सिख नेतृत्व अपने भीतर भी दृष्टिपात करे

पहले आ़गाज़ था अंजाम से ़खाइफ लेकिन
आज अंजाम को आ़गाज़ से डर लगता है।
(मुहम्मद रफी)
अर्थात पहले शुरुआत के समय ही परिणाम का डर होता था, परन्तु अब तो परिणाम (अंजाम) ही शुरुआत से डरता है, क्योंकि अब लोग कुछ भी करते समय परिणाम का परवाह नहीं करते। इन हालात में जो कुछ श्री अकाल त़ख्त साहिब पर जून 1984 के श्री दरबार साहिब पर हुए घल्लूघारे में शहीद हुए कौमी शहीदों की याद में होने वाले समारोह संबंधी सुनाई दे रहा है वह वास्तव में भयभीत करने वाला है। क्या हम भाई-भाई के बीच जंग की शुरूआत तो नहीं कर रहे? जब तक यह कालम पाठकों के हाथों में पहुंचेगा, तब तक 6 जून की सुबह हो चुकी होगी। इसलिए यहां इस टकराव को टालने के लिए क्या किया जाए, इस संबंध में कुछ भी लिखना सार्थक नहीं है। 
परन्तु हमारे पास छन-छन कर पहुंची जानकारियों के अनुसार यह लेख लिखते समय तक दोनों पक्ष अपनी-अपनी ज़िद पर अडिग हैं, टकराव शीर्ष पर है। हालांकि दमदमी टकसाल के समर्थकों को अपनी जीत का पूरा भरोसा है। उनका विचार है कि शिरोमणि कमेटी के प्रधान एडवोकेट हरजिन्दर सिंह धामी जत्थेदार ज्ञानी कुलदीप सिंह गड़गज्ज को वहां न आने के लिए मना लेंगे। उल्लेखनीय है कि स. धामी तथा दमदमी टकसाल प्रमुख हरनाम सिंह खालसा की निकटता किसी से छिपी हुई नहीं। हमारी जानकारी के अनुसार अकाली दल बादल द्वारा तजिन्दर सिंह मिडूखेड़ा तथा अकाली दल के पूर्व कार्यकारी प्रधान बलविन्दर सिंह भूंदड़ की टीम समझैता करवाने का यत्न तो कर रही है, परन्तु यह कालम लिखते समय तक बात किसी निर्णायक चरण पर नहीं पहुंची थी। हवा में ये ‘सरगोशियां’ भी हैं कि यदि अकाल तख्त साहिब के कार्यकारी जत्थेदार को शिरोमणि कमेटी द्वारा संदेश पढ़ने से या इस समारोह में शामिल होने से रोका गया तो वह जत्थेदार के पद से इस्तीफा भी दे सकते हैं, जो अकाली दल बादल के लिए एक और बड़ी राजनीतिक चोट हो सकती है। ़खैर, यह बात स्पष्ट है कि यदि 6 जून, 2025 को अकाल तख्त साहिब पर कोई विवाद हुआ तो इसमें कोई भी पक्ष बरी-उल-ज़िम्मा करार नहीं दिया जा सकेगा। वैसे अच्छा हो कि इस समय दोनों पक्ष कोई भी बयानबाज़ी करने की बजाय समारोह को नाम सिमरण तथा गुरबाणी पाठ करके ही मना लें।
बाद में इस घल्लूघारे के संबंध में अपने भीतर दृष्टिपात करने के लिए तथा अपनी गलतियों एवं त्रुटियों को समझने के लिए कोई सैमीनार भी अवश्य करें। 
क्या यह पीड़ा कभी खत्म नहीं होगी?
