झूठ पकड़ने वाला पॉलीग्राफ टैस्ट
पॉलीग्राफ टेस्ट किसी व्यक्ति द्वारा किए जुर्म का पता लगाने के लिए वैज्ञानिक जांच करने का तरीका है। इसको झूठ पकड़ने वाला या ‘लाइव डिटेक्टर’ टेस्ट भी कहा जाता है।
पहला पॉलीग्राफ टेस्ट सन् 1921 में कैलिफोर्निया के पुलिस अधिकारी और मनोवैज्ञानिक जोहन ए. लारसन ने तैयार किया था। 1935 में अमरीका में पहली बार वैज्ञानिक लियोनार्डे कीलर ने अपराधिक जांच में सहायता के लिए पॉलीग्राफ टेस्ट का उपयोग किया था। अदालत ने टेस्ट के परिणाम पेश किए जाने पर दो शक्की व्यक्तियों को आरोपी घोषित कर दिया था। लियोनार्डे कीलर को ‘पॉलीग्राफ के पितामाह’ के तौर पर जाना जाता है। उसने सन् 1948 में शिकागो में पहले पॉलीग्राफ स्कूल की स्थापना की। भारत में पहली बार सन् 2008 में इस टेस्ट का इस्तेमाल किया गया।
टेस्ट दौरान संबंधित व्यक्ति से कई सवाल पूछे जाते हैं। इस सवालों का जवाब देते समय मशीन की मदद के उस व्यक्ति की शारीरिक प्रतिक्रियाओं को मापा जाता है। इससे उस व्यक्ति के सच और झूठ बोलने के बारे में पता लगाया जाता है। इसमें उस व्यक्ति के दिल की धड़कन, ब्लड प्रैशर, नब्ज़, सांस लेने की प्रक्रिया की दर और चमड़ी की चालकता की प्रतिक्रिया को मापा जाता है। सच या झूठ बोलने पर यह सभी प्रभावित होते हैं। टेस्ट को 2 से 4 घंटे के समय लगता है।
भारतीय कानून के तहत पॉलीग्राफ टेस्ट संबंधित दोषी की सहमति के साथ ही किया जा सकता है। बिना सहमति के कोई भी नारको, ब्रेन मैपिंग या पॉलीग्राफ टेस्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह उसके मौलिक अधिकारों की उल्लंघना है।
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