गेहूं की काश्त के लिए सरकार किसानों को सहायता दे

कृषि गंभीर संकट में हैं और किसान की आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय है। खरीफ  की फसल धान व बासमती के कम उत्पादन ने तो किसानों की कमर ही तोड़ दी है। बाढ़ को नियंत्रित करने तथा बीमारियों के इलाज पर भारी खर्च होने से फसल पर आने वाली लागत बहुत बढ़ गई है। उत्पादन में भारी कमी आई है। धान की औसतन पैदावार मुश्किल से 15 क्ंिवटल प्रति एकड़ हो रही है जबकि पिछले वर्षों में इसका उत्पादन 40 क्ंिवटल प्रति एकड़ तक भी रहा है।
 औसतन 30 से 35 क्ंिवटल प्रति एकड़ तक तो फसल होती ही थी। मंडी में धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 2,389 रुपये प्रति क्ंिवटल भी किसानों को नहीं मिल रहा। नमी की निर्धारित मात्रा 17 प्रतिशत से अधिक होने के कारण निजी मिलों वाले और आढ़ती इसे एमएसपी में कट लगा कर खरीद रहे हैं। नमी अधिक होने के कारण सरकारी एजेंसियां भी समर्थन मूल्य पर धान खरीदने को तैयार नहीं। बासमती का तो समर्थन मूल्य भी नहीं है। मंडियों में अब तक आई पूसा बासमती-1509 गत वर्ष के मुकाबले 1000 से 1500 रुपये प्रति क्ंिवटल कम कीमत पर बिकी और उत्पादन 8-10 क्ंिवटल प्रति एकड़ तक रहा। किसानों का कहना है कि इससे तो खर्च भी पूरा नहीं हुआ। पंजाब सरकार द्वारा केन्द्र को धान की खरीद संबंधी मापदंडों जैसे कि नमी 17 प्रतिशत और बदरंग व खराब दाने की मात्रा 5 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए, में छूट देने के लिए कहा गया है। चाहे मुख्यमंत्री भगवंत मान ने 170 लाख टन धान केंद्रीय अनाज भंडार में देने के लिए हाल ही में  कहा है, लेकिन मंडियों में अब तक जो लगभग 75 लाख टन धान की आवक हुई है, उसके दृष्टिगत यह लक्ष्य पूरा होना संभव नहीं लगता। चाहे धान की कटाई देरी से हो रही है, लेकिन उत्पादन कम होने के कारण खरीद का लक्ष्य पूरा होना सम्भव नहीं।
केंद्र को चाहे पंजाब से धान की खरीद का लक्ष्य पूरा न होने का इतना एहसास न हो, क्योंकि सरकारी एजेंसियों के पास ज़रूरत से चार गुना ज़्यादा चावल का भंडार पड़ है और देश में धान की काश्त का रकबा भी 44.2 मिलियन हेक्टेयर हो गया है, जो पिछले वर्षों से ज़्यादा है। केंद्रीय एजेंसियों के पास यह भंडार सार्वजनिक वितरण प्रणाली और प्रधानमंत्री द्वारा जारी की गईं अन्य योजनाओं के तहत दिए जाने वाले चावल से अधिक है। गेहूं की भी बहुतायत है। सरकारी भंडार में 1 अक्तूबर को 320 लाख टन से ज़्यादा गेहूं था। मक्की की काश्त का रकबा भी बढ़ा है। यह 8.4 मिलियन हेक्टेयर से बढ़ कर इस वर्ष 9.5 मिलियन हेक्टेयर हो गया। 
इस समय जब गेहूं की बिजाई शुरू हो चुकी है तो डीएपी का न मिलना भी किसानों के लिए एक बड़ी समस्या है, जिस कारण गेहूं की बिजाई में देरी हो रही है। गत 25 अक्तूबर को डीएपी कहीं भी उपलब्ध नहीं थी जबकि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना की सिफारिशों के अनुसार गेहूं की बिजाई के शुरू में डीएपी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। डीलरों तथा व्यापारियों के पास गेहूं का बीज पड़ा है, जो बिना नहीं, क्योंकि बिजाई शुरू नहीं हुई। किसानों के पास क्रय शक्थि नहीं है, आवश्यक कृषि सामग्री डीएपी उपलब्ध नहीं है। डीएपी के विकल्प, जो जटिल उर्वरकों के रूप में उपलब्ध हैं, किसान उन्हें इस्तेमाल करने से गुरेज़ करते हैं, क्योंकि ये डीएपी के मुकाबले महंगे पड़ते हैं और कुछ किसानों के अनुभवों के आधार पर इनके परिणाम डीएपी के समान नहीं हैं।
आम किसानों की हालत तो खराब है ही, परन्तु छोटे और पटेदार किसानों की स्थिति और भी दयनीय है। कड़ी मेहनत के बावजूद बीमारियों, बाढ़ और बारिश से हुए नुकसान के कारण उन्हें 15 क्ंिवटल प्रति एकड़ से अधिक उत्पादन नहीं मिल रहा। उनकी आय मुश्किल से 35,000 रुपये हो रही है। पटेदार 30 से 35 हज़ार रुपये प्रति सीज़न एक एकड़ का ठेका देते हैं। इस प्रकार उनको नुकसान हो रहा है। वे अच्छी खाद और बीज का उपयोग करके गेहूं की बिजाई करने में भी असमर्थ हैं। आढ़ती और बड़े ज़मींदार उन्हें उधार नहीं देते और न ही ऋण देते हैं। कोई दस्तावेज़ न होने के कारण बैंक भी उन्हें ऋण देने से गुरेज़ करते हैं। इन किसानों को सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी भी नहीं मिल रही। इन किसानों के पास वैज्ञानिक खेती के लिए मशीनें और सरकारी सहायता भी उपलब्धन नहीं। अधिक मेहनत करने के बावजूद इनकी प्रति एकड़ उपज कम होती है। इस वर्ग के किसानों को नया ज्ञान और नए बीज उपलब्ध कराना आवश्यक है। कृषि प्रसार सेवा उन तक पहुंचनी चाहिए और सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी और सुविधाएं इन किसानों को विशेष रूप से उपलब्ध हों। 
इन्हें विशेषज्ञों का निरन्तर नेतृत्व मिलना चाहिए ताकि इनकी हालत में सुधार आ सके। बारिश, बाढ़ और बीमारियों से धान की फसल को हुए नुकसान की भरपाई के लिए सरकार द्वारा किसानों को मंडियों में धान का उचित मूल्य दिलाया जाए और गेहूं की बिजाई के लिए हर तरह की सहायता दी जानी चाहिए।

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