बे-नाम सा यह दर्द ठहर क्यूं नहीं जीता,
जो बीत गया है, वो गुज़र क्यूं नहीं जाता।
(निदा फाज़ली)
सिख कौम ने 1984 के घल्लूघारे से भी बड़े-बड़े ज़ुल्म सहन किए हैं। गुरु साहिबान के समय भी शहीदियों की इंतिहा हुई, युद्ध भी हुए, सिखों का अस्तित्व मिटाने के अभियान भी तत्कालीन शासकों ने चलाए। इस हेतु सिखों के सिर की कीमत भी जंगली जानवरों के शिकार की कीमतों की भांति रखे गये थे। सिखों ने इस पीड़ा को स्वयं पर हावी नहीं होने दिया था, परन्तु अब तो हम 1947 के बाद लगातार स्वयं को एक विकटिम (पीड़ित) के रूप में ही पेश करते आ रहे हैं। हम प्रसिद्ध विद्वान तथा समाज शास्त्री डा. हरविन्दर सिंह भट्टी के इस नतीजे से पूरी तरह सहमत हैं कि बेशक आज़ादी के बाद सिखों के साथ किए गए वादे पूरे नहीं हुए, बेशक पंजाब के साथ अन्याय हुआ है और हो भी रहा है, परन्तु जिस प्रकार का व्यवहार हम कर रहे हैं, वह सिखी सोच तथा गुरु साहिबान की इच्छा के अनुसार बिल्कुल सही नहीं है क्योंकि सिख फलसफा अपनी पीड़ा का शोर मचा कर हमदर्दी लेने का फलसफा नहीं है, अपितु सिखी का फलसफा तो चढ़दी कला तथा सरबत दा भला वाला फलसफा है। सिखी सिमरन तथा दया की प्रतीक भी है। यह ठीक है कि सिख फलसफा ज़ुल्म सहन करने का नहीं, परन्तु यह ज़ुल्म करने का फलसफा भी नहीं है। लम्बी अवधि से हम तस्वीर का सिर्फ एक पहलू ही देखते आ रहे हैं। बेशक कोई कुछ कहे, परन्तु यह भी सत्य है कि सिर्फ दो प्रतिशत के अल्पसंख्यक होने के बावजूद आज़ादी के बाद भी सिखों तथा पंजाबियों ने अपनी शान बनाई है। वे दो बार भारत के प्रधानमंत्री बने, राष्ट्रपति के पद पर बैठे, कई बार देश के रक्षा मंत्री, विदेश मंत्री तथा गृह मंत्री भी बने, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा सेना प्रमुख भी बने, अन्य कई पदों पर भी सिख शान से पहुंचे। नि:संदेह यह भी ठीक है कि 1984 का साका श्री दरबार साहिब भी एक सिख के राष्ट्रपति होते समय ही घटित हुआ था। बेशक भारत की कई सरकारें चाहे वे कांग्रेसी थीं या वर्तमान भाजपा सरकार, उन्होंने सिखों तथा पंजाबियों को कभी भी पूरा न्याय नहीं दिया, परन्तु यह कहना सही नहीं कि सिख भारत में दूसरे दर्जे के शहरी हैं।
वैसे उल्लेखनीय है कि कोई भी कौम आगे नहीं बढ़ सकती यदि वह अपने इतिहास तथा अपनी गलतियों से सबक नहीं लेती। इतिहास याद रखना तथा अपने पूर्वजों का सम्मान करना बहुत ज़रूरी है, परन्तु यही अवसर अपने भीतर दृष्टिपात करने का भी तो होता है कि हम क्यों किसी मंज़िल तक नहीं पहुंचे। सच तो यह है कि हम ‘पंजाबी सूबे’ की लड़ाई के बिना किसी भी लड़ाई के उद्देश्य के लिए स्पष्ट नहीं रहे। हम अपने उद्देश्यों से भटकते रहे हैं। हमने कभी नहीं विचार किया कि हम कहां, क्या गलती की है। सिर्फ शहीदी पा लेना उपलब्धि नहीं होती। शहीदी तो किसी उद्देश्य की उपलब्धि का मार्ग होती है। हमने कभी नहीं सोचा कि हमने जो गलतियां कीं, उनका परिणाम क्या निकला। वे गलतियां कैसे सुधारी जाएं और पुन: दोहराई न जाएं। हमारा नेतृत्व हमें संगत नहीं अपितु भीड़ बना देता है। कभी भी कोई भीड़ कुछ अधिक नहीं सोचती। कई बार तो ऐसे प्रतीत होता है कि कहीं हम एजेंसियों के ट्रैप में तो नहीं