पृथ्वी के स्थायित्व की पुकार है शेरों की दहाड़

शेरों के संरक्षण के प्रति जागरूकता फैलाने, उनके सिकुड़ते प्राकृतिक आवास और उनसे जुड़ी जैव विविधता के संकट पर वैश्विक ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रत्येक वर्ष 10 अगस्त को ‘विश्व शेर दिवस’ मनाया जाता है। है। शेर जिसे ‘जंगल का राजा’ कहा जाता है, न केवल जैव विविधता बल्कि पर्यावरणीय, सांस्कृतिक और पारिस्थितिक संतुलन के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। शेरों की गिनती उन जीवों में होती है जो न केवल पारिस्थितिक तंत्र में शीर्ष स्थान रखते हैं बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक और प्रतीकात्मक दृष्टि से भी भारत सहित कई सभ्यताओं के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आज के समय में शेरों की संख्या में भारी गिरावट के कारण यह दिवस और भी प्रासंगिक हो गया है।
एक समय था जब शेर अफ्रीका, एशिया, मध्य पूर्व और यहां तक कि यूरोप के कुछ हिस्सों में भी पाए जाते थे किन्तु अब वे लगभग 94 प्रतिशत क्षेत्रों से गायब हो चुके हैं। केवल कुछ सीमित क्षेत्रों में ही इनका अस्तित्व बचा है। अफ्रीका में जहां इनकी संख्या में तीव्र गिरावट देखी गई है, वहीं एशिया में केवल भारत ही ऐसा देश है, जहां एशियाई शेर पाए जाते हैं। भारत में ये शेर केवल गुजरात के गिर राष्ट्रीय उद्यान और उसके आसपास के क्षेत्रों में सीमित हैं। वर्ष 2025 में जारी नवीनतम आंकड़ों के अनुसार भारत में एशियाई शेरों की संख्या 891 तक पहुंच चुकी है, जो वर्ष 2020 में 674 थी यानी पिछले पांच वर्षों में भारत में एशियाई शेरों की संख्या में 32 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है, जो संरक्षण की दिशा में एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। इस संख्या में 196 नरए 330 मादा और 225 शावक शामिल हैं परंतु चिंताजनक तथ्य यह है कि इनका लगभग 44 प्रतिशत हिस्सा अब संरक्षित क्षेत्रों से बाहर बस चुका है, जिससे संरक्षण की चुनौतियां और बढ़ गई हैं। राज्य के 11 ज़िलों की 58 तहसीलों में शेरों की उपस्थिति दर्ज की गई है, जो स्पष्ट संकेत है कि शेर अपनी ज़रूरतों के लिए सीमित आवास से निकलकर नए क्षेत्रों की तलाश कर रहे हैं।
विश्व स्तर पर अफ्रीकी शेरों की जनसंख्या में तेजी से गिरावट आई है। कभी ये अफ्रीका, एशिया, यूरोप और मध्य पूर्व तक फैले थे लेकिन अब सीमित क्षेत्रों तक सिमट गए हैं। शेरों की संख्या में वैश्विक स्तर पर गिरावट अनेक कारकों के कारण हुई है। मुख्य रूप से अवैध शिकार, पारंपरिक औषधियों में अंगों का उपयोग, जनसंख्या वृद्धि के कारण आवास का हृस, मानव-शेर संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और आनुवांशिक विविधता की कमी जैसे कारण प्रमुख रहे हैं। आईयूसीएन की रिपोर्ट ‘प्रजातियों की हरित स्थिति’ में शेरों को ‘काफी हद तक समाप्त’ श्रेणी में रखा गया है, जिसका तात्पर्य है कि वे अपने पूर्ववर्ती वितरण क्षेत्र से अत्यधिक कम हो चुके हैं। उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण-पश्चिम एशिया में शेरों को अब विलुप्त माना जाता है। भारत में भी गिर क्षेत्र के बाहर शेरों की आवाजाही और फैलाव ने नई चिंता पैदा की है। खुले कुओं में गिरने, ट्रेन से कटने, सड़क दुर्घटनाएं और महामारी जैसे रोग शेरों की मृत्यु के प्रमुख कारण बने हैं। 
भारत सरकार ने एशियाई शेरों के संरक्षण हेतु अनेक योजनाएं शुरू की हैं। वर्ष 2018 में प्रारंभ हुई ‘एशियाई शेर संरक्षण परियोजना’ के अंतर्गत शेरों के प्राकृतिक आवास की सुरक्षा, आधुनिक तकनीक से निगरानी, आनुवंशिक विविधता को बनाए रखना और बीमारी के समय शीघ्र उपचार की व्यवस्था जैसे बिंदुओं पर विशेष ध्यान दिया गया है। इसके अलावा केंद्र सरकार ने ‘प्रोजेक्ट लॉयन’ की शुरुआत की, जो शेरों के संरक्षण को दीर्घकालिक दृष्टि से देखता है। 
गुजरात में जैसे-जैसे शेरों की संख्या बढ़ रही है और वे संरक्षित क्षेत्रों से बाहर आ रहे हैं, प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में मानव-शेर संघर्ष की घटनाएं बढ़ रही हैं। कई बार शेर मवेशियों पर हमला करते हैं या खेतों में आ जाते हैं, जिससे ग्रामीणों की जीविका पर प्रभाव पड़ता है। बदले में ग्रामीणों द्वारा शेरों को पत्थरों से मारना, जहर देना या जाल में फंसाने की घटनाएं भी सामने आती हैं। इस चुनौती का समाधान केवल बल प्रयोग या स्थानांतरण नहीं है बल्कि एक समन्वित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसके तहत गांवों में शेरों के अनुकूल सोच विकसित करना, फसल और मवेशियों के नुकसान पर त्वरित और उचित मुआवजा, खेतों और कुओं की सुरक्षा के उपाय, बाढ़ और चेतावनी प्रणाली का निर्माण, स्थानीय समुदायों को संरक्षण का भागीदार बनाना, स्कूली शिक्षा में वन्यजीव संरक्षण का समावेश जैसे कदम उठाने की ज़रूरत है। भारत में शेरों की संख्या बढ़ना हालांकि एक सुखद संकेत है लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार केवल संख्या वृद्धि पर्याप्त नहीं है, जब तक आवासीय विस्तार, आनुवंशिक विविधताए रोग-नियंत्रण और मानव-शेर सह-अस्तित्व पर समानांतर रूप से कार्य नहीं किया जाएगा, तब तक इस सफलता को टिकाऊ नहीं माना जा सकता। विज्ञान, समाज, प्रशासन और आम जनता यदि सभी एकजुट होकर काम करें तो हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि आने वाले वर्षों में भी शेरों की दहाड़ जंगलों में सुनाई देती रहे।

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