प्रशांत किशोर को ‘ज़ोर का झटका’ दे गए बिहार चुनाव
बिहार विधानसभा चुनाव में लड़ाई तो मुख्य रूप से सत्तारूढ़ राजग और विपक्षी दलों के महागठबंधन के बीच थी, लेकिन तमाम निगाहें एक और मोर्चे पर भी लगी हुई थीं। यह मोर्चा था चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी। यह पार्टी खाता खोलना तो दूर, इक्का-दुक्का सीटों को छोड़कर अपनी ज़मानत बचाने तक में नाकाम रही।
राजनेता के रूप में प्रशांत किशोर की पहली पारी एकदम फीकी रही। चुनाव से पहले बड़े-बड़े दावे करने वाले प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ‘जन के मन’ पर कोई छाप छोड़ने में सफल नहीं हो सकी। 243 सदस्यों वाली बिहार विधानसभा के लिए जन सुराज ने 238 उम्मीदवार उतारे। इनमें से 98 प्रतिशत (233 उम्मीदवारों) की ज़मानत जब्त हो गई। इस आधार पर यह चुनाव प्रशांत किशोर के लिए राजनीतिक तौर पर गहरा झटका साबित हुआ है। चुनाव से पहले उन्होंने राज्य भर में व्यापक दौरे किए और पदयात्रा निकालकर लोगों से संपर्क भी साधा।
जानकारों के अनुसार जन सुराज के गठन से पहले प्रशांत किशोर ने 5 मई, 2022 से 2 अक्तूबर, 2024 तक 6 हज़ार किलोमीटर की पैदल यात्रा की। 5000 गांवों तक पहुंच कर सभाएं की। बिहार चुनाव से पहले मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए 1,280 दिन तक बिहार के चप्पे-चप्पे पर पहुंचने के जुगत में लगे रहे, परन्तु चुनाव के नतीजों में उनके हाथ कुछ न लगा। उन्होंने चुनाव को एक जन आंदोलन के रूप में पेश करने का प्रयास किया, लेकिन उनकी यह कोशिश सफल नहीं ला पाई। चुनाव परिणाम में उनके लिए एकदम स्पष्ट सीख और संदेश रहा कि आंकड़ेबाज़ी और रणनीतिक तिकड़मों एवं जनता की नब्ज़ समझना एकाएक विपरीत कार्य हैं।
चुनाव से पहले मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर प्रशांत किशोर और जन सुराज का बड़ा शोर सुनाई पड़ रहा था, लेकिन सुर्खियों, खबरों से लेकर नैरेटिव के मोर्चे पर मची यह हलचल जनमत की दशा-दिशा को किसी भी तरह प्रभावित करने में नाकाम दिखी। स्पष्ट है कि दूसरों को परीक्षा की तैयारी कराने वाले प्रशांत जब खुद अपने इम्तिहान में बैठे, तब या तो उनकी तैयारी पर्याप्त नहीं थी या फिर वह अति-आत्मविश्वास के शिकार थे। दोनों ही परिस्थितियों में परिणाम वही निकलना था जो अंतत: सामने भी आया। 1 करोड़ से ज्यादा सदस्यों का दावा करने वाली जन सुराज पार्टी को 10 लाख वोट भी नहीं मिल सके।
प्रशांत किशोर के नज़दीक रहे लोगों के अनुसार उनकी हार के लिए कुछ हद तक उनकी ही रणनीति ज़िम्मेदार है। पार्टी का संगठनात्मक ढांचा और जनसंपर्क दोनों ही कमज़ोर थे। प्रशांत किशोर बिहार के ज़मीनी मुद्दों को अनदेखा करते हुए ऐसे मुद्दे उठाते रहे, जिनकी गूंज जनता के बीच सुनाई नहीं दी। प्रशांत किशोर ने हरसंभव तरीके से यह दिखाने का प्रयास किया कि बिहार की दशा-दिशा सुधारने की उनकी मंशा एकदम भली है, लेकिन इसके लिए वह कोई कारगर ब्लूप्रिंट नहीं सुझा सके। इस मामले में उनके दावे भी तेजस्वी यादव जैसे रहे। तेजस्वी की तरह प्रशांत के वादे भी जनता को न समझ आए और न ही उन पर भरोसा हो पाया।
जानकारों के अनुसार किसी भी राजनीतिक दल की ताकत उसके कार्यकर्ता होते हैं। इसलिए कैडर बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह कैडर अमूमन वैचारिक दिशा से ही प्रेरित होता है और खुद को राजनीतिक दलों की गतिविधियों में एक अंशभागी के रूप में देखता है। उसका अपने दल के साथ एक भावनात्मक लगाव भी होता है। भावनाओं और वैचारिक खुराक की जुगलबंदी के अभाव में कार्यकर्ता दुविधा एवं भ्रम के शिकार हो जाते हैं। प्रशांत किशोर ने अपना ऐसा सांगठनिक ढांचा विकसित करने के बजाय पेशेवर लोगों को प्राथमिकता दी जिनके लिए यह किसी सामान्य कवायद जैसा ही रहा। उनकी शिकस्त में यह भी एक कारण रहा कि वह अपने पीछे ऐसे लोगों को लामबंद नहीं कर पाए, जो कड़ी के रूप में जनता को अपने साथ जोड़ पाते।
टिकट वितरण में भी प्रशांत किशोर का रवैया ऐसा रहा कि वह किसी राजनीतिक लड़ाई के बजाय किसी कार्पोरेट ढांचे में काम करने जा रहे हैं। उन्होंने जनता के बीच पैठ की बजाय उम्मीदवारों की निजी उपलब्धियों को ज्यादा प्राथमिकता दी। अमूमन विधान परिषद या राज्यसभा के मामले में ऐसा होता है, लेकिन पंचायत से लेकर विधानसभा और लोकसभा जैसे चुनावों में जनता से नेता का जुड़ाव और उसकी लोकप्रियता कहीं ज्यादा मायने रखती है। इसमें भी प्रशांत किशोर मात खा गए।
अगर वह खुद चुनाव लड़ते तो उनकी पार्टी और कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ता। पहले उन्होंने तेजस्वी यादव के खिलाफ चुनाव में उतरने के संकेत दिए थे। बाद में चुनाव लड़ने से ही मना कर दिया। इसका संदेश भी जनता में गलत ही गया। (युवराज)



