पश्चिम बंगाल में हिन्दू मानवाधिकार का उल्लंघन 

पश्चिम बंगाल में हिंदू समुदाय की स्थिति इन दिनों अत्यधिक चिंता का विषय बन गई है। एक समय में जो प्रदेश धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक विविधता के लिए जाना जाता था, वहां अब धार्मिक असंतुलन, असहिष्णुता और लक्षित हिंसा की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। हाल के वर्षों में मंदिरों पर हमले, धार्मिक जुलूसों में पथराव, हिंदू त्योहारों पर पाबंदियां और समुदाय विशेष पर राजनीतिक हमले जैसे घटनाक्रम सामान्य होते जा रहे हैं। यह न केवल धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है, बल्कि यह स्थिति मानवाधिकारों के मूल सिद्धांतों के खिलाफ एक गंभीर संकट का संकेत भी देती है।
आज का राजनीतिक परिदृश्य दर्शाता है कि मानवाधिकार अब केवल एक नैतिक मुद्दा नहीं रह गया, बल्कि पूरी तरह से राजनीतिक लाभ-हानि के चश्मे से देखा जा रहा है। पश्चिम बंगाल में बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के साथ जो व्यवहार हो रहा है, वह इस बात का प्रमाण है कि लोकतंत्र के भीतर भी बहुसंख्यक असुरक्षित महसूस कर सकता है। रामनवमी और हनुमान जयंती जैसे धार्मिक आयोजनों पर हमले, प्रशासनिक अनुमति न देना या जुलूस निकालने पर हिंसा का सामना करना, यह सब दर्शाता है कि राज्य के भीतर धार्मिक प्राथमिकताएं राजनीतिक प्रतिबद्धताओं पर आधारित हो गई हैं। इन घटनाओं पर तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग और मीडिया की चुप्पी भी उतनी ही खतरनाक है, जितनी हिंसा स्वयं।
वर्ष 2024-25 में बंगाल में हुई घटनाएं इस स्थिति को और स्पष्ट करती हैं। रामनवमी के दौरान हावड़ा, रिसड़ा व उत्तर 24 परगना जैसे ज़िलों में हुए दंगे, जहां जुलूसों पर पथराव, दुकानों में आगजनी और पुलिस की निष्क्रियता देखने को मिली, इस भयावह यथार्थ को उजागर करते हैं। इसी तरह बीरभूम में बजरंग दल कार्यकर्ता की हत्या, मालदा में मंदिर में तोड़-फोड़ और दुर्गा पूजा विसर्जन पर लगाए गए प्रतिबंध इस ओर इशारा करते हैं कि बहुसंख्यक समुदाय की धार्मिक आस्थाएं अब प्रशासनिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण बन गई हैं। इस प्रकार की घटनाएं केवल कानून-व्यवस्था की विफलता नहीं, बल्कि सामाजिक और वैचारिक गिरावट का संकेत भी हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि जब किसी अन्य समुदाय के साथ अन्याय होता है, तो वह तुरंत अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार बहस का विषय बन जाता है, लेकिन जब हिंदू समुदाय पीड़ित होता है, तब यह मुद्दा या तो दरकिनार कर दिया जाता है, या राजनीतिक एजेंडा बता कर खारिज कर दिया जाता है। यही वह दोहरा मापदंड है जो वर्तमान समाज की नैतिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।
पश्चिम बंगाल में हो रही इन घटनाओं को केवल राज्य का मामला कह कर नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। केंद्र सरकार को न केवल तथ्यात्मक रिपोर्ट्स की मांग करनी चाहिए, बल्कि ज़रूरत पड़े तो संविधान के अनुच्छेदों के तहत कार्रवाई भी करनी चाहिए, ताकि भविष्य में धार्मिक असहिष्णुता को रोका जा सके। साथ ही, सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए, ताकि बंगाल की पीड़ा को पूरे देश तक पहुंचाया जा सके।
बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और सामाजिक संगठनों को भी अपनी नैतिक भूमिका निभानी होगी। यह आवश्यक है कि वे निष्पक्ष रूप से अत्याचार की हर घटना पर आवाज उठाएं, चाहे वह किसी भी समुदाय के खिलाफ हो। धार्मिक असहिष्णुता को केवल अल्पसंख्यक के दृष्टिकोण से देखना, मानवाधिकार की अवधारणा को एकतरफा बना देता है। भारत के भीतर और बाहर हर व्यक्ति को यह समझना होगा कि न्याय की असली पहचान इसी में है कि हम हर पीड़ित की पीड़ा को सुनने का साहस रखें— चाहे वह बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक। पश्चिम बंगाल में हिंदू समुदाय के साथ जो हो रहा है, वह केवल एक धार्मिक या क्षेत्रीय मुद्दा नहीं है, यह हमारी नैतिक चेतना की भी परीक्षा है। यह सवाल हर भारतीय से है-क्या बहुसंख्यक की पीड़ा कोई पीड़ा नहीं है? क्या न्याय और सहिष्णुता का सिद्धांत केवल कुछ लोगों के लिए आरक्षित है? अगर हम इन सवालों का जवाब ईमानदारी से नहीं देंगे, तो हमारा लोकतंत्र खोखला होता जाएगा।
समय की मांग है कि पूरे भारत में एक सामूहिक नैतिक चेतना का जागरण हो। पश्चिम बंगाल में घट रही घटनाओं पर यदि देशवासी चुप रहेंगे, तो कल यही आग अन्य राज्यों तक पहुंच सकती है। आज बंगाल की रक्षा केवल प्रशासनिक कदमों से नहीं, बल्कि जन-जागरण और राष्ट्रीय एकता की भावना से ही संभव है। हमें यह याद रखना होगा कि भारत की आत्मा तभी जीवित रह सकती है, जब उसका हर नागरिक चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या क्षेत्र का हो, सुरक्षित और सम्मानित महसूस करे। आज अल्पसंख्यक वर्ग हिंदू समुदाय के लिए एक असुरक्षित इकाई बनता जा रहा है। यह केवल धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं है, बल्कि एक गंभीर मानवाधिकार संकट है। ‘वो मंदिरों की घंटियां अब खामोश क्यों हैं, वो दीप जो जलते थे, अब कौन बुझा गया है? बंगाल की फिज़ाओं में जो गूंजता है, वो दर्द है, जो हर दिल को छलनी करता है।’ आज का राजनीतिक परिदृश्य यह दिखाता है कि दुनिया भर में मानवाधिकारों के मुद्दे न केवल नैतिकता बल्कि राजनीतिक लाभ-हानि के चश्मे से देखे जा रहे हैं। बंगाल में हिंदू अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार और उनके धार्मिक स्थलों पर हो रहे हमले इस बात का गंभीर उदाहरण हैं कि कैसे अल्पसंख्यक समुदायों को नजरअंदाज किया जा रहा है। इन घटनाओं पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और बुद्धिजीवियों की चुप्पी यह दिखाती है कि मानवाधिकारों के मुद्दे भी राजनीतिक प्राथमिकताओं पर निर्भर करने लगे हैं। 

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