महात्मा गांधी के पसंदीदा अभिनेता थे मोतीलाल
मोतीलाल ने अपने फिल्मी करियर में मात्र 60 फिल्में कीं, जिनमें उन्होंने आकर्षक हीरो, सहायक अभिनेता व खूंखार खलनायक की भूमिकाएं निभाकर भारतीय सिनेमा पर इतनी गहरी छाप छोड़ी कि दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन व नसीरुद्दीन शाह भी उनकी अदाकारी से प्रभावित हुए बिना न रह सके। मोतीलाल को दिलीप कुमार व वैजयंती माला की दो फिल्मों ‘देवदास’ (जिसमें उन्होंने चुन्नीलाल की भूमिका को अमर कर दिया) और ‘पैगाम’ (जिसमें वह निर्दयी मिल मालिक थे) के लिए विशेषरूप से याद किया जाता है। अमिताभ बच्चन ने ‘द हंड्रेड लुमिनरिएज़ ऑ़फ हिंदी सिनेमा’ की प्रस्तावना में लिखा, ‘महान और स्वाभाविक अभिनेता मोतीलाल की प्रशंसा में ज्यादा नहीं लिखा गया है। अगर वह आज ज़िंदा होते, तो उनकी बहुमुखी प्रतिभा उनके लिए आज भी बेहतरीन स्थान सुनिश्चित करती। तथ्य यह है कि वह हममें से बहुतों से बेहतर स्थिति में होते।’ नसीरुद्दीन शाह का कहना है कि मोतीलाल हिंदी सिनेमा इतिहास के तीन स्वाभाविक अदाकारों में से एक हैं, बाकी दो, उनके अनुसार, बलराज साहनी व याकूब हैं। निर्देशक सुधीर मिश्र के मुताबिक मोतीलाल का अभिनय पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। हालांकि मोतीलाल को शुरुआती सफलता 1938 में महबूब खान की फिल्म ‘जागीरदार’ से मिली थी, लेकिन उनके लिए यादगार पल वह रहे जब ‘अछूत’ (1940) के लिए उन्हें महात्मा गांधी से प्रशंसा मिली और जब जवाहर लाल नेहरु ने उनसे उनका नाम मालूम किया था, तो वह बताने में शरमा गये थे; क्योंकि नेहरु के पिता का नाम भी मोतीलाल था।
मोतीलाल ने लगभग 30 फिल्मों में बतौर हीरो काम किया जिनमें से अधिकतर बॉक्स ऑफिस पर कामयाब रहीं, लेकिन उन्हें अधिक सफलता चरित्र अभिनेता के रूप में मिली। मोतीलाल इतने सहज व स्वाभाविक अभिनेता थे कि उन्हें देखकर लगता ही नहीं था कि वह अभिनय कर रहे हैं। अगर चुन्नी बाबू, जो देवदास को शराब, तवाइफ और पतन की ओर ले जाता है, की भूमिका मोतीलाल से अलग किसी कमतर अदाकार ने की होती तो वह आसानी से नकारात्मक चरित्र बन जाता लेकिन मोतीलाल ने उसमें आकर्षण पैदा कर दिया, उसे दोषरहित बना दिया। इसलिए उन्हें ‘देवदास’ (1955) के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार मिला। यही पुरस्कार उन्हें 1960 में ‘पारस’ के लिए भी दिया गया। मोतीलाल ने विलेन की भूमिकाएं भी कीं (अनाड़ी 1959, पैगाम 1959), लेकिन उनमें भी बात थी, वह पर्दे पर ऐसे यकीनी किरदार लगते थे कि हां, ऐसे व्यक्ति भी समाज में मौजूद हैं। शायद उनका सबसे अच्छा अभिनय ‘मिस्टर संपत’ (1952) के शीर्षक रोल में था, जो साहित्यकार आर.के. नारायण की कहानी पर आधारित था। एक ऐसा करिश्माई जालसाज़ जो एस्किमो को भी बर्फ बेच दे, के रूप में मोतीलाल ने शांत (कूल) व शातिर का ऐसा शानदार मिश्रण किया था, जिसमें सुधार लाना असंभव है। मोतीलाल घर पर भी शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। उनकी पत्नी डॉक्टर थीं और मालाबार हिल पर उनका मकान वालकेश्वर अपनी सादगी के लिए मशहूर था। इसके बावजूद मोतीलाल के कई अफेयर हुए। कई साल तक उनका इश्क नादिरा से चला। जब शोभना का कुमारसेन समर्थ से तलाक हो गया तो उनके जीवन में मोतीलाल आए। इस बारे में शोभना ने कहा था, यह आज तक का सबसे उग्रता वाला संबंध था। साल में 360 दिन हम आपस में झगड़ते थे। हम झगड़ते थे तो मोतीलाल इस गम में शराब पीते थे, हम प्यार करते थे, तो मोतीलाल इस खुशी में शराब पीते थे। जब मैंने बॉम्बे छोड़कर लोनावाला में रहने का फैसला किया तो मोतीलाल ने आपत्ति की। मैंने निर्णय नहीं बदला। मोतीलाल के पास फ्लाइंग लाइसेंस था और वह मेरे कॉटेज के ऊपर से उड़ान भरते हुए पत्थरों में बांधकर प्रेमपत्र नीचे फैंकते, जिनमें ‘आई लव यू’ लिखा होता। जब मैंने अपनी बेटी नूतन को लांच करने के लिए फिल्म ‘हमारी बेटी’ (1950) बनाई तो मोतीलाल ने उसमें नूतन के पिता की भूमिका निभाई।’
