भारत अब हवा में ही खत्म कर देगा दुश्मन के नापाक इरादे !

भारत अब उन गिनती के देशों- अमरीका, रूस, चीन, फ्रांस, इंग्लैंड व इज़राइल की कतार में शामिल हो गया है, जिनके पास स्टार-वार्स जैसे डायरेक्टिड एनर्जी वेपन्स (डीईडब्लू) हैं, जबकि ईरान व तुर्की का दावा है कि डीईडब्लू उसकी सक्रिय सेवा में हैं और पाकिस्तान सैन्य-ग्रेड ‘के’ यह हथियार विकसित करने में लगा हुआ है। इस बैसाखी (13 अप्रैल 2025) को भारत ने पहली बार प्रदर्शित किया कि उसके पास शक्तिशाली 30-किलोवाट लेज़र आधारित सिस्टम को प्रयोग करने की क्षमता है, जिससे वह छोटे रिमोट-नियंत्रित एयरक्राफ्ट, स्वार्म ड्रोन्स, मिसाइल व सेंसर्स को अक्षम, बेकार या नष्ट कर सकता है। भारत में रक्षा हेतु इस हथियार की ज़रुरत काफी समय से शिद्दत से महसूस की जा रही थी। गौरतलब है कि 2019 के मध्य में ड्रोन के ज़रिये पंजाब व जम्मू-कश्मीर में ड्रग्स व हथियार गिराये गये थे और तब पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने केंद्र से इन घटनाओं को रोकने के लिए कठोर कदम उठाने की मांग की थी। संदेह यह था कि सुरक्षित फासले से ड्रोन का प्रयोग आतंकी हमला करने के लिए भी किया जा सकता है। हुआ भी यही कि 27 जून 2019 की सुबह जम्मू एयरपोर्ट में आईएएफ स्टेशन पर संदिग्ध क्वैंडकॉप्टर से आईईडी (इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइसेस) गिराये गये, जिनसे पांच मिनट के भीतर दो कम-तीव्रता वाले विस्फोट हुए, जिनमें बिल्डिंग की छत में छेद हो गया और टेक्निकल क्षेत्र में ड्यूटी कर रहे दो जवान घायल हो गये। आईएएफ स्टेशन पाकिस्तान की सीमा से मात्र 14 किमी के फासले पर है। 
भारत में पहली बार ड्रोन से हुए हमले के लिए लश्कर पर शक था। इसलिए इस ड्रोन-रूपी नये आतंक के परों को काटने के लिए जल्द टेक्नोलॉजिकल समाधान तलाश करना आवश्यक हो गया था, खासकर इसलिए कि ड्रोन को इतनी कम ऊंचाई पर उड़ाया जा सकता है कि उसे राडार के ज़रिये पकड़ना लगभग असंभव हो जाता है। अब इस ज़रूरत को पूरा कर लिया गया है। आंध्र प्रदेश के कुरनूल नेशनल ओपन एयर रेंज में 3.5 किमी की दूरी तक छोटे फिक्स्ड-विंग एयरक्राफ्ट, सात ड्रोनों के झुंड और साथ ही ‘ब्लाइंड’ सर्विलांस कैमरा व ड्रोनों पर चढ़े सेंसर्स को नष्ट करने के लिए ज़मीन पर तैनात लेज़र-डीईडब्लू मार्क-11(ए) से अनेक परीक्षण किये गये जोकि सफल रहे। डीआरडीओ के महानिदेशक (इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन सिस्टम्स) डा. बीके दास के अनुसार, ‘महंगे मिसाइल व गोला बारूद वाले ‘काइनेटिक किल्स’ की तुलना में ‘बीम किल्स’ अत्यधिक शक्तिशाली व पुन:प्रयोग किया जाने वाला हथियार है। प्रति किल (हमला) इसमें कम खर्च आता है। जिस प्रकार के आजकल हम लम्बे युद्ध देख रहे हैं, उनमें यह विशेषरूप से सस्ता पड़ता है। यह भविष्य की टेक्नोलॉजी है।’
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि 30-किलोवाट का वाहन-आधारित इंटीग्रेटेड ड्रोन डिटेक्शन एंड इंटरडिक्शन सिस्टम (आईडीडी-आईएस) का विकसित किया जाना भारत के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जो इस प्रकार की सस्ती ड्रोन-रोधी व्यवस्था को बनाने के मामले में अन्य देशों से पिछड़ गया था। अब चुनौती यह है कि इस सिस्टम का छोटा संस्करण तैयार किया जाये ताकि उसे हवाई प्लेटफार्म व वॉरशिप्स पर भी तैनात किया जा सके। सशस्त्र बलों ने अभी तक 2-किलोवाट लेज़र क्षमता के 23 आईडीडी-आईएस ही तैनात किये हैं, जिनमें लगभग 400 करोड़ रूपये का खर्च आया है। वैसे डीआरडीओ ने 10 किलोवाट लेज़र भी विकसित कर लिया है लेकिन इनकी मारक क्षमता मात्र 1 से 2 किमी ही है। लेकिन इन दोनों सिस्टम्स का अभी बड़ी संख्या में उत्पादन नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त सीमित संख्या में कुछ अन्य सिस्टम्स का भी आयात किया गया है, जैसे इज़राइल से ‘स्मैश-200 प्लस’, जिसे राइफल पर चढ़ाकर दोनों दिन व रात में दुश्मन ड्रोनों को नष्ट किया जा सकता है। डा. दास के अनुसार, ‘लेज़र-डीईडब्लू मार्क-11(ए) का परीक्षण गर्म मौसम या अत्यधिक तीव्र स्थितियों में 3.5 किमी रेंज (मारक क्षमता) के लिए किया गया। यूजर ट्रायल्स 1 से 1.5 वर्ष के भीतर किये जा सकते हैं। उत्पादन के लिए डीआरडीओ कम्पनियों को टेक्नोलॉजी ट्रांसफर कर रहा है।’
दुनियाभर में अब मानवरहित हवाई सिस्टम्स की भरमार होती जा रही है। फलस्वरूप बहुत तेज़ी से घातक ड्रोन झुंडों (स्वार्म) का असमतल खतरा बढ़ता जा रहा है। इसलिए डीआरडीओ 50 से 100 किलोवाट पॉवर लेवल के डीईडब्लू पर भी कार्य कर रहा है और साथ ही हाई-एनर्जी माइक्रोवेव्स पर भी काम चल रहा है। दरअसल, अल्प, मध्यम व दीर्घकालीन लक्ष्यों के लिए एक रोडमैप तैयार किया गया है और यह सब कार्य उसी के अनुसार चल रहा है। डीआरडीओ के एक अन्य अधिकारी का कहना है, ‘डीईडब्लू अपनाकर दुनियाभर की सेनाएं सस्ते रक्षा समाधान की तलाश कर रही हैं ताकि कम-खर्च में किये जाने वाले ड्रोन हमलों का मुकाबला किया जा सके। कुछ सेकंड के लिए डीईडब्लू फायर करने पर चंद लीटर पेटोऊल जितना ही खर्च आता है। इसलिए विभिन्न प्रकार के निशानों को पराजित करने के लिए इसमें दीर्घकालीन व कम खर्च की क्षमता है।’ यह 60 किलोवाट लेज़र है और इसकी क्षमता को 120 किलोवाट तक बढ़ाया जा सकता है। इज़राइल 100 किलोवाट ‘आयरन बीम’ लेज़र वेपन सिस्टम तैनात करने की तैयारी में है, जिसकी रेंज 10 किमी होगी। इंग्लैंड अपनी वॉरशिप्स के लिए ‘ड्रैगन फायर’ विकसित कर रहा है। यह सही है कि काइनेटिक हथियारों की तुलना में निशानों पर लेज़र बीम से हमला रोशनी की रफ्तार से किया जा सकता है और यह सस्ता भी पड़ता है, लेकिन डीईडब्लू का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाना अब भी शेष है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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