गायक बनने आये थे, निर्देशक बन गये राज खोसला

राज खोसला और देवानंद के परिवारों का संबंध ब्रिटिशकाल के अविभाजित पंजाब से था। दोनों परिवारों के बीच दोस्ती कई पीढ़ियों से थी। राज खोसला व देवानंद के पिता न सिर्फ कॉलेज में साथ पढ़ते थे बल्कि आपस में दोस्त भी थे। राज खोसला की भी दोस्ती देवानंद व उनके भाइयों से थी। राज खोसला 1940 के दशक के आखिर में व 1950 के दशक के शुरू में बॉम्बे (अब मुंबई) में काम की तलाश कर रहे थे। वह गायक बनना चाहते थे। चेतन आनंद ने उनसे नवकेतन में काम करने के लिए कहा, जो उन दिनों फिल्म ‘बाज़ी’ का निर्माण कर रहा था। देवानंद भी उनकी मदद करने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन बात बन नहीं पा रही थी। बहरहाल, एक दिन देवानंद ने उनसे कहा, ‘मेरा एक दोस्त है गुरुदत्त जो मेरी अगली फिल्म का निर्देशन कर रहा है, तुम उसके सहायक क्यों नहीं बन जाते?’ राज खोसला ने जवाब दिया कि वह निर्देशक नहीं गायक बनना चाहते हैं। इस पर देवानंद ने कहा कि पहले फिल्मोद्योग में पैर तो रखो, फिर अपने आप सब चीज़ें ठीक हो जाएंगी।
इस तरह राज खोसला की मुलाकात गुरुदत्त से हुई। उन दिनों राज खोसला सिर्फ उर्दू और थोड़ी से फारसी लिखना पढ़ना जानते थे। गुरुदत्त के कहने पर उन्होंने बहुत जल्द देवनागरी में लिखना सीखा और उनके सहायक निर्देशक बन गये यानी जो व्यक्ति गायक बनना चाहता था, वह निर्देशक बनने की राह पर निकल पड़ा। राज खोसला कॉलेज के दिनों से ही साहिर लुधियानवी के दीवाने थे (बाद में उनके गहरे दोस्त भी बने)। उन्हें साहिर की लगभग सभी नज़्में याद थीं। एक दिन नवकेतन के ऑफिस में बैठे हुए वह गुरुदत्त को साहिर की नज़्म ‘सना-ख्वाने-तकदीस-ए- मशरिक कहां हैं’ सुना रहे थे, जिसकी धुन भी उन्होंने स्वयं तैयार की थी। इसे सुनते ही गुरुदत्त बोले, ‘राज, यही है, यही प्यासा है।’ फलस्वरूप इस नज़्म की पंक्ति को आसान शब्दों में ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं’ किया गया और फिल्म ‘प्यासा’ में इस्तेमाल किया गया। यह गाना खूब चर्चित हुआ, आज भी पसंद किया जाता है, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु को लगा कि यह उन पर व्यंग्य है और वह साहिर व गुरुदत्त से नाराज़ हो गये। 
हालांकि गुरुदत्त राज खोसला को निर्देशक बनाने पर तुले हुए थे, लेकिन राज खोसला गायक बनने के सपने को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। फिल्म ‘जाल’ के गाने ‘सुन जा दिल की दास्तां’ को गुरुदत्त ने राज खोसला की आवाज़ में रिकॉर्ड किया, लेकिन संगीतकार एसडी बर्मन ने उसे यह कहते हुए रद्द कर दिया, ‘राज ठीक ठाक गायक है, लेकिन आवश्यक असर नहीं पैदा कर पा रहा है।’ बाद में यह गाना हेमंत कुमार की आवाज़ में रिकॉर्ड कराया गया, ज़बरदस्त हिट रहा और राज खोसला का गायक बनने का सपना हमेशा के लिए चकनाचूर हो गया। वह निर्देशन पर ध्यान देने लगे। बतौर निर्देशक उनकी पहली फिल्म ‘मिलाप’ थी जो फ्लॉप रही, लेकिन दूसरी फिल्म ‘सीआईडी’ ज़बरदस्त हिट रही और राज खोसला बतौर निर्देशक स्थापित हो गये। ‘सीआईडी’ के बाद अगली फिल्म के लिए गुरुदत्त ने राज खोसला को 1 लाख रूपये ऑफर किया जो 1957 में बहुत बड़ी रकम थी, लेकिन उन्होंने कहा, ‘नहीं। गुरुदत्त, आगे से मैं आपके साथ काम नहीं करूंगा।’ समस्या क्या थी? बड़े पेड़ के साये में छोटा पौधा कभी पनपता नहीं है। राज खोसला अपना रास्ता स्वयं बनाना चाहते थे।
राज खोसला का यह निर्णय सही साबित हुआ। उन्होंने ‘मेरा साया’, ‘वो कौन थी’ से लेकर ‘मेरा गांव मेरा देश’ तक अनेक कालजयी फिल्में दीं, जिन पर केवल उनकी छाप थी और कोई यह नहीं कह सकता था कि यह गुरुदत्त की फिल्म है, जैसा कि ‘सीआईडी’ के बारे में कहा गया। राज खोसला की फिल्मों की खासियत बेहतरीन एक्शन, चुस्त पटकथा और दिल को छूने वाला संगीत थे। उनका जन्म 31 मई 1925 को हुआ था यानी यह उनका जन्मशती वर्ष है। वह 1950 से लेकर 1980 के मध्य तक फिल्मों में सक्रिय रहे। आज की पीढ़ी के लोग भले ही राज खोसला के काम से अधिक वाकिफ न हों, लेकिन ‘लग जा गले’, ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में’, ‘तू जहां जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा’ जैसे कालजयी गीत किसकी जुबान पर नहीं हैं। गाने उनकी फिल्मों की जान हुआ करते थे, जिनके ज़रिये वह कहनी भी सुनाते थे। लेकिन आपको सुनकर आश्चर्य होगा कि लता मंगेशकर के संभवत: सबसे सर्वश्रेष्ठ गीत ‘लग जा गले’ को राज खोसला ने रिजेक्ट कर दिया था। मनोज कुमार ने एक इंटरव्यू में बताया, ‘मुझे एक दिन मदन मोहन का कॉल आया कि राज खोसला का दिमाग खराब हो गया है। एक गाना (लग जा गले) सुनाया, उसको पसंद नहीं आया, तुम आओ और संभालो।’ मनोज कुमार के बार-बार आग्रह करने पर राज खोसला ने यह गीत दोबारा सुना और फिर अपना जूता उतारकर अपने सिर पर मारने लगे कि ऐसा गाना वह कैसे छोड़ने वाले थे। 
हालांकि राज खोसला के कलाकारों के साथ मतभेद भी रहे, लेकिन फिल्म पर उन्होंने उसका असर कभी नहीं पड़ने दिया। निजी ज़िंदगी में राज खोसला के अपने तयशुदा मूल्य थे। उनकी बेटी अनीता खोसला ने एक इंटरव्यू में बताया था, ‘पिताजी के मुताबिक लड़कियों को शादी करके घर बसाना चाहिए। हम बहनें पतलून नहीं पहन सकती थीं और बिना दुपट्टे के घर से नहीं निकल सकती थीं। हमें थिएटर जाने की भी अनुमति नहीं थी। हालांकि बहुत मामलों में वो हम बहनों को बहुत प्यार भी करते थे, लेकिन वो मूडी थे, टेम्परामेंटल थे और बहुत अधिक जज़्बाती थे।’  
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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