संघर्ष से सीख
आज घर पर भीड़भाड़ थी। मोहल्ले के स्वतंत्रता सेनानी रास बिहारी जी का देहांत हुआ था। संघर्ष के प्रतीक के रूप में मोहल्ले में जाने जाते थे। स्वाभिमान तो इतना की मुश्किल से मुश्किल वक्त पर भी उन्होंने कभी किसी के सामने मोहल्ले में हाथ नहीं फैलाया।
तीनकट्टे की पुस्तैनी जमीन पर ही जीवन बसर करते हुए अपने पचहत्तर वर्ष बीता दिए।
अपने इकलौते बेटे रमण को कभी भी किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी। उनकी मेहनत भी रंग लाई। रमण बैंक में महा प्रबंधक बन गया। पूरे मोहल्ले में रास बिहारी जी को नाम के अनुरूप सम्मान देते रहते हुए दिखते थे। सब कहते थे कि नवनीत नगर का यह एक जीवंत स्वतंत्रता सेनानी ही तो है।
स्वाभिमान और सम्मान देने और लेने की कला उन्हें पता थी। नवनीत नगर में रास बिहारी जी इसीलिए बड़े ही सम्मान से देखें जाते थे। पढ़ाई करने के दरम्यान रास बिहारी को बहुत सारी समस्याएं उत्पन्न हुई परन्तु वह कभी नहीं घबराएं। बेटा रमण भी हर तरह से अपने बाबूजी के मेहनत का पूरा श्रेय देने में लगा रहा। एक ही प्रयास में बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर की परीक्षा पास कर ली।जब भी पढ़ाई लिखाई में खर्च की बात उठती वह घर में जमा अनाज को बेच देते और पढ़ाई करने के लिए रमण को पैसे भेजने में कोई देरी नहीं करते थे। आज आंगन में बैठी अपनी अम्मा को रोते बिलखते देख रमण स्तब्ध था। उनकी आंखें पथरा गई थी। बचपन से लेकर आज तक बाबूजी के संघर्ष की कहानियां उनके आंखों के सामने तैरने लगी थी।
तरह-तरह की मन में उठ रही आकांशाओं से घबराकर वह एक टक अपने बाबूजी को देखते हुए आने वाले कल के डर को भांप कर बहुत कमजोर होने लगा था।
मोहल्ले के हम उम्र के साथियों के द्वारा ढांढस बंधाया जा रहा था।
फिर भी आंखों की लहरें रूक नहीं पा रही थी।
भीड़भाड़ वाले इलाके से अब अर्थी लेकर निकलने का समय आ गया था। मोहल्ले के हर लोग रास बिहारी को देखने के लिए बेहाल थे।
स्थानीय नदी कोयल के तट पर रास बिहारी को अग्नि समर्पित करने की सारी तैयारियां रमण के मोहल्ले वाले, दोस्तों और रिश्तेदारों के द्वारा पूरी तरह कर ली गई थी। अब रास बिहारी जी को मुखाग्नि रमण को देनी थी। बार-बार बाबूजी के हर संघर्ष को याद करते हुए रमण सोच रहा था कि काश ईश्वर मेरे बाबूजी को एक बार फिर से ज़िंदा कर मुझे आशीर्वाद दे देते तो कितना अच्छा होता। यह बातें रमण के दिल और दिमाग में छाईं हुईं थीं कि पंडित जी ने मुखाग्नि के लिए हाथ में जले हुए लकड़ी पकड़ाई। आज घाट में भी रमण अपने बाबूजी के संघर्ष की गाथा नहीं भूल पाया था।
मुखाग्नि देने के पश्चात रमण निराश और घायल बच्चे की तरह निढाल होकर वहीं जमीन पर बैठ गया और दूदू कर जलती हुई अपने बाबूजी की चिता को देखने लगा।
(सुमन सागर)