फंस रहे। यह सच है कि वर्तमान आधुनिक युग में शासकों को यह सही प्रतीत होता है कि वे जिस कौम, क्षेत्र या राज्य को तबाह करना या उसके विकास को पीछे धकेलना चाहते हों, उस पर ज़ुल्म करते हैं और फिर उनमें से आतंकवादी पैदा करते हैं। फिर आतंकवाद खत्त करने के नाम पर, देश-भक्ति तथा राष्ट्रवाद के नाम पर पूरे क्षेत्र, पूरी कौम या कई बार पूरे राष्ट्र को भी सज़ा देते हैं। हमारे सामने है कि इराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के पास जिस प्रकार के घातक होने तथा मानवता का अपराधी होने के आरोप लगाए गए थे, परन्तु जब उसे मारा गया तो इराक के पास प्रचारित किए गए मानवता विरोधी हथियारों में शायद ही कोई मिला हो। 
अब हमास का इज़रायल पर हमला, आम फिलिस्तीनियों पर इज़रायल की कार्रवाई का अवसर बना। फिलिस्तीन तो दूर की बात, पूरे गाज़ा के खात्मे का खतरा बन गया है। अत: सिख कौम के वर्तमान कथित रहबरों को मिन्नत है कि निजी अहंकार, ज़िद छोड़ कर अपनी राजनीतिक इच्छाओं के दृष्टिगत पूरी कौम को भाई विरोधी जंग की ओर न धकेलें और ईमानदारी से इकट्ठे बैठ कर अपने भीतर दृष्टिपात करें। शुरुआत आपसी लड़ाई से नहीं अपितु अपनी गलतियों की पहचान तथा उनके लिए संगत से माफी मांग कर करें।
कभी जो झांको अपने दिल की बस्ती में तो देखोगे,
़खतायें ़खुद की क्या क्या हैं, सभी कुछ जान जाओगे।
-लाल फिरोज़पुरी
सरकार से क्या मांगें?
पहली बात तो यह है कि चाहे 1984 का श्री दरबार साहिब का साका तथा उसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या तथा फिर हज़ारों निर्दोष सिखों का नरसंहार एक क्रम का हिस्सा था, परन्तु आज बात सिर्फ श्री दरबार साहिब तथा अन्य गुरुद्वारों में घटित हुए घल्लूघरे की करते हुए हम केन्द्र सरकार से कुछ मांगें करते हैं। इनके बारे में एक बार पूर्व राज्यसभा सदस्य स. तरलोचन सिंह ने राज्यसभा में सवाल भी उठाए थे। पहली बात तो यह कि श्री दरबार साहिब सहित अन्य गुरुद्वारों पर किए गये सैन्य ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ की वह अधिकारिक रिपोर्ट रिलीज़ की जाए, जो सेना के आधिकारियों ने सरकार को बना कर दी थी। दूसरा, केन्द्र सरकार के इस ऑपरेशन को हरी झंडी देने से पहले भी जो पत्र-व्यवहार किया गया, चाहे वह पंजाब के राज्यपाल से हुआ, चाहे पंजाब के अकाली या अन्य नेताओं से तथा चाहे वह जैसे दोष लगते हैं, रूस तथा ब्रिटेन से हुआ हो, सारा ही जारी किया जाए ताकि सारा सच सामने आ सके। इसके अलावा इस हमले के लिए सैनिकों को दिए गए अवार्ड वापिस लिए जाएं। यह कोई किसी दूसरे देश पर हमला नहीं था। चौथी बात यह कि इस हमले के दौरान बैरकें छोड़ने वाले सिख सैनिकों को आम माफी के साथ-साथ उनका सम्मान बहाल किया जाए और पैंशनें जारी की जाएं। वे देश-विरोधी नहीं थे। उनके लिए अपने बड़े धार्मिक स्थान की बर्बादी की खबर असहनीय थी, और सबसे ज़रूरी बात यह कि इस हमले के लिए संसद में बाकायदा प्रस्ताव लाकर माफी मांगी जाए। बेशक अपने तौर पर प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह संसद में माफी मांग चुके हैं।

-मो. 92168-60000
    

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