प. बंगाल शिक्षक भर्ती घोटाले का असर
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पश्चिम बंगाल के सरकारी एवं सहायता-प्राप्त स्कूलों की भर्ती परीक्षा त्रुटिपूर्ण एवं धोखे से पास करने वाले 23123 शिक्षकों को द़ागी करार देकर नौकरी से बर्खास्त कर देने के फैसले ने प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को जहां एक कठिन परीक्षा की घड़ी में डाला है, वहीं लगभग 27750 कर्मचारियों को बेरोज़गार करके उनके परिवारों को भी संकट में डाल दिया है। इनमें से 23000 से अधिक शिक्षकों के अतिरिक्त शेष ़गैर-शिक्षण कर्मचारी शामिल हैं। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का एक प्रभाव यह भी है कि कई स्कूलों के पूरे के पूरे स्टाफ को सेवा से निकाल दिया गया है, और कई स्कूलों में तो घंटी बजाने वाला तक भी नहीं रहा। इस फैसले के कारण कई सरकारी एवं सहायता-प्राप्त स्कूल तो बन्द होने के कगार पर पहुंच गए हैं। इस फैसले का असर पिछले शिक्षा सत्र में भाग लेने वाले लाखों परीक्षार्थियों पर भी पड़ने की सम्भावना है क्योंकि प्रभावित हुए शिक्षकों से कई हज़ार के पास विद्याथियों की लाखों परीक्षा-उत्तर पुस्तिकाएं अंक बांटने हेतु पड़ी हैं।
प. बंगाल की सरकार से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े इस मामले की शुरुआत वर्ष 2016 में सरकारी और ़गैर-सरकारी सहायता-प्राप्त स्कूलों में लगभग 24,640 पदों की भर्ती के साथ हुई थी। इस परीक्षा हेतु लगभग 23 लाख उम्मीदवारों ने भाग लिया था किन्तु 2016 में शिक्षकों एवं अन्य स्टाफ की नियुक्ति के तत्काल बाद इस मुद्दे को लेकर विवाद शुरू हो गया था। यहां तक कि तत्कालीन शिक्षा मंत्री पारथा चैटर्जी पर पैसे लेकर नौकरी देने के गम्भीर आरोप लगे थे। इन आरोपों के कारण एक बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। इसके बाद यह मामला कोलकाता उच्च न्यायालय को सौंप दिया गया, और अदालत ने व्यापक जांच-पड़ताल हेतु मामले को केन्द्रीय जांच ब्यूरो को भी सौंप दिया था। अदालत ने बड़ी जांच-विचार के बाद 22 अप्रैल, 2024 को इन सभी नियुक्तियों को रद्द कर दिया। बहुत स्वाभाविक है कि इस फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने पहले तो स्थगन आदेश जारी किया, और फिर 4 अप्रैल, 2025 को उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए इन सभी नियुक्तियों को द़ागदार करार देते हुए रद्द कर दिया।
नि:संदेह इस फैसले को लेकर राष्ट्र-व्यापी चर्चा हुई है, और कि इसका नकारात्मक प्रभाव बहु-आयामी पड़ते हुए दिखाई देने लगा है। बेशक इस कारण हज़ारों लोगों के एकाएक बेरोज़गार हो जाने और उनसे वाबस्ता हज़ारों परिवारों के भूख के कगार पर जा खड़े होने तक की नौबत आ गई है। इस फैसले का प्रभाव प्रदेश विधानसभा के आगामी चुनावों पर भी पड़ने की सम्भावना है, और कि इससे प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच आपसी खींचतान चरम शिखर पर पहुंच जाने की भी प्रबल आशंका बन गई है। इसका प्रमाण इस एक तथ्य से भी चल जाता है कि एक ओर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हटाये गये कर्मचारियों को पूर्व की भांति अपने पदों पर उपस्थिति दर्ज करने का विद्रोहात्मक सुझाव दिया है, तो वहीं इन नियुक्तियों के कारण प्रभावित होने वाले लाखों परिवारों में खुशी जैसा माहौल बना है। इन प्रभावित लोगों ने नियुक्तियों के बाद बहुत वावेला किया था, और प्रदेश-व्यापी प्रदर्शन भी किए गये थे। भाजपा इस फैसले की आड़ में जहां तृणमूल कांग्रेस की सरकार को उखाड़ फैंकने के मन्सूबे तैयार कर रही है, वहीं ममता बनर्जी इस मामले के कंटको को उखाड़ने की योजनाओं पर पूरी तरह से फोकस किए है। राजनीतिक विश्लेषक इस मामले की तुलना 2017 में त्रिपुरा उच्च न्यायालय के ऐसे ही एक फैसले के साथ भी करते हैं जहां मुख्यमंत्री माणिक सरकार के नेतृत्व वाली मार्क्सवादी सरकार को अगले विधानसभा चुनावों में पराजय का स्वाद चखना पड़ा था।
इस प्रकार बेशक सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैसले के साथ दूध का दूध और पानी का पानी करते हुए, न्याय के एक उच्च तकाज़े की मांग को ही पूरा किया है, किन्तु नि:संदेह इसके कारण मानवीय भावनाओं और मानवता के प्रति उदार सोच जैसी भावना का हनन हुआ है। तथापि सर्वोच्च अदालत ने बेशक इस फैसले के साथ एक स्थान पर मानवीय संवेदना को जोड़े रखा है। इस फैसले की एक धारा के तहत हटाये गये कर्मचारियों को पहले अब तक लिए गए वेतन-भत्तों को लौटाने का निर्देश दिया गया था, परन्तु बाद में इस फैसले पर अदालत ने स्वयं रोक भी लगा दी। क्योंकि इस फैसले से प. बंगाल के हज़ारों परिवार बेवजह प्रभावित तो होंगे ही। हम समझते हैं कि प. बंगाल सरकार, वहां के राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों को समस्या के इस त्रासद पक्ष की ओर अवश्य सोचना चाहिए, और इसके किसी सुखद एवं उदार पटाक्षेप की कोई तरकीब अवश्य तलाश की जानी चाहिए।