भारत-अमरीका संबंधों में आई दरार के कूटनीतिक मायने
भारत-अमरीका संबंधों में गहराते दरार से दोनों देशों के बीच व्यापार, रक्षा और रणनीतिक सहयोग पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। इसके अतिरिक्त आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन और महामारी जैसी वैश्विक चुनौतियों से निपटने में सहयोग भी प्रभावित हो सकता है। चूंकि भारत और अमरीका के बीच संबंध 1947 में हासिल स्वतंत्रता के बाद से ही महत्वपूर्ण रहे हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसमें जो उतार-चढ़ाव आए हैं, उस पर पूरी दुनिया की निगाहें लगी हुई हैं। ऐसा इसलिए कि इससे अंतर्राष्ट्रीय ध्रुवीकरण की पूर्ववर्ती और मौजूदा दोनों कोशिशों को भी गहरा धक्का लग सकता है। चूंकि भारत एक गुटनिरपेक्ष देश है, ऐतिहासिक पंचशील के सिद्धांतों को मानता आया है, इसलिए वह अमरीका और रूस (यूएसएसआर) की खेमेबाजी से दूर रहने की कोशिश करता है। अमरीका-चीन के वैश्विक रस्साकशी से खुद को दूर रखना चाहता है लेकिन पिछले 7.8 दशक में भारत के पड़ोसी देशों पाकिस्तान व चीन ने ऐसा सीमाई उधम मचाया कि भारत को कभी रूस से तो कभी अमरीका से मदद लेनी पड़ी। जब भी अमरीका ने पाकिस्तान का खुला समर्थन किया है तो रूस (सोवियत संघ) ने भारत के लिए मित्र से भी बढ़कर संरक्षक भूमिका निभाई है। तन.मन.धन से और यूएसए में वीटो करके भी।
वहीं जब कभी चीन से भारत का तनाव पैदा हुआ तो रूस ने पीछे से भारत की नैतिक मदद की जबकि अमरीका खुलकर भारत के साथ खड़ा हुआ। यही वजह है कि कांग्रेस समर्थक रूस को संतुलित करने के लिए पूर्व भाजपाई प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने दगाबाज अमरीका से जो रणनीतिक मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किये थे, वो दूसरे भाजपाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में ही दम तोड़ते नज़र आ रहे हैं। ऐसा इसलिए कि मित्र बनकर अमरीका ने भारत से जो दगाबाजी पाकिस्तान प्रेरित पहलगाम आतंकी हमले और ऑपरेशन सिंदूर के दौरान की है, उससे उसके बारे में यह अवधारणा मज़बूत हुई है कि ऐसा कोई सगा नहीं, जिसे अमरीका ने ठगा नहीं जबकि रूस पर यह बात लागू नहीं होती। वह भारत-अमरीका के प्रगाढ़ होते संबंधों के बावजूद विचलित नहीं हुआ और भारत के रणनीतिक सुरक्षा ज़रूरतों की पूर्ति करता रहा। यही वजह है कि रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद जब उसके ऊपर पश्चिमी देशों द्वारा विभिन्न तरह के प्रतिबंध लगाए गये तो भारत ने उन्हें मानने से इन्कार कर दिया व अपनी पुरानी भरोसेमंद वैश्विक मित्रता की लाज रखते हुए उससे तेल व हथियार खरीद कर मित्रता को निभाया।
शायद यही बात अमरीका को अखर गई जबकि उसे धैर्य रखना चाहिए था क्योंकि यूरोप का मुकाबला रूस से है, अमरीका से नहीं। शीत युद्ध के बाद अमरीका का मुकाबला चीन से है जिससे निबटने के लिए अमरीका ने भारत से सांठगांठ शुरू की थी। चूंकि मौजूदा समय में रूस-चीन में गहरी यारी है और भारत, रूस-चीन के खिलाफ अमरीका का मोहरा बनने को तैयार नहीं है, इसलिए अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत को ही सबक सिखाने की ठान ली। यह अमरीकी प्रशासन की अव्वल दर्जे की मूर्खता है और उसे अपनी भूल का एहसास तब होगा जब तेजी से उभरता हुआ भारत अपने रुपये से डॉलर पर चोट करेगा।
