खतरनाक सिद्ध होगा नागरिकों का सैन्यकरण
असम मंत्रिमंडल ने 28 मई, 2025 को एक विशेष योजना को मंज़ूरी दी, जिसके तहत बांग्लादेश सीमा के निकट संवेदनशील व सुदूर क्षेत्रों में मूल निवासियों व देशज नागरिकों को हथियारों के लाइसेंस प्रदान किये जायेंगे। इन क्षेत्रों में बांग्लाभाषी मुस्लिम बहुसंख्या में हैं। असम सरकार के इस विवादित व चिंताजनक फैसले पर सभ्य समाज द्वारा आपत्ति व विरोध करना एकदम उचित प्रतीत होता है। उत्तर-पूर्व को अधिक बंदूकों की ज़रूरत नहीं है। वर्षों के कठिन ऑपरेशनों, वार्ता व समझौतों के बाद यह नतीजा निकला कि उत्तर-पूर्व में 10,000 से अधिक आतंकियों ने अपने हथियार डाले और अब लोगों को फिर से बंदूकें पकड़ाने से सुरक्षा उद्देश्य ही व्यर्थ हो जाते हैं। इससे यह वृत्तांत भी ध्वस्त हो जाता है कि उत्तर-पूर्व में स्थितियां सामान्य होती जा रही हैं।
इसके बावजूद असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा अपनी सरकार के फैसले को उचित ठहरा रहे हैं। उनका कहना है, ‘यह महत्वपूर्ण व संवेदनशील निर्णय है ...इन ज़िलों में देशज लोग असुरक्षा का सामना कर रहे हैं, विशेषकर बांग्लादेश के हाल के घटनाक्रम के कारण। उन पर हमले का खतरा है, सीमा पार से या अपने ही गांवों के भीतर से। अगर यह फैसला पहले ही ले लिया जाता तो अनेक देशज परिवारों को अपनी ज़मीनें नहीं बेचनी पड़तीं या उन्हें पलायन नहीं करना पड़ता।’ दरअसल, सरमा कह यह रहे हैं कि देशज समुदायों को हथियारबंद करने का उद्देश्य खतरे को कम करना व व्यक्तिगत सुरक्षा को मज़बूत करना है, विशेषकर धुबरी, नागांव, मोरीगांव, बारपेटा, दक्षिण सलमारा-मनकाचार और गोलपारा क्षेत्रों में।
लेकिन अनेक कारणों से सरमा का यह स्पष्टीकरण बेतुका व अस्वीकार्य है। सबसे पहली बात तो यह है कि देशज समुदायों का सैन्यकरण करने का अर्थ यह है कि राज्य सरकार स्वीकार कर रही है कि वह उनकी सुरक्षा करने में नाकाम रही है, जोकि उसका बुनियादी कर्त्तव्य है। क्या सरमा मान रहे हैं कि असम पुलिस व राज्य में अन्य सुरक्षा बल कानून व्यवस्था सुनिश्चित नहीं कर पाएं हैं? दूसरा यह कि असम में उग्रवाद प्रभावित अराजकता का भयावह इतिहास रहा है। उल्फा आतंक जब अपने चरम पर था तो अपहरण, फिरौती व लक्षित हत्याएं बेरोक टोक जारी थीं। क्या होगा अगर नई उदार बंदूक लाइसेंस नीति उल्फा आतंक के उसी दौर को फिर से वापिस ले आये? जैसा कि असम में विपक्ष के नेता ने कहा कि राज्य सरकार बंदूकों के लाइसेंस तो दे सकती है, लेकिन इन बंदूकों का इस्तेमाल कैसे होगा, इस पर उसका नियंत्रण नहीं हो सकता। गौरतलब है कि सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश सरकार ने गन लाइसेंस देने में उदारता की नीति अपनायी थी और इसका नतीजा यह निकला कि राज्य में, खासकर गांवों में हत्याओं व लूटपाट की घटनाओं में चिंताजनक वृद्धि हो गई थी और राज्य सरकार को अपनी उदारता पर विराम लगाना पड़ा था। आज उत्तर प्रदेश में गन लाइसेंस हासिल करना सबसे कठिन कार्यों में से एक है।
