मिलावटखोरों के खिलाफ त्योहारों पर ही कार्रवाई क्यों ?
जब भी दिवाली आती हैए अखबारों में खाद्य विभाग के छापों की खबर प्रकाशित होने लगती है। दीवाली से कुछ दिन पहले रोज ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं जिसमें से ज्यादातर दुग्ध उत्पादों के बारे में होती हैं। खाद्य विभाग जगह-जगह छापे मारकर नकली मावा, पनीर और मिठाइयों को जब्त करता है और ज्यादातर वहीं फैंक दिया जाता है । सवाल यह है कि क्या सिर्फ दिवाली पर ही मिठाइयों या अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट की जाती है? सच तो यह है कि देश भर में पूरा साल मिलावटी और नकली खाद्य पदार्थों की बिक्री होती है। सवाल यह है कि ऐसा क्यों है कि सिर्फ त्योहारों के समय ही खाद्य विभाग सक्रिय नज़र आता है ।
इसके लिए खाद्य विभाग स्टाफ की कमी को रोना रोता है कि उसके पास पर्याप्त संख्या में अधिकारी नहीं हैं, जो मिलावटी सामान की बिक्री पर नज़र रख सकें। उनके इस बहाने से सवाल उठता है कि फिर त्योहारों विशेषकर दीवाली के समय उसके पास स्टाफ कहां से आ जाता है। खाद्य पदार्थों में मिलावट एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या बन चुकी है, लेकिन पूरी व्यवस्था इस तरफ से बेखबर है। इसकी वजह यह भी हो सकती है कि सम्पन्न वर्ग ब्रांडेड और अच्छी दुकानों से सामान खरीदता है जहां मिलावट होने की संभावना बहुत कम होती है। घटिया और मिलावटी सामान तो छोटे शहरों या बड़े शहरों में ऐसी जगहों पर बिकता है जहां गरीब और मध्यम वर्ग के लोग रहते हैं । घटिया और मिलावटी खाद्य पदार्थों के सेवन से कई प्रकार की बीमारियां पैदा होती हैं। आज हमारे देश में बढ़ती बीमारियों के लिए जंक फूड को दोष दिया जाता है जो कि सही भी है, लेकिन मिलावटी खाद्य पदार्थों के बारे में बात कम की जाती है। लोगों का स्वास्थ्य खराब होने की बड़ी वजह जंक फूड के अलावा मिलावटी और घटिया खाद्य पदार्थ भी हैं ।
सवाल यह है कि सरकार मिलावट पर रोक क्यों नहीं लगा पा रही है। खाद्य विभाग कहता है कि त्योहारों के दौरान खाद्य पदार्थों में मिलावट की समस्या बढ़ जाती है, इसलिए उसकी कार्रवाई सबको दिखाई देती है। विशेष तौर पर दिवाली के समय देश में मिठाइयों की मांग बढ़ जाती है। सवाल उठता है कि दूध उत्पादन तो एकदम से नहीं बढ़ सकता, फिर दूध से बना मावा और पनीर कहां से आ जाते हैं। दूध से बने पदार्थों की मियाद भी बहुत कम होती है। मावा तो सिर्फ एक सप्ताह तक ही ठीक रहता है। अचानक दुकानों में दूध से बनी मिठाइयों का ढेर कैसे लग जाता है। सच्चाई तो यह है कि इसके लिए नकली और मिलावटी दूध का इस्तेमाल हो सकता है । खाद्य विभाग जो पकड़ता है, वह नाममात्र ही होता है, बाकी सब लोगों के पेट में चला जाता है ।
दिवाली के दौरान जनता को दिखाने के लिए ऐसे कुछ सामानको जब्त करके खानापूर्ति ही कही जा सकती है। कमज़ोर कानून को इसके लिए दोष दिया जाता है जबकि सच्चाई यह है कि जो कानून है, लेकिन उसका सही इस्तेमाल नहीं होता। इसके लिए उपभोक्ता भी जिम्मेदार हैं क्योंकि उनमें खाद्य पदार्थों के मिलावट के संबंध में जागरूकता का अभाव है । विदेशों में इस संबंध में जनता बहुत जागरूक है, उसकी नज़र में जब ऐसे मामले आते हैं तो वह सरकार को कार्रवाई करने के लिए मजबूर कर देती है। विकसित देशों में संबंधित विभाग ऐसे मामलों में बहुत सख्ती बरतते हैं। इसलिए वहां मिलावटी सामान की बिक्री संभव नहीं हो पाती है। हमारे देश में सस्ती चीजें लोगों को आकर्षित करती हैं, लेकिन लोग समझ नहीं पाते हैं कि सस्ती चीज़ें नकली और मिलावटी भी हो सकती हैं । श्
ाहरों में दूध की कीमत को देखते हुए कहा जा सकता है कि पनीर लगभग 350 रुपये प्रति किलो से कम में नहीं बेचा जा सकता, लेकिन कुछ दुकानदार पनीर 200-250 रुपये प्रति किलो की दर से बेचते मिल जाते हैं। इसके लिए दुकान पर बोर्ड भी लगाया जाता है लेकिन खाद्य विभाग की नज़र उस पर नहीं जाती। जनता को भी समझ नहीं आता कि जब सरकारी और सहकारी कम्पनियां लगभग 400 रुपये किलो बेच रही हैं तो इतना सस्ता कुछ दुकानदार कैसे बेच सकते हैं। इसके लिए सरकारी विभागों में फैला हुआ कथित भ्रष्टाचार भी माना जा सकता है। (युवराज)