माई री, मैं कासे कहूं पीर
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अब वे तीनों डाइनिंग टेबल पर बैठे थे, ‘और कोई नहीं है क्या तेरे साथ?’ विनोद ने पूछा। गोरखा खाना रख गया था। उसने इन्कार में सिर हिलाया, ‘शादी के कुछ दिनों बाद सुनीता का मामा राकेश, जो लगभग मेरी ही उम्र का था हमारे पास आ गया, वह बहुत खुश थी। वह हमारी ससुराल से कुछ सामान लेकर आया था। अब मैं बड़ी बेफिक्री से अपनी ड्यूटी पर जाने लगा, चलो घर में कोई तो है।’ उसने दाल का डोंगा उठाकर विनोद की ओर बढ़ाया।
‘अब मेरी तो नौकरी ही जंगल की थी, वह भी रेंजर की। कभी-कभी दो-दो दिन बाहर ही रहना पड़ता पर मुझे चिन्ता नहीं थी। मैं सुबह ही घर से निकल जाता और वापस लौटते मुझे अक्सर ही रात हो जाती। इसी तरह करीब दो महीने गुजर गये। मुझे बड़ा अजीब लग रहा था, कोई जवान आदमी ऐसे ही बिना काम कहीं भी कैसे रह सकता है, इसका मन कैसे लगता होगा यहां? फिर एक दिन मैंने राकेश से पूछ ही लिया, ‘मामा! आपको जाना हो तो जा सकते हैं, आपके काम का हर्जा हो रहा होगा?’
‘मैं यहां दिन भर अकेली रहूँगी?’ सुनीता बीच में झट से बोल पड़ी।
‘अब मेरी तो नौकरी ही ऐसी है। सारी उम्र थोड़ी न ये यहां रह सकते हैं। इनके अपने काम का क्या होगा?’
‘कुछ नहीं होता, कुछ दिन और रुकेंगे तो। इनकी कौन-सी नौकरी है, दुकान पर ही तो बैठना है। नाना जी हैं न।’ वह फिर बोल पड़ी, पर राकेश चुप था। अब मेरे पास कहने को कुछ नहीं था। मैं नियम से अपनी ड्यूटी जा रहा था।
कुछ दिन और यूं ही गुज़र गये। अब तक मौसम बदलने लगा था, बरसात शुरू हो चुकी थी। मेरी बदली किन्नौर से रामपुर हो गई थी। उस रात ऊपरी पहाड़ियों पर बहुत पानी गिरा था पर मुझे तो जंगल जाना ही था। ऐसे मौसम में जंगल में लकड़ी की चोरी ज्यादा होती है। कटे हुए शहतीर ही चोरी नहीं होते, बारिश का फायदा उठाकर चिरानी लोग खड़े पेड़ भी काट डालते हैं। उस दिन भी रोज की तरह तैयार होकर मैं बाहर निकल गया। तुम्हें पता है न उस समय तक ठीक से सड़कें भी नहीं थीं और फिर जंगल के रास्ते। हम रामपुर से लगभग छ: मील आगे निकल आये थे, अभी जंगल के लिए मुझे खड्ड (पहाड़ी बरसाती नाला) पार करनी थी। अभी मोड़ तक पहुंचा ही था कि खड्ड का शोर सुनाई देने लगा। हमें लगा कि खड्ड उफन आई है। मेरे साथ इलाके के गार्ड भी थे ही।
एक बोला, ‘रुक जाइये साहब! खड्ड चढ़ी हुई है।’ मैं रुक गया, खड्ड वाकई बहुत उफन रही थी। सारा रास्ता बह गया था। आगे पैर ही नहीं रखे जा सकते थे। जीप मोड़ ली गई और हम लोग लौट आये। मैंने दोनों गार्डों को जाने को कह दिया और खुद क्वार्टर की ओर चल दिया। मुझे लगा कि आज दोनों मुझे देखकर खुश हो जायेंगे, क्योंकि मैं उन लोगों को समय ही नहीं दे पा रहा था।
रास्ते में देखा तो एक आदमी दो पेटी आम लेकर बेचने बैठा हुआ था। आम और रामपुर में...? यहां सेब-खुमानी की तो भरमार है पर आम... तुम्हें पता है, उन दिनों तो सपना ही थे। चलो मेहमान भी तो हैं घर में, भले वह सुनीता का मामा ही था। मैंने झट से दो किलो आम तुलवा लिए और क्वार्टर की ओर बढ़ गया।
दरवाजा खुला ही था पर आंगन में कोई नहीं था। कहां गये दोनों दरवाजा खुला छोड़कर? मैं आम रखने रसोई में गया तो मुझे अपने कमरे में से दोनों के हंसने की आवाज़ आई। यह कमरा रसोई घर के साथ ही लगा हुआ था, वह रामपुर वाला क्वार्टर तो तुम दोनों का देख हुआ ही था न!’ उसने दोनों की ओर सवालिया नज़रों से देखा तो उन्होंने हां में सिर हिलाया। अब तक खाना हो चुका था, वह उठा और हाथ धोकर तीनों भीतर सोफों पर आ जमे।
‘हां! तो तुम कह रहे थे दरवाजा खुला था...’ विनोद ने बात का सिरा पकड़ा, फिर...’
‘मैंने सोचा शायद लूडो खेल रहे होंगे और मैं अपने कमरे की तरफ बढ़ गया। बस! यहीं से मेरी बर्बादी की कहानी शुरू हो गई दोस्तो! काश उस दिन मैं उस बरसाती खड्ड में बह गया होता।’ और सदानन्द ने सिर सोफे की पीठ पर टिका दिया। वह खाली-खाली आंखों से छत को घूर रहा था। उसने एक लम्बा सांस लिया और आंखें की नमी को पोंछ लिया।
‘सदा....! सचमुच हमारे किसी भी दोस्त को तुम्हारे बारे में कुछ भी तो पता नहीं। आखिर हुआ क्या था?’ राहुल ने उसके कंधे पर हाथ रखकर दिलासा दिया, ‘तुमने तो चिट्ठियों के जवाब देने भी बंद कर दिये थे और फिर मैं भी विदेश चला गया। लौटकर आया तो तुम्हारे बारे बस इतना ही पता चला कि तुम किसी केस में फंस गये हो और तुमने नौकरी भी छोड़ दी है। सारा दर्द अकेले ही झेलते रहे, क्यों....आखिर क्यों?’
‘तुम नहीं समझ सकते, कि मैंने उन दोनों को अपने ही स्तर पर किस हालत में देखा।’
‘क्या...?’ दोनों एक साथ बोल पड़े।
‘हां दोस्त! हालांकि वह उसका सगा मामा था।’
‘फिर....?’ राहुल ने पूछा
‘मैं चुपचाप बाहर निकल आया और बस अड्डे जाकर उन दोनों के लिए टिकट लाकर सुनीता के हाथ पर रख दिये। यह तो संयोग था कि उन दिनों मेरा खलासी एक महीने की छुट्टी पर था वरना बात फैलते देर नहीं लगती। फिर मैं अपने जंगलात के रेस्ट हाउस चला गया और उनके चले जाने के बाद ही घर वापस लौटा। दो ही दिन बाद पिता जी वहां आ गये, सुनीता के पिता भी साथ थे। दोनों ही बात पर मिट्टी डालने को कह रहे थे, पर मैं आंखों देखी मक्खी कैसे निगल लेता पर मुझे नहीं पता था कि मेरे ससुर कितने शातिर हैं। वह पिता जी के जाने के बाद वहीं अपने किसी रिश्तेदार के घर रुक गये थे। (क्रमश:)