देश में कुपोषण का मुद्दा भी संसद में उठाया जाए

पेरिस जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर करते समय 17 सतत विकास लक्ष्यों को भी अंगीकृत किया गया था। इसका उद्देश्य था 2030 तक पृथ्वी और इसमें रहने वाले लोगों की शांति और समृद्धि। इन्हीं में से एक लक्ष्य है सतत विकास लक्ष्य-2। यह लक्ष्य 2030 तक भुखमरी और कुपोषण को समाप्त करना है। अब इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सिर्फ 5 वर्ष का समय ही शेष बचा है। भारत इस लक्ष्य से कितना दूर है और इसे लेकर कितना गंभीर है, इस पर गम्भीरता से विचार करना ज़रूरी है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन द्वारा ‘विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति’ रिपोर्ट जारी की गई है। 24 जुलाई, 2024 को सामने आई इस रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में इस समय लगभग 19.5 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं। यह संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है।
कृषि संगठन यानी एफएओ के अनुसार जब व्यक्ति अपने दैनिक आहार से उतनी ऊर्जा प्राप्त नहीं कर पाता जिससे वह एक सामान्य व सक्रिय जीवन जीने में सक्षम हो सके तो यह अवस्था कुपोषण कहलाती है। ‘विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति’ यानी एसओएफआई की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग आधे से अधिक भारतीय (55.6 प्रतिशत) आज भी ‘स्वस्थ आहार’ का खर्च उठाने में सक्षम नहीं है जबकि वैश्विक स्तर पर यह प्रतिशत 35.4 फीसदी है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत में लगभग 80 करोड़ लोग ऐसे हैं जो स्वस्थ आहार का खर्च नहीं उठा सकते।
एक तरफ भारत को 5 ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था बनने के साथ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाने का दावा किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ भारत भूखे लोगों, कुपोषित बच्चों और एनीमिया से पीड़ित महिलाओं की संख्या बढ़ रही है। हाल में ही संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफ एओ) और यूनिसेफ  सहित चार अन्य संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों द्वारा जारी इस साल की ‘विश्व में खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति’ (एसओएफ टी) रिपोर्ट में यह बात सामने आई है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 19.5 करोड़ कुपोषित लोग हैं, जो दुनिया के किसी भी देश में सबसे ज्यादा है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 55.6 प्रतिशत भारतीय यानी कि 79 करोड़ लोग अभी भी पौष्टिक आहार का खर्च उठाने में असमर्थ हैं। यह अनुपात दक्षिण एशिया में सबसे ज्यादा और चैकाने वाला है जो भारत के लिए एक चेतवानी है। देश में 5 साल से कम उम्र के ऐसे बच्चों की संख्या में चिंताजनक वृद्धि हुई है, जिनका वजन उनकी लम्बाई की तुलना में कम है। गौरतलब है कि भारत में इस समय पांच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर प्रति 1,000 बच्चों पर 37 है, जिसमें 69 फीसदी मौतें कुपोषण के कारण होती हैं। देश में 6 से 23 महीने की उम्र के केवल 42 फीसदी बच्चों को ही पर्याप्त अंतराल पर ज़रूरी भोजन मिल पाता है। देश में करीब 21 फीसदी बच्चे अपनी उम्र और लंबाई के हिसाब से कम वजन के हैं। भूख और कुपोषण का एक सामाजिक पहलू भी है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़ों के अनुसार आदिवासियों और दलितों में कुपोषण की दर भारत में सबसे अधिक है। 5 वर्ष से कम आयु वर्ग के 44 प्रतिशत आदिवासी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। भारत में कुपोषण पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट को चेतवानी के रूप में देखा जाना चाहिए। देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई भी कुपोषण की चपेट में है। दस्तावेज़ों से पता चला है कि मुम्बई में कुपोषण के मामले सबसे अधिक है। 
केंद्र सरकार और ाज्य सरकारों को इस समस्या पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। देश पिछले कई वर्षों से बाल कुपोषण की गंभीर समस्या का सामना कर रहा है। देश के सर्वपक्षीय विकास के लिए बच्चों और युवाओं की स्वस्थ होना ज़रूरी है। इसके लिए उन्हें पौष्टिक भोजन उपलब्ध करवाने की ज़रूरत है। 21 जुलाई से संसद का मॉनसून सत्र शुरू हो चुका है। विपक्ष द्वारा अनेक मुद्दों को उठाया गया, परन्तु उनमें बच्चों को पर्याप्त भोजन न मिलने का मुद्दा नहीं है। दरअसल राजनीतिक घटनाओं को दिए जाने वाले महत्व को अब रोक कर बच्चों के पोषण पर गंभीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है। देश की भावी पीढ़ी यदि कम उम्र में ही कुपोषित होगी तो देश का भविष्य कैसा होगा? सभी के लिए अब इस पर मंथन करना बहुत ज़रूरी है। 
 

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