मुद्दा है अभिव्यक्ति की आज़ादी

एक लेखक के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उसकी आत्मा के प्रकाशित होने का सबब है, लेकिन कुणाल कामरा के एकनाथ शिंदे पर व्यंग्य गीत लिखने और इससे पहले रणवीर इलाहाबादिया से बड़ा प्रकरण अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सवाल को नए सिरे से सोचने पर विवश कर दिया है। कहने-सुनने में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत भला और उद्धार वाक्य नज़र आता है, लेकिन कितनी और कहां तक? का सवाल भी नकारे जाने लायक नहीं है।
हमने आपात्काल का दौर देखा है। पत्र-पत्रिकाओं में छपने से पहले पुलिस निरीक्षण का दौर था। लेखक, कलाकार, पत्रकार ज़रा-ज़रा-सी बात पर जेल की हवा खाते नज़र आते थे। रचनाकारों ने, नेताओं ने, आम लोगों ने इस कुटिल व्यवहार के विरुद्ध संघर्ष किया। आज ओ.टी.टी. प्लेटफार्म पर नग्नता, अस्वीकार्य भाषा, हिंसा का खुला प्रदर्शन परोसा जाता है। हमारा भारतीय मन कुछ इस तरह संस्कारित है कि हम सपरिवार ऐसे खुले दृश्य नहीं देख पाते। हमारे संस्कार सहिष्णुता, संवाद और एक-दूसरे के सम्मान की भावना से बने हैं। हमारी सभ्यता और संस्कृति इसी तरह फलती-फूलती रही है। वाद-विवाद बौद्धिक चर्चा का आधार बनी रही। आज सोशल मीडिया इस सबसे आगे छलांग लगा चुका है। तर्क-संगत बहस की जगह हीलिंग, आक्रोश और घृणा का प्रसार हो रहा है। नकारात्मकता बड़ी जगह पड़ रही है। गलत सूचना इतिहास बोध को खंडित कर रही है। अंतहीन स्क्रोलिंग, सेल्फी व वायरल ट्रैंडज़ की बाढ़ सी आ गई है। आखिर आपको वास्तविक दुनिया में रहना है। डिज़िटल युग में भी। आपको तय करना है कि जीवन खुशहाल बनाना है या गलतफहमियों और मुद्दों का बोझ लेकर जाना है। हमारे पूर्वजों ने ठीक से समय लिया था प्रकृति पूजा हिन्दुओं की प्राण शक्ति रही है। पीपल का पेड़, गंगा जल के प्रति मोह अकारण नहीं था। आज की पीढ़ी आभासी दुनिया से जुड़ कर वीडियो गेम्ज़ में गुम होकर तनाव, चिन्ता, अवसाद से मुक्त नहीं हो रही। उन्हें मनोरंजन चाहिए, स्वस्थ साहित्य, तथ्यपरक किताबें चाहिएं। भारतीय मूल्यों की समझ चाहिए। 
आज बोलने वाले अक्सर भाषा की गरिमा लांघ जाते हैं। जिस विषय, जिस वाणी में संतुलन नहीं है, वहां परेशानी हो सकती है। आज़ादी वहां तक है जहां तक वह सीमा पार नहीं करती। सहनशक्ति की भी एक सीमा है, सत्य, शिव, सुन्दरम की व्याख्या क्या फिर से करनी होगी? अभिव्यक्ति आवारा पक्षी नहीं जो कहीं भी चोंच मार दे। आपकी बाहें स्वतंत्र हैं लेकिन उतनी ही लहरा सकते हैं, जिसमें किसी की नाक या चेहरा नहीं टकरा रहा। 
जहां तक नेताओं के खिलाफ हास्य या व्यंग्य की बात है। नेहरू जी, अटल जी, मनमोहन सिंह के खूब हास्य बने, व्यंग्त लिखे गए, सुनाए गए। उन्होंने कभी नकारात्मक रूप में ग्रहण नहीं किया। किसी पर मानहानि का मुकद्दमा नहीं चलाया, न पुलिस भेजी, लेकिन आज राजनीति के तेवर बदल चुके हैं। राजनीति का स्तर गिरा है और नेताओं की सहनशक्ति में कमी आई है। यह भी कहा जा सकता है कि कुछ लोग सस्ती लोकप्रियता के लिए राजनेताओं को या माननीय लोगों पर बोलते रहते हैं। अपनी बात के असर को जानते हुए भी शायद चर्चा के केन्द्र में रहना उन्हें भला लगता है और अपनी किसी भी कमिटमेंट के ऊपर।
ऐसे मामलों में बीच का रास्ता खोजना होगा। शायद धैर्य के साथ बात करने और सुनने के वक्त से हम काफी आगे के दौर में चले आए हैं। विडम्बना है समय की कमी। ज़रा ठहर कर बात सुनने, दरगुजर करने के एहसास की कमी।

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