओं को देखकर एकबारगी तो विश्वास नहीं होता कि ऐसा भी हमारे देश में हो सकता है, लेकिन यह वास्तविकता है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। असल में यह सब उस करतब का हिस्सा है जो देश के राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए दिखाते हैं और आम आदमी इनसे भ्रमित होकर वही सोचने और करने लगता है जो इन नेताओं का सोचा समझा हुआ होता है कि कैसे किसी बेमतलब की बात को इतना तूल दिया जाए कि उससे समाज में बिखराव पैदा हो और उनके लिए अपनी रोटियां सेंकना आसान जो जाए। वरना सोचिए कि कब का मुगल काल और ब्रिटिश हुकूमत का दौर बीत चुका लेकिन उसका कंकाल ज़रा सी हवा पाते ही कितना भड़क उठता है कि मारामारी होने लगती है, लोग एक दूसरे से नफरत करने लगते हैं और कल शाम तक जो हमप्याला, हमनिवाला थे, आज एक-दूसरे की सूरत तक नहीं देखना चाहते। हालांकि यह मालूम है कि आज के बीतने पर जब कल की सुबह होगी तो फिर उनसे ही सामना होगा लेकिन अब गले तो मिलेंगे लेकिन पहले जैसी गर्मजोशी की बजाय कड़वाहट का घूंट गले से उतरता महसूस होगा। 
असल में चाहे हिंसा हो, युद्ध हो, इसकी जड़ में घृणा ही होती है।  यह सही है कि किसी के लिए हिंसा और अत्याचार का महिमा मंडन करना उसके व्यवसाय का अंग हो सकता है, लेकिन आज के वैज्ञानिक और आधुनिक युग में उससे प्रभावित होकर समाज में विघटन का माहौल बना देना केवल कुछ लोगों के लिए अपने निहित स्वार्थों को पूरा करने का ज़रिया बनने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। उससे अधिक चिंता की बात यह है कि समाज में अशांति फैलाने वाले यहीं तक नहीं रुकते, वे भय और आतंक का वातावरण बना कर मानसिक तनाव बढ़ा देते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। यदि इस स्थिति से बचाव करना है तो केवल फिल्म हो या कुछ और, उसे मात्र मनोरंजन समझकर भूल जाना ही बेहतर होगा। ये राजनेता अपनी कमियों पर से ध्यान हटाने के लिये कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन यदि हम सजग हैं तो वे कभी अपने मनोरथ में सफल नहीं हो सकते, यह निश्चित है। 

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