लगभग हर सफल अभिनेता को अपने करियर में निर्देशक बनने का भूत अवश्य सवार होता है। मोतीलाल भी इसके अपवाद न थे। रेस व जुए के शौकीन मोतीलाल निर्देशक बनने की ज़िद पकड़ बैठे। ‘छोटी-छोटी बातें’ फिल्म का निर्देशन किया, जिसमें अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया- घोड़ों, बंगलों और हवाईजहाज़ के मालिक मोतीलाल इस फिल्म के कारण आर्थिक, मानसिक व शारीरिक तौर पर इस कदर टूट गए कि मात्र 55 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। मोतीलाल का निधन 17 जून 1965 को हुआ, उनके पास एक पैसा भी नहीं था। विरोधाभास देखिये, जिस फिल्म के लिए मोतीलाल बर्बाद हुए उसे उनके मरने के बाद तीसरी सर्वश्रेष्ठ फिल्म होने के लिए सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट से सम्मानित किया गया और उन्हें भी सर्वश्रेष्ठ कहानी के लिए सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट मिला। यह कहानी काफी हद तक स्वयं मोतीलाल के जीवन पर आधारित थी।
मोतीलाल राजवंश का जन्म 4 दिसम्बर, 1910 को शिमला में हुआ था। उनके पिता जाने माने शिक्षाविद थे। मोतीलाल जब एक साल के थे, तो उनके पिता का निधन हो गया। उनके चाचा जो उत्तर प्रदेश में सिविल सर्जन थे, ने उनकी परवरिश की। मोतीलाल की प्रारंभिक शिक्षा पहले शिमला में हुई और फिर उत्तर प्रदेश में। इसके बाद वह दिल्ली के एक कॉलेज में दाखिल हो गए। वह नेवी में भर्ती होना चाहते थे, इसलिए मुंबई टेस्ट देने के लिए गए। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। वह बीमार हो गये और टेस्ट न दे सके। ठीक हुए तो एक दिन सागर स्टूडियो में शूटिंग देखने के लिए चले गए। वहां निर्देशक के.सी. घोष काम कर रहे थे। उन्होंने मोतीलाल को देखा। उनकी शख्सियत से इतना प्रभावित हुए कि उन्हें ‘शहर का जादू’ फिल्म में हीरो का रोले दे बैठे। यह 1934 की बात है। उस समय मोतीलाल 24 साल के थे। इस तरह उनका फिल्मी सफर शुरू हुआ जो लगभग 60 फिल्मों तक चला। हंसमुख स्वभाव के मोतीलाल ने अपनी इस फिल्मी यात्रा के बारे में मजाक में कहा था, ‘सौ बार शादी हुई। इससे दो गुनी बार मरे। कभी पैदा न हुए, लेकिन हमेशा पैराशूट से नीचे लाये गये।’
बहरहाल, मोतीलाल के बारे में तीन बातें बताना ज़रूरी मालूम होता है। वह 1926 तक फर्स्ट क्लास क्रिकेटर थे। विजय मर्चेंट के अनुसार अगर मोतीलाल के चोट न लगती तो वह निश्चत तौर पर इस खेल में देश का प्रतिनिधित्व करते। उन्होंने एक बार फिल्म स्टार्स इलेविन की तरफ से खेलते हुए 151 रन बनाये थे, भारतीय इलेविन के खिलाफ। दूसरी बात यह कि उनके पास अपना हवाई जहाज़ था, जिसे उन्होंने उड़ाना भी सीखा था और एक बार उसे अंडमान तक लेकर गये थे, उनके शब्दों में ‘किसी जुर्म की वजह से नहीं बल्कि पर्यटक के नाते’। ..और अंतिम यह कि उन्हें हॉर्स रेसिंग की लत थी। उनके पास एक घोड़ा था जिसका नाम उन्होंने ‘ट्रेटर’ (गद्दार) रखा हुआ था; क्योंकि उसकी बुरी आदत यह थी कि जीत के करीब पहुंचकर वह मोतीलाल को मुड़कर देखता और इस प्रयास में रेस हार जाता। जब मोतीलाल के परममित्र चंदरमोहन (चरित्र अभिनेता) का निधन हुआ तो उन्होंने हॉर्स रेसिंग छोड़े दी थी। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर