भारत ने आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का विश्व के सामने प्रतिमान पेश किया

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दो टूक, प्रखर और समयानुकूल स्वाभाविक प्रखर आक्रामक तेवर और घोषणाओं के साथ भाव भंगिमाओं को देखने के बाद भारत के अंदर और पूरे विश्व में जिन्हें भी सीमा पार आतंकवाद, जम्मू-कश्मीर और भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर कोई भ्रम रहा होगा वह दूर हो जाना चाहिए। अगर दूर नहीं होता है तो देशों की अपनी कुटिल नीति हो सकती है और भारत के अंदर मानसिक ग्रंथि। वास्तव में 10 मई को टकराव रुकने की सेना की दोनों महिला अधिकारियों तथा विदेश सचिव के वक्तव्य के बाद कम से कम भारत के अंदर आश्वस्ति होनी चाहिए थी। उसके बाद लगातार दो दिनों तक सेना के तीनों अंगों के तीन शीर्ष अधिकारियों ने जिस तरह बिंदुवार सुस्पष्ट और मुखर भाषा में सैन्य रणनीति और स्टैंड को सामने रखा उनसे साफ  हो गया था कि ऑपरेशन सिंदूर के तात्कालिक लक्ष्य और उद्देश्य पूरे हो गए हैं किंतु पाकिस्तान के विरुद्ध केवल सैन्य कार्रवाई छोड़कर संपूर्ण रणनीति जारी है। प्रधानमंत्री अगर घोषणा कर रहे हैं कि टेरर के साथ टॉक, ट्रेड यानी आतंकवाद के साथ बातचीत और व्यापार नहीं चल सकता है, पानी और खून एक साथ नहीं बह सकता है और उसके बाद अगर देश के अंदर कोई सोचता है कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प या वहां के विदेश मंत्री के पोस्ट के आधार पर भारत की नीति चल रही है तो वैसे लोगों के लिए क्या शब्द प्रयोग किया जाए यह पाठक तय कर लें।
प्रधानमंत्री ने कहीं भी अपने संबोधन में युद्धविराम शब्द का प्रयोग नहीं किया और इसके पूर्व सेना के प्रवक्ताओं ने भी नहीं किया। विदेश सचिव के वक्तव्य तब में भी यह शब्द नहीं था। प्रधानमंत्री के वक्तव्य से साफ है कि आतंकवाद और सैन्य दुस्साहस रोकने की पाकिस्तान द्वारा दी गई गारंटी के आधार पर ही ऑपरेशन सिंदूर और सेना का प्रतिप्रहार रुका तथा इस कसौटी पर उसके आचरण को देखकर ही भविष्य तय होगा। वास्तव में प्रधानमंत्री के वक्तव्य में मूल पांच बातें स्पष्ट थी। पहला, पहलगाम हमले के बाद सीमा पार आतंकवाद और पाकिस्तान के संदर्भ में हमारा स्टैंड और पूरी सैन्य रणनीति कायम है। दूसरा, पाकिस्तान के हमले के लगातार विफल होने और उनके सैन्य अड्डों के तबाह होने के बाद शांति की पहल उन्होंने की और भारत अपनी शर्तों पर इसे स्वीकार किया। यह देश के अंदर बनाए गए झूठे नैरेटिव का उत्तर था जो सेना के प्रवक्ताओं द्वारा पत्रकार वार्ताओं में पहले भी दिया जा चुका था। कुछ समूह इसे स्वीकार करने की जगह अपनी ही नीति को कटघरे में खड़ा करने लगे। अगर आतंकवादी हमले हुए तो कार्रवाई केवल आतंकवादियों और उनके अड्डों के पर ही नहीं होगी इसे पाकिस्तानी सत्ता की भूमिका मानकर होगी। कोई भी समझ सकता है कि यह सीधी-सीधी चेतावनी है। तीसरा, अमरीका सहित दूसरे देशों के लिए संदेश था कि यह संभव नहीं कि आतंकवादी देश न्यूक्लियर ब्लैकमेल के आधार पर शांति की बात करें और हम स्वीकार कर लें। ध्यान रखिए, भारत ने जिन वायु सेना अड्डों पर पाकिस्तान में कार्रवाई की, उनमें माना जाता है कि उसके तीन न्यूक्लियर इंस्टॉलेशन के पास थे और वह घबरा गया कि अगर भारत यहां पहुंच सकता है तो आगे हमारे लिए इसका भी उपयोग करना संभव नहीं होगा। चौथा, अगर पाकिस्तान से कोई बातचीत होगी तो केवल पाक अधिकृत कश्मीर पर और आतंकवाद पर होगी। यह भारत के अंदर विरोधियों और विशेषकर ट्रम्प प्रशासन को उत्तर था जो जम्मू-कश्मीर समस्या को सुलझाने और तटस्थ स्थान पर बातचीत करने का दंभ भर रहे थे। मोदी सरकार का यह स्टैंड पहले से क्लियर था। पांचवां, हमारे स्वदेशी निर्मित विषयों और सैनिक उपकरणों ने जैसी सफलता प्राप्त की है उसके बाद कोई देश यह न सोचे कि युद्ध के दौरान हमको उनकी अपरिहार्यता रहेगी।
गहराई से देखें अमरीका सहित पश्चिमी देशों को संदेश के साथ ही यह भारत की रक्षा सामग्रियों के अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की एक बड़ी ब्रांडिंग थी यानी हम भी प्रतिस्पर्धा में उतर गये हैं।  देखा जाए तो भारत ने स्वयं को ऑपरेशन सिंदूर तथा उसके बाद प्रधानमंत्री के वक्तव्य से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक नेतृत्वकारी भूमिका वाले देश के रूप में प्रस्तुत किया है। अमरीका की परेशानी यह भी हो गई कि अगर भारत इस तरह साहसिक सैन्य कार्रवाई करता रहा तो दुनिया के नेता का उसका स्थान खतरे में होगा। तभी डोनाल्ड ट्रम्प की भाषा भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए समान थी। उन्होंने दोनों को महान देश बताया तथा दोनों के साथ सतत् व्यापार करने की भावना व्यक्त की। अचानक चीन के साथ व्यापार टकराव दूर करने के पीछे भी यही रणनीति हो सकती है।
प्रधानमंत्री को सारी बातें ध्यान में रही होंगी और उसी अनुसार 22 अप्रैल के पहलगाम हमले के बाद पूरी तात्कालिक और दूरगामी सैन्य रणनीति, कूटनीति ए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नीति और राजनीति निश्चित हुई है। प्रधानमंत्री ने अमरीका और यूरोप को भी यह कहते हुए आईना दिखा दिया कि आपके यहां भी 11 सितम्बर, 2001 के और ब्रिटेन में ट्यूब के हमले के पीछे भी यही बहावलपुर के जैश-ए-मोहम्मद और मुरीदके के लश्कर-ए-तैयबा केंद्र की भूमिका थी। यह सच है कि तब वैश्विक आतंकवाद के केंद्र में ये स्थल थे। ओसामा-बिन-लादेन इन स्थानों में तकरीरें-बैठकें करता था, इनसे सीधे रिश्ते थे और अलकायदा एवं उसके द्वारा स्थापित इंटरनेशनल इस्लामिक फ्रंट के साथ सारे संगठन संबंद्ध हो गए थे। अगर प्रधानमंत्री कहते हैं कि उन्होंने हमारी माताओं-बहनों की मांगों के सिंदूर उजड़ा तो हमने उनके अड्डों को ही उजाड़ दिया। साथ यह भी कि ऑपरेशन सिंदूर एक अखंड प्रतिज्ञा है। नहीं लगता कि इस समय विश्व का कोई भी नेता इतने खतरनाक पड़ोसी, जिसके पास न्यूक्लियर अस्त्रागार हो और मजहबी उन्माद के आधार पर देश के बड़े वर्ग को मरने-मारने पर उतारू करने की विचारधारा, के समक्ष इस प्रकार के विचार और तेवर सामने रख सकता है। अब न केवल आतंकवादियों बल्कि उनको प्रायोजित करने वाले पाकिस्तान की सेना और संपूर्ण सत्ता को इस चेतावनी को गंभीरता से लेना होगा कि उन्हें आतंकवाद का इंफ्रास्ट्रक्चर ध्वस्त करना ही होगा। नहीं करेंगे तो फिर ऑपरेशन सिंदूर की विस्तारित प्रचंड हमले के लिए तैयार रहें और वह निर्णायक होगा।
प्रधानमंत्री ने साफ  कर दिया है कि आतंकवाद से पीड़ित विश्व शांति की बजाय इस रणनीति को अपनायें तथा भयभीत छोटे देश भारत के साथ आएं। कुल मिलाकर यहां से भारत की दक्षिण एशिया सहित संपूर्ण विश्व के आतंकवाद तथा कश्मीर जैसे मुद्दों के संदर्भ में विजय और समाधान के आत्मविश्वास से भरी निर्भीक, दूरगामी और तथा कमजोर देशों के लिए नेतृत्वकारी भूमिका सामने आई है। इस तरह ऑपरेशन सिंदूर के साथ भारत एक ऐसे नए दौर में प्रवेश का संदेश दे चुका है जहां उसकी स्वयं की सुरक्षा, आत्मनिर्भरता तथा वैश्विक शांति की उसकी अपनी दृष्टि सर्वोपरि है और किसी देश का इसके परे सुझाव या साथ उसे स्वीकार नहीं। क्या देश में विरोधी भी इस युगांतरकारी सच को स्वीकार करेंगे?

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