अभी अमरीका इस गलतफहमी में है कि वह पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव आदि को उकसा कर भारत को कमजोर करेगा लेकिन उसे यह याद रहना चाहिए कि जब भारत उसके साथ था, अफगानिस्तान में वह करोड़ों डॉलर झोंक चुका था। बावजूद इसके रूस-चीन-ईरान के समक्ष उसे पिटना पड़ा था और अपने कीमती हथियार व उपकरण अफगानिस्तान में ही छोड़कर उसे भागना पड़ा था। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, जब इज़रायल-ईरान युद्ध के दौरान अमरीका इज़रायल के पक्ष में खड़ा हुआ तो अरब देश कतर के अमरीकी सैन्य अड्डे पर ईरान ने अपनी मिसाइल से हमला बोल दिया। वहीं इज़रायल को कितना नुकसान पहुंचाया, किसी से छिपी हुई बात नहीं है। तब पाकिस्तान भी उसके साथ था लेकिन इज़रायल से मित्रता के बावजूद भारतीय तटस्थता पर कभी रूस व ईरान ने एतराज नहीं जताया। बताते चलें कि भारत को अमरीका अनायास टारगेट नहीं कर रहा बल्कि वह समझ चुका है कि भारत में वो दम है जो ग्लोबल साउथ यानी अंतर्राष्ट्रीय दलित-पिछड़े देशों को अपने पाले में करके अमरीका को घुटनों पर ला सकता है। इसलिए फिलवक्त अमरीकी रणनीति है कि रूस और चीन से मधुर संबंधों को विकसित करते हुए भारत की आर्थिक व सैन्य कमर तोड़ दी जाए। इसलिए वह अंदरखाते में रूस-चीन को यही समझा रहा होगा कि भारत को हथियार मार्किट में उभरने ही नहीं दिया जाए। भारत के जापान, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों से बने रणनीतिक संबंध तभी हतोत्साहित होंगे जब अमरीका भारत से दूर होगा।
ऐसे में भले ही अभी यह कहा जा रहा है कि व्यापार और ऊर्जा विवादों ने संबंधों को प्रभावित किया है, खासकर डोनाल्ड ट्रम्प प्रशासन के दौरान लेकिन इसके पीछे की सुनियोजित अमरीकी प्रशासन की नीतियों को भी समझना होगा क्योंकि राजनीतिक लोकतंत्र तो उसका मुखौटा मात्र होता है। अंतत: दोनों मिलकर अपने देश की भलाई के लिए ही कार्य करते हैं। जहां तक अमरीका-भारत के दरकते रणनीतिक संबंधों के नकारात्मक प्रभाव की बात है, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि यदि आपसी संबंध बिगड़ते हैं, तो व्यापार समझौते और निवेश प्रभावित हो सकते हैं जिससे दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। चूंकि भारत और अमरीका के बीच महत्वपूर्ण रक्षा सहयोग भी चल रहा है, खासकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए, तो संबंधों में आई हालिया दरार से यह सहयोग भी कमजोर हो सकता है।
हालांकि यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि दोनों देशों के बीच मज़बूत संबंध बनाने के कई कारण हैं। पहला यह कि दोनों देश लोकतांत्रिक मूल्यों, आर्थिक विकास और सुरक्षा सहयोग में साझा हित रखते हैं। इसके अलावा भारतीय-अमरीकी समुदाय दोनों देशों के बीच एक संबंध सेतु का काम करता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि भारत-अमरीका संबंधों में दरार से दोनों देशों के लिए महत्वपूर्ण नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। हालांकि दोनों देशों के बीच मज़बूत संबंधों को बनाए रखने के कई कारण हैं, इसलिए यह देखना और इंतजार करना श्रेयस्कर होगा कि आने वाले वर्षों में आपसी संबंध कैसे विकसित होते हैं।