टेढ़ी समस्याएं, अटपटे समाधान
समाधान चाहिये तो कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा लाकर भानुमती को कुनबा जोड़ लेने दो, और अपने मुद्दे से भटके हुए भाषणों से समस्याओं के समाधान निकाल कर दिखा दो। पिछले दिनों हमें एक बूढ़ों की क्रांति में शामिल होने का मौका मिला। वैसे तो इस देश में जहां नौजवान क्रांति के बारे में, चुनावी एजेंडों में उदार होने और अनुकम्पा की घोषणाओं का इंतज़ार करते हैं, बूढ़ों का अपनी समस्याओं के समाधान के लिए एक सम्मेलन आयोजित कर लेना अथवा एक संस्था को बना लेना एक अनोखी बात लगती है।
अपने देश में प्रजनन दर कम होने से बूढ़ों की संख्या बढ़ने लगी है। बहुत दिन हमारी पहचान एक युवा देश की रही है। अब देश में नौजवानों को कोई काम-धाम न मिलने और उनके भविष्य के ठन-ठन गोपाल होने से उनकी पहचान भी नौजवानों की नहीं बल्कि असमय बूढ़ होते लोगों की बनती जा रही है। ऐसे माहौल में देश की जवानी अभी तक एक ही सपना पाल रही थी। शिक्षा परिसरों के तिजारती दुकानों बनने के साथ इन लोगों का ध्यान अब वीज़ा दिलाने वाली शिक्षा अकादमियों की ओर हो गया था, जो आपको साम-दाम-दण्ड-भेद से वीज़ा के लिए अपेक्षित बैंड दिलवा देती हैं। अब जब विदेशों से उन्हें अयाचित मान कर, उनकी सम्मानहीन ढंग से वापसी शुरू हो गई है, तो ज़रूरी था कि इस समस्या का समाधान देश में ही उनको रोज़गार की गारंटी देकर किया जाता। इसके लिए देश में नये काम धंधे पैदा करने की संस्कृति की ज़रूरत पड़ती। घरेलू दस्तकारी को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत पड़ती। लघु और कुटीर उद्योगों के विस्तार की ज़रूरत पड़ती, लेकिन अपना यहां नाक को सीधे नहीं, बल्कि घुमा कर पकड़ने की आदत है न, इसलिए आर्थिक मेहनत की कार्यशैली पैदा करने की बजाय रियायती रेवड़ियां बांटने की संस्कृति पैदा कर दी गई, जिसे सही शीर्षक देना हो तो ‘मुफ्तखोरी का माहौल’ कहते हैं, और सभ्य परिचय देना है तो इसे ‘दया धर्म का मूल है’ कह कर उस संक्षिप्त मार्ग संस्कृति का परिचय दिया जाता है, जहां लोगों के बैंक खातों में बिना काम किये पैसे आ जाते हैं, बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा मिल जाती है, और सबके लिए बिजली पानी मुफ्त का समाधान पेश कर दिया जाता है।
जब गद्दी हथियाने को आतुर राजनीतिक दलों में अनुकम्पा घोषणाओं की प्रतियोगिता शुरू हो गई तो बेकारी, भ्रष्टाचार और परिवारवाद की समस्याओं ने जनत्व समाधान के लिए अपने मुद्दों से भटकना ही था। मुद्दे यूं भटके कि लोगों की अध्यवसाय के साथ पुस्तक संस्कृति को समर्पित होने की आदत जाती रही। इसकी बजाय चोर गलियों के समाधान पैदा हो गए, जहां महानुभाव काम की नहीं, मुफ्त लंगरों का समाधान पेश कर रहे थे, और लोगों ने श्रमशीलता की जगह आरामशीलता को अपना लिया था।
देश में नारा बदलने में देर ही कितनी लगती है, पहले राष्ट्र-निर्माण के लिए ‘आराम हाराम है’ अब ‘काम आराम का नारा’ दे दिया गया। मुद्दे भटक कर समस्याओं के समाधान का चेहरा कुछ इस प्रकार विरुपित करने लगे कि एक ओर हमारी घोषणा थी कि हम तेज़ी के साथ दुनिया की चौथी बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन गये। तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने में अब कुछ दम की ही दौर है, यह बात हमारे पुराने मालिक ब्रिटेन के सरकारी कारकुन भी कह गए तो अब तो इंतज़ार है आज़ादी का शतकीय माहौल मनाते हुए अमरीका और चीन को पीछे छोड़ कर दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बन जाने का।
लेकिन मुद्दों से भटकने की आदत है न हमें। इसलिए हमने इस देश की दुनिया की सबसे बड़ी आबादी के लिए मुफ्त या सस्ते अनाज की कृपा सन 2029 बढ़ा दी है, और वायदा कर दिया है कि चाहोगे तो हम इस सुविधा को अनन्तकाल तक बढ़ा देंगे, अर्थात तब तक जब तक कि आपका ‘इसरो’ अंतरिक्ष विजय के सब झंडे न गाड़ दे, और चांद में अपनी भूखी बस्तियां न बसा दे। राशन कार्ड लेकर सस्ते अनाज का लाभ उठाती हुई बस्तियां।
लेकिन मुद्दों से भटकने की आदत हो गई है न, इसलिए आप पूछ सकते हैं कि जनाब आप तो बूढ़ों द्वारा एक सभा बना कर क्रांतिकारी हो जाने की घोषणा की कहानी सुनाने वाले थे। वह कहां गई?
तो सुन लीजिये, देश की क्रांति का प्रतीक चन्द बूढ़े लोग वहां एकत्र हुए थे। वे सब लोग गद्गद् थे कि भूख, बाढ़ और बेकारी से आक्रांत देश में अपनी ज़िन्दगी के बोनस वर्ष जीने का उन्हें मौका दिया। बेटे-बेटियों की तो बात छोड़िये, अब तो नाती-पौत्र भी उनके साथ कोई संबंध होने की घोषणा से कतराने लगे हैं, और उन्हें अंधेरे घरों की पिछली उपेक्षित कोठरियों में फेंक दिया गया है, लेकिन वे खुश हैं कि अब सरकार ने इन बूढ़ों की पेन्शन बढ़ाने का फैसला कर लिया है। बूढ़े गद्गद् हो धन्यवाद प्रस्ताव पास करने के लिए यहां एकत्र हुए थे। उन्होंने रुंधे गले के साथ दया से अभिभूत इस फैसले की भूरि-भूरि प्रशंसा की और उन्होंने इस पैसले के लागू होने का धीरज के साथ इंतज़ार करने का आश्वासन दिया।
लेकिन वहां हमें उनको ढो कर लाते हुए कुछ नौजवान भी नज़र आये, जो इस बात से खुश थे, कि अब उन्हें भी इस पेंशन को बूढ़ों में बांट कर जीने का मौका मिल जाएगा। जब माहौल ऐसा हो तो नौकरी दिलाऊ खिड़कियों पर कौन जाता है। देश में लीजिये, यूं बेकारी की समस्या का समाधान भी हो गया।