जी-7 सम्मेलन : भारत को न बुलाए जाने की क्या है वजह ?
आगामी जी-7 सम्मेलन में भारत को आमंत्रित न किया जाना, क्या हमारी हाल की कूटनीतिक सक्रियता की एक बड़ी चूक है या फिर जब पूरी दुनिया मंदी के अदृश्य घेरे में घिरती जा रही है, उस समय भारत की विकास दर का 6.5 प्रतिशत होना, जो चीन से भी ज्यादा है और इसी दौरान दुनिया की 5वीं अर्थव्यवस्था से एक पायदान ऊपर चढ़ कर चौथे पायदान पर पहुंचना, हमारी इस सफलता से विकसित देशों की जलन है, जिस कारण हमें जी-7 शिखर सम्मलेन से दूर रखा गया है? निश्चित रूप से भारत को कनाडा में होने वाले आगामी जी-7 शिखर सम्मेलन में न बुलाया जाना, गहराई से विश्लेषण की मांग करता है। क्योंकि इसमें सिर्फ तात्कालिक नफे, नुकसान नहीं छिपे बल्कि इसमें कूटनीतिक, वैश्विक हैसियत, भू-राजनीति और रणनीतिक प्राथमिकताएं सवालों के घेरे में हैं। जी-7 देशों का समूह आर्थिक रूप से सम्पन्न शक्तिशाली और लोकतांत्रिक देशों का समूह है।
अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और कनाडा इसके सदस्य हैं। पहले रूस भी हुआ करता था और जी-7, जी-8 बन चुका था। लेकिन इन देशों ने रूस को निकाल दिया और पिछले लगभग एक दशक से हर सम्मेलन में भारत को बतौर विशिष्ट अतिथि बुलाया जाता था, क्योंकि भारत भले अभी विकसित देश न हो, लेकिन हमारी अर्थव्यवस्था न केवल कई विकसित देशों से बड़ी है बल्कि उनकी विकास रफ्तार से भी बहुत तेज़ है।
सवाल है ऐसे में भारत को आगामी सम्मेलन में न बुलाये जाने की वजह क्या हो सकती है? जाहिर है ये बड़ा निर्णय किसी तात्कालिक बात को लेकर तो नहीं लिया गया। भारत पिछली बार यानी 2023 में इस सम्मेलन में आमंत्रित था और अगर इस बार भारत को नहीं बुलाया गया तो इसके कई दूरगामी और वैश्विक कारण हो सकते हैं। दरअसल भारत की वैश्विक प्राथमिकताएं जी-7 देशों के साथ मेल नहीं खा रहीं। भारत लगातार पश्चिमी देशों के विरोध के बावजूद रूस के साथ अच्छे रिश्ते बनाये हुए है, इससे जी-7 के विकसित देश लगातार असहज हो रहे हैं, लेकिन उन्हें भारत का चमकता हुआ मध्यवर्गीय उपभोक्ता बाजार भी चाहिए, इसलिए वे अपने-अपने स्तर पर इसकी अनदेखी भी करते, लेकिन शायद पश्चिमी देशों को अब यह लग रहा है कि भारत न केवल उनके काबू में नहीं हैं, बल्कि ग्लोबल साउथ का नेता बन कर उभर रहा है, जो कि पश्चिमी विकसित देशों के हित में तो कतई नहीं है। इस दृष्टिकोण से यह कूटनीतिक संकेत हो सकता है कि पश्चिमी देश भारत के साथ अपने रिश्तों पर पुनर्विचार करना चाहते हैं या कम से कम वे हमें अपना स्वाभाविक सहयोगी तो नहीं ही मान रहे, जिसकी पिछले एक दशक से बार-बार ये घोषण कर रहे थे।
लेकिन इसको इस नज़र से नहीं देखना चाहिए कि भारत को जी-7 के सम्मेलन में न बुलाया जाना हमारी हैसियत की हार है। भारत दुनिया की चौथी अर्थव्यवस्था बन चुका है। वह जी-20 का सबसे चमकदार और अर्थव्यवस्था के पक्ष से सक्रिय सदस्य है। ब्रिक्स में उसका मजबूत आधार है और वैश्विक मंचों पर अब भारत की बात ध्यान से सुनी और स्वीकार की जाती है। ऐसे में जी-7 जैसे मंच पर न बुलाये जाने से भारत की हैसियत कतई कम नहीं होती, क्योंकि अब भारत केवल पश्चिम-निर्भर कूटनीति पर टिका हुए देश नहीं है, बल्कि भारत एक ऐसे देश के रूप में उभरा है, जो बहुध्रुवीय विश्व की वकालत करता है। हमारी इस वकालत को दुनिया के ज्यादातर देशों द्वारा ध्यान से सुना और सही माना जा रहा है। ऐसे में यह पश्चिमी देशों द्वारा भारत को मिली चेतावनी तो हो सकती है, हमारी अनदेखी नहीं। पश्चिम के देश जानते हैं कि भारत प्रतिव्यक्ति आय के हिसाब से भले पश्चिमी देशों के मुकाबले अभी बहुत पीछे हो, लेकिन संसाधनों, बाज़ार, निरन्तर प्रगति और विशाल मानव संसाधन के मामले में भारत दुनिया का सबसे विश्वसनीय देश है।
पूरी दुनिया जानती है कि अगले दो दशकों में दुनिया का 40 फीसदी से ज्यादा मैन पावर भारत से आयेगा। डिजिटल क्रांति की सबसे ज्यादा विश्व में संभावनाएं अगर किसी देश में हैं तो वह भारत है। इसलिए हमें यह मानकर चलना चाहिए कि पश्चिमी देश हमारी लगातार बेहतर होती हैसियत और हममें निर्णय लेने की विकसित होती अपनी रीढ़ के कारण हमसे जले-भुने बैठे हैं और इस तरह हमें जी-7 के एक औपाचारिक सम्मेलन में निमंत्रण न देकर हमारी अनदेखी करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इससे भारत का नुकसान कुछ नहीं होने वाला, बल्कि हम कहीं और अधिक आत्मनिर्भर और ग्लोबल साउथ के प्रति जवाबदेह हो जाएंगे। वैसे भी इस बार का यह सम्मेलन कनाडा में होने जा रहा है और हम सब जानते हैं कि कनाडा के साथ भारत की पिछले कई सालों से कूटनीतिक तनातनी बनी हुई है। ऐसे में मौका पाकर कनाडा अपने-आपको और अपने लोगों को यह संतोष देना चाहता है कि उसने भारत को इस मंच में न बुलाकर बड़ा बदला लिया है।
लेकिन इसमें न बुलाये जाने से हम पर वह नैतिक दबाव नहीं बनेगा, जो हाल में यूरोप से लेकर अमरीका तक के कई नेता दोहरा चुके हैं कि अगर यूक्रेन के साथ रूस का युद्ध विराम नहीं होता, तो रूस पर तो कड़े प्रतिबंध लगाए ही जाएंगे, रूस के सहयोगी देशों पर भी इसका असर होगा। हालांकि पश्चिमी देशों ने अभी तक खुल कर यह नहीं कहा कि अगर रूस और यूक्रेन के बीच शांति समझौता नहीं हो पाता, तो रूस के साथ ही भारत पर भी आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाएंगे, लेकिन हम सब जानते हैं कि कूटनीति के इशारों में सब कुछ साफ साफ नहीं कहा जाता। यह तय है कि जब से रुस और यूक्रेन के बीच जंग छिड़ी है, रूस का सबसे ज्यादा तेल भारत और चीन ने ही खरीदा है और हमारे और चीन की इसी तेल खरीदी की वजह से रूस के राष्ट्रपति पुतिन लगातार पश्चिमी देशों के सामने अपनी अकड़ बनाये हुए हैं। ऐसे में यह किसी को अलग से समझाने की बात नहीं है कि रूस के दो सबसे बड़े सहयोगी देश भारत और चीन हैं क्योंकि साल 2000 से ही भारत को लगातार जी-7 के सम्मेलनों में विशिष्ट अतिथि देश के रूप में आमंत्रित किया जाता था और अब नहीं किया गया, तो इसके लिए साफ इशारा यही है कि पश्चिमी देश नहीं चाहते कि भारत चीन की तरह रूस के अभिन्न दोस्त वाली कैटेगिरी में बना रहे और इसी बात से चिढ़कर भारत को जान बूझकर एक रणनीति के तहत आगामी जी-7 सम्मेलन से दूर रखा गया है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर