सूखे से लड़ने वाला किसानों का दोस्त खेजड़ी का पेड़
जेठ के महीने में जब राजस्थान में दूर-दूर तक कहीं कोई हरी वनस्पति नहीं दिखती, उस समय भी खेजड़ी का पेड़ हरा भरा रहता है। अंग्रेजी में इसे प्रोसोपिस सिनेरिया के नाम से जाना जाता है। यह रेगिस्तानी इलाकों में भेड़ों, बकरियों, ऊंटों आदि के चारे के काम आता है। साथ ही खेजड़ी के पेड़ में लगने वाली फलियां जिन्हें सेंगरी कहते हैं, मारवाड़ इलाके में लोग इसकी सब्जी भी बड़े चाव खाते हैं। खेजड़ी का पेड़ किसानों का दोस्त पेड़ है, जिससे उन्हें जलाऊ लकड़ी, जानवरों के लिए चारा और मोटे तने से इमारती लकड़ी हासिल होती है। इसके अलावा खेजड़ी के पेड़ जमीन के पोषक तत्वों को भी बनाये रखने में मददगार होते हैं, जिससे इन पेड़ों के इर्दगिर्द की जमीन में अच्छी उपज होती है। जहां तक इसके फलों की बात है तो एक जमाने तक तो ये जानवरों को खिलाने या मौसम में लोगों द्वारा सब्जी बनाने के काम में ही आते थे, मगर हाल के सालों में इसके तरह तरह के औषधीय उपयोग शुरु होने के बाद इन सेंगरी या सांगरी फलियों को किसान बड़े आराम से 300 रुपये प्रतिकिलो में बेंच देते हैं।
खेजड़ी के पेड़ को अलग-अलग जगहों में अलग-अलग नाम से जाना जाता है। कहीं इस पेड़ को छोंकरा, कहीं पर रियां, पंजाब में जंड, गुजरात में सुमरी या शमी, सिंध में कांडी और तमिल में वण्णि कहते हैं। भारत के अलावा खेजड़ी या प्रोसोपिस सिनेरिया का यह पेड़ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान और अरब देशों में पाया जाता है। खेजड़ी के पेड़ की वो विशेषताएं, जिनकी वजह से यह किसानों का दोस्त पेड़ होता है, वो विशेषताएं इस प्रकार है-
* खेजड़ी का पेड़ सूखे में भी जिंदा रहता है, इसलिए यह मई, जून के महीने में जब हरा चारा खत्म हो जाता है, तब इसकी पत्तियां और डालियां जानवरों के लिए काम आती हैं।
* खेजड़ी के पेड़ की लकड़ी बहुत मजबूत होती है, इसलिए यह कई तरह के घरेलू काम में इस्तेमाल होती है। जब पहले कच्चे घर बनते थे तो खेजड़ी के पेड़ की शहतीर या धन्नी से घरों की छते पाटी जाती थीं।
* खेजड़ी के पेड़ में सांगरी या सेंगरी फल लगते हैं, जो छोटे-छोटे बीजों की फलियां होती हैं और लोग हरी और ताजी सेंगरी की फलियों की सब्जियां बनाते हैं, जबकि दूध देने वाली बकरियों और ऊंटनियों को इसे खिलाने से उसमें दूध बढ़ जाता है।
* खेजड़ी के पेड़ की जड़ से पहले जब खेती हल बेल से होती थी तो उसके लिए हल बनाये जाते थे।
* आमतौर पर किसी पेड़ के नीचे फसल नहीं होती, लेकिन खेजड़ी का पेड़ ऐसा है, जिसके नीचे चना, सरसो, मूली, कई तरह के तिलहन, अरहर, जौ और खरीफ की फसल के ज्वार व बाजरा जैसे अनाज का खूब उत्पादन होता है बल्कि खेत के दूसरे हिस्सों के मुकाबले जिधर खेजड़ी का पेड़ खड़ा होता है, वहां पैदावार ज्यादा होती है।
* जब चिलचिलाती गर्मी में ज्यादातर वनस्पतियां सूख जाती हैं, तब खेजड़ी के पेड़ के नीचे धूप से परेशान इंसान और जानवर दोनों को ही आसरा मिलता है।
इस तरह देखें तो खेजड़ी का पेड़ किसानों के लिए कई तरह से मददगार है। आमतौर पर खेजड़ी का पेड़ ऐसी जगह में उग आता है या ऐसी जगहों में ही उगाया जाता है, जिन जगहों में बाकी पेड़ नहीं उगते और इस तरह यह बंजर जमीन पर भी हरियाली का वरदान देता है। लेकिन राजस्थान में खास तौर पर इस खेजड़ी की सांस्कृतिक और आर्थिक धरोहर है। शायद यही कारण है कि इसे मरू प्रदेश के कल्पवृक्ष की संज्ञा दी जाती है और साल 1983 से यह राजस्थान का राज्य वृक्ष घोषित किया जा चुका है। यह पेड़ आमतौर पर कुदरत की कई तरह की मारों से बचा रहता है। यही वजह है कि जब सर्दियों में ज्यादातर पेड़ों या वनस्पतियों को पाला मार जाता है और जेठ बैसाख के महीनों में चलने वाली लू के कारण वे सूख जाते हैं, तब भी खेजड़ी का पेड़ हरा भरा और इन मौसमी थपेड़ों से बेपरवाह बना रहता है। एक जमाने में राजस्थान के अलावा महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और कर्नाटक जैसे शुष्क व अर्धशुष्क राज्यों में यह बड़े पैमाने पर पाया जाता था। हालांकि इसके नाम अलग-अलग जगहों में अलग-अलग लिये जाते थे, जैसे कि हमने ऊपर जिक्र किया है।
लेकिन पिछले तीन दशकों से खेजड़ी के पेड़ में एक खास तरह का संकट मंडरा रहा है। दरअसल ग्लोबल वार्मिंग के चलते खेजड़ी के पेड़ पर अब उसकी फलियां यानी सांगरी वैसी नहीं आती, जैसे पहले आया करती थीं। इनकी तादाद बहुत कम हो गई है। साथ ही ये पेड़ लगातार सूख रहे हैं, जिसका कारण ग्लोबल वार्मिंग के चलते राजस्थान के क्षेत्र में पैदा हुए कई तरह के खतरनाक कीट हैं। बीकानेर स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर हार्टीकल्चर के शोध के मुताबिक हाल के सालों में एक नई तरह की फफूंदी के संक्रमण के चलते खेजड़ी के पेड़ बीमार पड़ रहे हैं। स्काब्रेटोर नामक एक जड़ छेदक कीट खेजड़ी के पेड़ों को कमजोर कर रहा है। जबकि इन पेड़ों के साथ बहुत भावनात्मक इतिहास जुड़ा है। मारवाड़ क्षेत्र के खेजडी गांव में बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने इन पेड़ों के लिए 1730 में बलिदान दिया था। अंग्रेजी सरकार इन्हें कटाना चाहती थी, लेकिन वे लोग इन्हें कटने नहीं देना चाहते थे, जिसके लिए 292 पुरुष और 71 महिलाएं खेजड़ी के पेड़ों से लिपट गये लेकिन अंग्रेजों की पेड़ काटने वाली फौज नहीं मानी और इन 363 लोगों को पेड़ से चिपके होने के कारण मार दिया, फिर भी इन लोगों का हौसला पस्त नहीं हुआ। जिस कारण अंतत: तत्कालीन सरकार को इससे पीछे हटना पड़ा। मगर आज वही खेजड़ी के पेड़ मौसम की मार से खुद को नहीं बचा पा रहे।
लेकिन इस भावनात्मक इतिहास को छोड़ दें तो खेजड़ी के पेड़ वास्तव में समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इन्हें नये जमाने के मौसम की मार से बचाना ही होगा। यही वजह है कि अब खेजड़ी के पेड़ों को ऐसी जगहों पर भी बोया और उगाया जा रहा है, जहां यह पारंपरिक रूप से नहीं होते थे। खेजड़ी का पेड़ सीधे सीधे किसानों को आर्थिक लाभ देने वाला पेड़ भले न माना जाता हो, लेकिन यह किसानों की पारंपरिक बहुत सी ज़रूरतों को पूरा करता रहा है। इसलिए यह किसानों के लिए मित्र पेड़ों के रूप में गिना जाता है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर