लोक-लुभावन वायदों की बजाय विश्वसनीयता ज़्यादा महत्वपूर्ण

बिहार विधानसभा के चुनाव परिणाम 14 नवम्बर को घोषित हुए, जिसमें राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने अप्रत्याशित ढंग से पुन: सत्ता में वापिसी की। अप्रत्याशित इसलिये कि सभी सर्वे अमूमन यह कह रहे थे कि इन चुनावों में राजग की विजय होगी, परन्तु यह विजय 2010 की तरह एकतरफा होगी, यह भविष्यवाणी किसी ने नहीं की थी। अब अहम सवाल यह कि 243 सदस्यों वाली विधानसभा में राजग को 200 से ज्यादा सीटें कैसे मिली और ‘इंडिया’ गठबंधन मात्र 35 सीटों में कैसे सिमट गया? कुछ ऐसी ही विजय राजग को वर्ष 2010 के विधानसभा चुनाव में भी मिली थी, परन्तु इन चुनावों में राजग के विरुद्ध पूरे बीस वर्षों की सत्ता विरोधी लहर (एंटी इन्कम्बेंसी) थी। राजनीतिक पंडितों को सबसे बड़ा आश्चर्य यही कि 20 वर्षों की सत्ता विरोधी लहर के बावजूद राजग को ऐसा विशाल बहुमत कैसे मिल गया?
वास्तविकता यह कि एंटी इन्कम्बेंसी इन चुनावों में भी थी, परन्तु यह सत्ता पक्ष के विरुद्ध न होकर विपक्ष यानी कि महागठबंधन के विरुद्ध थी। कहने वाले कह सकते हैं कि भला ऐसा कैसे? सच्चाई यह कि भारतीय राजनीति इस मोदी युग में कुछ बदलाव की धारा में जा रही है जिसका एक बड़ा प्रमाण यह है कि मतदाता परिवारवादी पार्टियों को एक तरह से नकार रहे हैं। इसका उदाहरण बिहार के साथ उत्तर प्रदेश, तेलंगाना जैसे राज्यों में देखा जा सकता है। परिवारवाद के चलते ही कांग्रेस की जो पूरे देश में दुर्दशा है, वह किसी से छुपी नहीं है। वह 2014 से लेकर अब तक केन्द्र में सत्ता में आने के लिये छटपटा रही है। जिन राज्यों में वह सत्ता से हटती है, वहां फिर लौट कर आना एक तरह से असंभव हो जाता है। बिहार में 35 वर्ष पूर्व जब से सत्ता से कांग्रेस हटी, तब से वापस नहीं आ पाई। इसी तरह से पश्चिम बंगाल, गुजरात, मध्य प्रदेश भी इसके बड़े उदाहरण हैं। 
इसके अलावा जिस ढंग से चुनाव आयोग द्वारा विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के विरुद्ध राहुल गांधी और दूसरे वोट बैंक की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों द्वारा बिना आधार के मुद्दा बनाया गया और हंगामा खड़ा कर परमाणु बम और हाइड्रोजन बम फोड़ने की बात की गई। इससे बिहार के मतदाताओं में गलत संदेश गया और उनके मन-मस्तिष्क में विपक्ष की एक गैर-ज़िम्मेदाराना छवि बन गई जिसका असर बिहार विधानसभा के चुनावों में पड़ा। विपक्ष ने वोट चोरी को लेकर चाहे जितना प्रोपेगेंडा किया हो, परन्तु यह बड़ी सच्चाई है कि बिहार विधानसभा चुनाव में एक भी बूथ को लेकर पुन: मतदान तो दूर, इसके लिये आवेदन तक नहीं आया। उल्लेखनीय तथ्य यह भी कि महागंठबंधन के सहयोगी दल चुनाव के अंतिम दौर तक एक समन्वित इकाई के तौर पर मतदाताओं के समक्ष नहीं आ सके।
इसके अलावा राहुल गांधी प्रधानमंत्री को लेकर जिस अशोभनीय भाषा प्रयोग करते रहे, उसका मतदाताओं में ठीक संदेश नहीं गया। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) द्वारा जिस ढंग से अपनी 51 यादव उम्मीदवार उतारे गये, उसकी भी व्यापक प्रतिक्रिया मतदाताओं में हुई, रही सही कसर ओवैसी ने पूरी कर दी। जहां सीमांचल में जो मुस्लिम बहुत है, वहां पर 24 सीटों में 14 सीटें राजग को मिली और ‘इंडिया’ गठबंधन को मात्र 5 सीटें मिलीं। स्थिति यह रही कि राजद का मुस्लिम-यादव समीकरण भी बहुत हद तक ध्वस्त हो गया।
दूसरी तरफ 20 वर्षों से राजग अथवा नितीश राज में कानून का शासन कायम हुआ। आतंक, गुंडागर्दी, उगाही, अपहरण और लूट की घटनाएं बंद हो गईं। महिलाओं का सशक्तिकरण हुआ जिसके कारण इस चुनाव में करीब 9 प्रतिशत महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में ज्यादा मतदान किया और इनके ज्यादातर वोट राजग के खाते में गये। इसी तरह से राहुल और प्रियंका ने ‘जेन-ज़ी’ के नाम से भले ही युवाओं को कितना भी उकसाया हो, परन्तु उनका भी बहुतायत में वोट राजग के पक्ष में गया, क्योंकि उन्हें राजग के शासन में ही अपना भविष्य दिखाई दिया। एक अहम बात यह भी कि राजग के दोनों प्रमुख घटक भाजपा एवं जनता दल यूनाइटिड (जदयू) फिलहाल परिवारवाद के आरोप से मुक्त हैं। दोनों का शीर्ष नेतृत्व चाहे वह मोदी हों या नितीश, पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं है। 
सबसे बड़ी बात यह कि तेजस्वी ने जो हर घर में एक नौकरी देने का दांव चला, वह उल्टा पड़ गया। लोगों को यह एहसास हुआ कि इस वायदे को पूरा करना असंभव है, क्योंकि बिहार का सालाना बजट ही पूरे 3 लाख करोड़ का है और इस अकेले काम के लिये पूरे 12 लाख करोड़ रुपये की ज़रूरत थी। इसमें यह प्रमाणित होता है कि अब चुनावी राजनीति में वायदे भी सोच समझकर करने की ज़रूरत है। निष्कर्ष यह निकलता है कि आज की राजनीति में हवाई वायदे करने की तुलना में विश्वसनीयता और प्रमाणिकता ज़्यादा मायने रखती है और इसी कसौटी पर लोगों  ने राजग को खरा पाया। (अदिति)

#य विश्वसनीयता ज़्यादा महत्वपूर्ण