साका नीला तारा और 84 का सिख कत्लेआम-कांग्रेस सच का सामना करके नई शुरुआत करे

देश के और विशेषकर पंजाब के इतिहास में साका नीला तारा (आपरेशन ब्ल्यू स्टार) तथा नवम्बर 1984 का सिख कत्लेआम दो ऐसी घटनाएं हैं, जो 41 साल बीत जाने के बाद भी किसी न किसी रूप में चर्चा में रहती हैं और इन घटनाओं संबंधी कोई न कोई नया विवरण या विश्लेषण सामने आते रहते हैं। इस प्रसंग में ही पिछले दिनों साका नीला तारा के बारे में पूर्व केंद्रीय वित्तमंत्री पी. चितम्बरम और कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर के आए ब्यानों को देखा जा सकता है। कांग्रेस के उपरोक्त दोनों नेता कसौली (हिमाचल प्रदेश) में प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक स. खुशवंत सिंह की याद में हर साल होने वाले साहित्यिक समारोह में भाग लेने आए थे और उन्होंने वहां हुए अलग-अलग समारोहों में अपने-अपने दृष्टिकोण पर जानकारी अनुसार साका नीला तारा के बारे में टिप्पणियां की हैं।
पी. चिदम्बरम ने कहा है कि हरिमंदिर साहिब का दोबारा नियंत्रण हासिल करने के लिए सैन्य कार्रवाई करने वाला रास्ता गलत था। इसके स्थान पर कोई अन्य ढंग-तरीका भी अपनाया जा सकता था। इस गलती की सज़ा श्रीमती इंदिरा गांधी को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी, परन्तु साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इसके लिए सिर्फ श्रीमती इंदिरा गांधी ही ज़िम्मेदार नहीं थीं। उस समय के सैन्य अधिकारी, एजेंसियां और पुलिस आदि सभी इसके लिए ज़िम्मेदार थे। कांग्रेस के दूसरे वरिष्ठ नेता श्री मणिशंकर अय्यर ने भी यह बात कही है कि यदि उस समय सेना के जनरलों, एजेंसियों और अन्य संबंधित लोगों ने सही राय दी होती तो इस तरह की सैन्य कार्रवाई को टाला भी जा सकता था। परोक्ष ढंग से कांग्रेस के उपरोक्त दोनों नेताओं ने साका नीला तारा के घटमाक्रम में से उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की भूमिका को घटा कर पेश करने की कोशिश की है। परन्तु साका नीला तारा के बाद प्रकाशित हुई बहुत सी किताबों और समाचार पत्रों में छपे पत्रकारों के लेखों में यह कहा गया है कि उस समय के थल सेना के प्रमुख जनरल वैद्य साका नीला तारा सैन्य आप्रेशन के पक्ष में नहीं थे। इसी कारण उनको हाशिये पर करके आप्रेशन संबंधी श्रीमती इंदिरा गांधी ने पश्चिमी कमांड के प्रमुख जनरल सुंदरजी के साथ विचार-विमर्श किया था। जनरल सुंदरजी की धारणा थी कि थोड़ी सी सैन्य कार्रवाई के साथ ही हरिमंदिर साहिब समूह को खाली करवाया जा सकता है और प्रधानमंत्री द्वारा इस संबंधी सहमति दिए जाने के बाद कार्रवाई की ज़िम्मेदारी उनके जनरल कुलदीप सिंह बराड़ को दी गई थी। इंदिरा गांधी ने जनरल सुंदरजी की राय पर अमल किया परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि इंदिरा गांधी यह कार्रवाई नहीं करना चाहती थीं। इसके लिए तो उन्होंने ब्रिटिश सरकार और सोवियत संघ के साथभी विचार-विमर्श किया था। इंदिरा गांधी को अकाली दल द्वारा आपात स्थिति के विरुद्ध लगाये गये मोर्चे से भी खुंदक थी।
नि:संदेह कांग्रेस के उपरोक्त दोनों वरिष्ठ नेताओं के ताज़ा आये ब्यानों ने देश और पंजाब की राजनीति में साका नीला तारा के बारे में एक बार फिर से चर्चा शुरू कर दी है। भाजपा और आम आदमी पार्टी के नेताओं ने इन ब्यानों का उपयोग एक बार फिर कांग्रेस को साका नीला तारा के लिए ज़िम्मेदार ठहराने और सिख भाईचारे की नज़रों में उनको एक बार फिर आरोपी के तौर पर पेश करने के लिए किया है, ताकि देश और पंजाब की राजनीति में उनको कांग्रेस की इस गलती से लाभ मिलता रहे। जहां तक कांग्रेस उच्च कमान का संबंध है, उन्होंने उपरोक्त कांग्रेसी नेताओं के ब्यानों की आलोचना की है। कांग्रेस के वर्तमान प्रधान मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि जिन मुद्दों पर काफी समय पहले कांग्रेस एक स्टैंड ले चुकी है, उस संबंध में कांग्रेस के सीनियर नेताओं को ब्यानबाज़ी करके पार्टी को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।
परन्तु इस संबंध में हमारी पहले से ही यह राय रही है कि साका नीला तारा कांग्रेस की उस समय की केन्द्र सरकार की एक बहुत बड़ी गलती थी। जिस तरह अब उपरोक्त दोनों वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं के बयान आए हैं, इसी प्रकार देश के अन्य भी बहुत से पूर्व सैनिक अधिकारियों, राजनीतिज्ञों और पत्रकारों की, उस समय से ही यह राय सामने आती रही है कि साका नीला तारा को टाला जा सकता था और किसी अन्य अच्छे ढंग के साथ श्री हरिमंदिर साहिब समूह को खाड़कुओं से खाली करवाया जा कता था। साका नीला तारा की प्रतिक्रिया के तौर पर ही श्रीमती इंदिरा गांधी का कत्ल हुआ और श्रीमती इंदिरा गांधी के कत्ल के बाद कांग्रेस पार्टी और उसकी सरकार ने बड़े योजनाबद्ध ढंग से दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में सिख भाईचारे के सभी लोगों को श्रीमती इंदिरा गांधी के कत्ल के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए, उनका कत्लेआम करवाया। देश की राजधानी दिल्ली में तीन दिन तक यह आगजनी और हिंसा का भयानक खेल जारी रहा। 
इस प्रकार साका नीला तारा की गलती के बाद सिख कत्लेआम करवाकर कांग्रेस ने दूसरी बड़ी गलती कर ली थी। इसके बाद सिख भाईचारे द्वारा और सिख भाईचारे के समर्थक देश के बुद्धिजीवियों, वकीलों और राजनीतिक नेताओं द्वारा पीड़ित सिख भाईचारे को इन्साफ दिलाने के लिए जितने भी यत्न हुए, उन सबको केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी और उसकी अलग-अलग राज्य सरकारों ने निरन्तर साबोताज किया। सच को सामने आने से रोका। इस कारण न तो साका नीला तारा की निष्पक्ष जांच हो सकी और न ही सिख कत्लेआम के दोषियों को समय पर सजाएं दिलाई जा सकीं। दशकों तक सिख भाईचारे के लोगों को साका नीला तारा और सिख कत्लेआम की घटनाएं परेशान करती रहीं और वे परायेपन के आलम में विचरण करते रहे। साका नीला तारा के बाद शायद उस समय की केन्द्र सरकार ने यह सोचा होगा कि पंजाब में से खाड़कूवाद का सफाया हो जाएगा, परन्तु हुआ यह कि साका नीला तारा के बाद राज्य की स्थिति और गम्भीर हो गई। 
सिख खाड़कूवाद अधिक उग्र रूप में सामने आया, जैसे कि हमने ऊपर लिखा है, इस घटनाक्रम की प्रतिक्रिया के तौर पर ही श्रीमती इंदिरा गांधी का कत्ल हुआ था और साका नीला तारा समय के सेनाध्यक्ष जनरल वैद्य को भी मार दिया गया था। उत्पन्न हुई इस स्थिति का बातचीत के द्वारा कोई राजनीतिक हल निकालने के स्थान पर और केन्द्र सरकार ने और उसके पंजाब के प्रशासनों ने सुरक्षाबलों के बल पर इस मामले का सैन्य हल पंजाब पर थोपने का यत्न किया। इससे राज्य में हिंसा और व्यापक हो गई।
 इसमें बड़े स्तर पर पुलिस ने झूठे पुलिस मुकाबले बना कर सिख नौजवानों को मारा। दूसरी तरफ खाड़कुओं के नाम पर विचरण करने वाले सिख नौजवानों ने भी बड़े स्तर पर लोगों की जानें लीं, जिनमें बहुत से निर्दोष लोग भी शामिल थे। भड़की हुई इस आग को शांत करने के लिए कांग्रेस पार्टी ने 1985 में राजीव-लौंगोवाल समझौते के रूप में आधे-अधूरे यत्न किए। इस कारण शिरोमणि अकाली दल के प्रधान संत लौंगोवाल को भी अपनी जान गंवानी पड़ी। बाद में राजीव गांधी की सरकार इस समझौते से भी पीछे हट गई। 26 जनवरी, 1986 को चंडीगढ़ पंजाब को देने के लिए कार्ड भी छप गए परन्तु अंत में सरकार पीछे हट गई। 
राजीव-लौंगोवाल समझौते में दर्ज अन्य मुद्दों पर भी अमल नहीं हुआ। 1996-97 तक हिंसा और जवाबी हिंसा का दौर राज्य में जारी रहा। पंजाब के लोग और खास तौर पर सिख भाईचारे से संबंधित लोग आज भी यह महसूस करते हैं कि उस समय की केन्द्र सरकार और पंजाब के प्रशासनों ने सिख भाईचारे को इन्साफ नहीं दिया। झूठे पुलिस मुकाबलों के शिकार हुए परिवारों के लोग दशकों से आरोपी पुलिस अधिकारियों को सज़ाएं दिलाने के लिए बिना किसी सरकारी सहायता और संरक्षण के अकेले ही सब चुनौतियों का सामना करते हुए जूझ रहे हैं। इसी प्रक्रिया में जसवंत सिंह खालड़ा को भी अपनी कुर्बानी देनी पड़ी थी। चाहे समय की ज़रूरतों के अनुसार पंजाब में कांग्रेस की कई बार सरकारें बनी हैं और केन्द्र में ही कई बार लोकसभा के सदस्य गए हैं और वहां मंत्री भी बने रहे हैं। 
डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री भी बने परन्तु इस बारे में कोई दो मत नहीं हैं कि आज भी पंजाब के लोग बड़े स्तर पर साका नीला तारा और 84 के सिख कत्लेआम के लिए कांग्रेस पार्टी को दोषी समझते हैं। परन्तु हैरानी की बात यह है कि कांग्रेस पार्टी ने इन दोनों घटनाओं से दशकों बाद भी स्पष्ट रूप में अपनी गलतियों के लिए माफी नहीं मांगी। लोकसभा में पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने ज़रूर इस संबंधी अफसोस जताया था। सोनिया गांधी भी अफसोस शब्द से आगे नहीं बढ़ी। हमारी इस संबंध में बड़ी स्पष्ट राय है कि यदि कांग्रेस पंजाब और खास तौर पर सिख भाईचारे के मन में उपजी कटुता को दूर करना चाहती है तो उसको स्पष्ट रूप में साका नीला तारा और 84 के सिख कत्लेआम के लिए माफी मांगनी चाहिए। इस बारे में कोई दो राय नहीं हैं कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी पंजाब के लोगों और खासतौर पर सिख भाईचारे के लोगों का फिर से विश्वास जीतने के लिए बार-बार पंजाब आते रहे हैं और खासतौर पर श्री हरिमंदिर साहिब में कई-कई दिनों तक सेवा भी करते रहे हैं। 
विदेशों में जाकर भी वह सिख भाईचारे के लोगों को बड़े प्यार और सम्मान के साथ मिलते हैं और उनके देश-विदेश में धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए भी आवाज़ उठाते रहे हैं। सिख भाईचारे के लोग उनके इस रुख को समझ भी रहे हैं। फिर भी इस बात की ज़रूरत अभी भी बरकरार है कि राहुल गांधी और कांग्रेस के अन्य वरिष्ठ नेता समूह पंजाबियों और सिख भाईचारे से उपरोक्त दोनों घटनाओं के लिए माफी मांगें और एक नई शुरुआत करें, क्योंकि पंजाब के सिख भाईचारे के लोगों ने कांग्रेस की इन बड़ी गलतियों की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। यदि कांग्रेस पार्टी का वरिष्ठ नेतृत्व ऐसा नहीं करता तो साका नीला तारा और 84 का सिख कत्लेआम बार-बार किसी न किसी रूप में उनके सामने आता रहेगा और उनको शर्मिंदा करता रहेगा। इस संबंध में बार-बार कांग्रेस को रक्षात्मक स्थिति में आना पड़ेगा। अन्य विपक्षी राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस की इस स्थिति से बार-बार राजनीतिक लाभ उठाती रहेंगी।

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