तीसरी बात यह है कि हाल के वर्षों में उत्तर-पूर्व को विकास हब और भारत की पूर्वी नीति के मुख्य स्तंभ के रूप में प्रदर्शित किया गया है। क्या इस क्षेत्र में कोई निवेश करने में दिलचस्पी दिखायेगा, अगर अराजकता का वातावरण बना रहेगा? ध्यान रहे कि मोरीगांव, जिसे नई गन लाइसेंस पालिसी के लिए चुना गया है, में सेमीकंडक्टर प्लांट लगाने की योजना है। सेमीकंडक्टर निर्माण के लिए सैंकड़ों सहायक कम्पनियों की ज़रूरत पड़ती है। अगर स्थानीय कानून व्यवस्था में विश्वास ही नहीं होगा तो कौन-सी कम्पनी वहां निवेश करना चाहेगी? बंदूक संस्कृति कितनी खतरनाक हो सकती है, इसका अंदाज़ा अमरीका की मिसाल से लगाया जा सकता है। नवीनतम घटना को ही लें। फिलाडेल्फिया के फेयरमाउंट पार्क में 27 मई, 2025 को मेमोरियल डे मनाया जा रहा था कि तीन बन्दूकधारियों ने पूर्णत: ऑटोमेटिक बंदूकों से गोलियां चलानी शुरू कर दीं, जिससे दो व्यक्तियों की मौके पर ही मौत हो गई और 9 अन्य गंभीर रूप से घायल हो गये। इस साल अमरीका में गोलीबारी की यह दसवीं बड़ी घटना है। अमरीका एकमात्र रईस पश्चिमी देश है जहां बाल व किशोर मौतों का प्रमुख कारण बंदूक की गोली है। इसके बावजूद गन अमरीकी ‘मूल्यों’ का औज़ार, खिलौना व प्रतीक है।
अमरीका में व्यापक गोलीबारी का दोष अक्सर उसकी बंदूक संस्कृति और कमज़ोर बंदूक कानूनों को दिया जाता है, जिन्हें मजबूत गन निर्माण लॉबी बदलने नहीं देती। यह बात काफी हद तक सही है, लेकिन तस्वीर के दूसरे कड़वे रुख को अनदेखा करना बहुत बड़ी भूल होगी और वह यह है कि एक समुदाय विशेष को श्रेष्ठ बताते हुए दूसरे समुदाय के विरुद्ध भ्रामक प्रोपेगंडा व नफरत फैलायी जाती है, जो अक्सर हिंसा व मासूमों की हत्या के तौर पर सामने आती है, जैसा कि 14 मई, 2022 को बफैलो की टॉप्स सुपरमार्केट में हुआ। एक 18 वर्षीय श्वेत पेटन एस. गेनड्रोन ने असाल्ट-स्टाइल हथियार के साथ सुपरमार्केट में प्रवेश किया और 10 अश्वेत व्यक्तियों की हत्या कर दी।
मुख्यमंत्री सरमा की इस नई नीति से न सिर्फ उल्फा जैसे आतंक के लौटने की आशंका है, बल्कि डर यह भी है कि कहीं असम में भी अमरीका की तरह व्यापक स्तर पर गोलीबारी न होने लगे। सरमा की यह बात भी बेतुकी प्रतीत होती है कि देशज समुदायों को सीमा पार से हमले का खतरा है। सीमा की सुरक्षा के लिए बीएसएफ व सेना मौजूद है, उसके लिए नागरिकों के हाथ में बंदूकें देने की क्या तुक है? सरमा के आलोचकों का कहना है कि अगले वर्ष के विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र वह सियासी खेल, खेल रहे हैं। कारण जो भी हों, उन्हें आग से नहीं खेलना चाहिए और बंदूक नीति को वापिस ले लेना चाहिए। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर