अस्वीकार्य है सुरक्षा नियमों की अनदेखी
आज घर से जब एक सदस्य किसी कार्यवश निकलता है तो मां-बहन-बेटी को उसके सुरक्षित लौट आने के लिए भगवान से प्रार्थना करनी होती है। असुरक्षा के कारण इतने हमले होने लगे हैं कि बच कर निकलने के उपाय व्यर्थ चले जाते हैं। दरअसल हमारे आस-पास का जीवन इतना असुरक्षित और संकटमय हो गया है कि बाहर निकलना ही जोखिम भरा हो गया है। हवाई जहाज़ ने स़फर करते समय समय बचाने की सुविधा दी लेकिन आज हवाई यात्रा से भी डर लगने लगा है। तीर्थ यात्रा के समय हैलीकाप्टर की सुविधा थी परन्तु डर इतना है कि कहीं वह आखिरी तीर्थ यात्रा न हो। सड़क यात्रा में बेशुमार दुर्घटनाएं हो रही हैं। रेल यात्रा कितनी देर से पहुंचाएगी, इसका कोई ठिकाना नहीं। सुरक्षा की गारंटी वहां भी नहीं। घर में बिजली के उपकरण शॉक दे सकते हैं। गलियों में कुत्ते काट रहे हैं। जो खानपान है उसमें शुद्धता की गारंटी नहीं। पानी, हवा कुछ भी शुद्ध नहीं। सभी जगह जैसे अलिखित चेतावनी हो कि बच कर कहां जाओगे। हमने बार-बार सुना है कि जीवन चलने का नाम, जीवन है तो गतिशीलता भी बनी रहेगी। इसके बिना गुजारा कहां। मृत्यु के भय से जीवन गति रुक नहीं जाती। मृत्यु का चलन भी अलग है। परन्तु इस तरह की अनिश्चितता? अगर किसी की पहली हवाई यात्रा मृत्यु और जीवन के बीच इस संकटमयी ढंग से लैंड करे, तो उस यात्री और उसके घर के लोगों की क्या हालत होगी? और वह जो सड़क मार्ग से पुल पार कर रहे हैं, पुल की असुरक्षा की ज़िम्मेदारी कौन लोगा? अगर किसी न किसी तरह गर्मी से बचने के लिए एयरकंडीशनर का इंतजाम कर लिया है तो एयर कंडीशनर ही फट जाए तो क्या कम्पनी उस नुक्सान की ज़िम्मेदारी लेगी? बड़ा सवाल यह है कि क्या एयरक्रैश, सड़क दुर्घटना, किसी पुल का गिरना, यह सब नार्मल मान लिया जाये? क्या मानवीय सुरक्षा एक चिंतनीय पहलू नहीं रहा? क्या हमारी नैतिक आस्था पूरी तरह डगमगा चुकी है? जीवन चलने का नाम है तो इस सब की हमें आदत पड़ जानी चाहिए? मौत का इस तरह धमाके के साथ दाखिल होना वाजिब है क्या?
सुरक्षा मानकों से कभी भी किसी भी तरह का समझौता नहीं हो सकता, न होना चाहिए। यदि सुधार की थोड़ी भी गुंजाइश है तो उस पर पहलकदमी से अमल होना चाहिए क्योंकि मामला मासूम यात्रियों के भोले विश्वास का है जो जान हथेली पर रख कर घर से निकलते हैं। प्रचलित ढीले-ढाले टैक्सचर में सुधार की बातें विनाश के बाद ही क्यों चलती है? क्या यह हमारा पहला और उच्चतम सावधानी बरतने वाला, प्राथमिक कदम नहीं होना चाहिए? सुरक्षा संस्कृति का पाठ किसी भी कम्पनी का पहला, हर पल अच्छे से पालन करने वाला सूत्र वाक्य होना चाहिए। अगर हम युगों की भाषा को समझें तो तकनीकी युग पहला युग होगा, संगठनात्मक उपाय दूसरा युग होगा, यदि दूसरा युग सफलता की ओर उन्मुख नहीं है तो पहला युग केवल कोरा इतिहास युग बन कर रह जाएगा। तकनीकी ज्ञान, किताबी ज्ञान सभी कुछ धराधराया रह जाएगा अगर व्यवहारिक ज्ञान शून्य रह जाएगा।
इस दुर्घटना को मुश्किल से साल भी नहीं गुजरा होगा कि दिल्ली की बारिश में कितने छात्रों को लाइब्रेरी के बेसमैंट में जलसमाधि लेनी पड़ी, कितने ही अस्पतालों के ए.सी. फट गए, कितने पुल ढह गए, या फिर रेल दुर्घटनाएं हुईं। ऐसी स्थितियों में व्यक्ति के मन पर असुरक्षा के कितने पहरे अंकित हो जाएंगे? सुरक्षा को जब तक सामाजिक व्यवहार में नहीं बदल देते, मनुष्य की सांस-सांस पर पहरा बना रहेगा। असुरक्षा का बोझ बना रहेगा। हमारा ध्यान जितना देश की सीमा की सुरक्षा पर केन्द्रित है, उतना ही ध्यान हवाई उड़ान, रेल यात्रा, सड़क, पुल पर होना चाहिए। सुरक्षा नियमों के लिए अनदेखी देश-द्रोह जैसी होनी चाहिए।