आनंदपुर साहिब से चमकौर साहिब तक की खूनी दास्तान

शहीदी सप्ताह पर विशेष

आनंदपुर साहिब जहां गुरु गोबिन्द सिंह जी ने अपने पिता गुरु त़ेग बहादुर जी के बसाये नगर चक्क नानकी के साथ लगते गांवों की ज़मीन खरीदकर आनंदपुर साहिब की नींव रखी। इस नगर के इर्द-गिर्द पांच किले बनाकर इसको विशाल और सुरक्षा के पक्ष से मज़बूत केन्द्र बनाया। इस कारण आनंदपुर साहिब सिखों के लिए धार्मिक, राजनीतिक और सैन्य केन्द्र बन गया। आनंदपुर साहिब से लेकर चमकौर सहिब तक की धरती पर चलते हुए सैंकड़ों ही सिख जुझारू शहीद हुए। यहां मिट्टी में उन शहीदों के खून पसीने के तुपके जज़्ब हुए हैं। सिख इतिहास के छोटे परन्तु सबसे अधिक खून भरे इन दो दिनों के दौरान सैंकड़ों की संख्या में सिखों ने शहादत दी। ये कुर्बानियां असूलों और शूरवीरों  की एक महान मिसाल है, जहां पिता ने अपने सुपुत्रों को अत्याचार के खिलाफ शहीद होते देखा। 
म़ुगल काल के प्रारम्भिक स्रोत साकी मुस्तैद खान की पुस्तक मुआसिर-ए-आलमगीरी और अ़खबारात-ए-दरबार-ए-मुअल्ला (रोज़नामचा) अनुसार अगस्त 1695 को लाहौर के गवर्नर मुकर्रम खान ने मुगल कमांडर दिलाबर खान के नेतृत्व में उसके पुत्र खानज़ादा को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा। यह आनंदपुर साहिब पर मुगल सेना का पहला हमला था, जिसमें गुरु जी ने खानज़ादा की सेना को बुरी तरह हरा कर वापिस भेज दिया। इससे पहले 20 मार्च 1691 को जम्मू के फौजदार मीयां खान ने पहाड़ी राज्यों से टैक्स की वसूली करने के लिए आल़िफ खान को पहाड़ों की ओर भेजा था। नादौन की लड़ाई में पहाड़ी राजाओं ने गुरु साहिब जी की अगुवाई में म़ुगल सेना को पहाड़ी इलाके से भगा दिया था। सन् 1696 को दिलाबर खान ने जरनैल हुसैन खान को एक मज़बूत और बड़ी सेना के साथ पहाड़ी रियासतों के राजाओं से टैक्स लेने और गुरु जी को सबक सिखाने के लिए भेजा। इस समय डढवालीया और कहिलूरिया रियासतों के राजाओं ने हुसैनी को बनता टैक्स देना मंज़ूर कर लिया और वे अपनी सेना सहित उसकी मुहिम में शामिल हो गये। गुलेर रियासत के राजा गोपाल चंद गुलेरिया ने हुसैन खान को टैक्स देने से साफ इन्कार कर दिया। राजा ने आनंदपुर साहिब आकर गुरु जी से सहायता मांगी। 19 फरवरी 1696 को सिखों के नेतृत्व में गुलेर की सेना ने पहाड़ी सेनाओं और म़ुगल सेनाओं को मैदान में से भागने के लिए मज़बूर कर दिया। इस लड़ाई में हुसैन खान मारा गया, जबकि सिखों में से भाई लहिनू, भाई संगत, भाई हनूंमत और भाई दरसो जैसे शहीद हो गये। इस लड़ाई के दो माह बाद लाहौर के गवर्नर ने 30 अप्रैल 1696 ई. को भलाण के मैदान में जुझार सिंह हांडा को 3000 सैनिक साथ देकर भेजा। इस लड़ाई में जुझार सिंह हांडा और दिलाबर खान का पुत्र खानज़ादा भी मारे गये। सितम्बर 1696 को औरंगज़ेब ने पहाड़ी राजाओं से टैक्स की भरपाई और पंजाब के इलाकों में शांति बहाल करने के लिए शहज़ादा मुअज्ज़म (बहादर शाह) को भेजा। इस मुहिम के दौरान मुअज्ज़म ने अपने गुप्तचरों से आनंदपुर साहिब की स्थिति के बारे में जानकारी ली और औरंगज़ेब को खबर भेजी कि सिखों द्वारा मुगल शासन के विरुद्ध ब़गावत करने का कोई इरादा नहीं है। कुछ समय के लिए आनंदपुर साहिब के आस-पास शांति का माहौल बना। इस समय गुरु गोबिन्द सिंह जी ने शांति का संदेश देते बाहरी लड़ाइयों की बजाय अंदरूनी मज़बूती और खालसे का निर्माण करने की ओर ध्यान दिया। 
गुरु साहिब ने 30 मार्च सन् 1699 को वैसाखी वाले दिन खालसा पंथ की स्थापना की। गुरु जी के समकालीन कवि सेनापति ने खालसा सृजन दिवस के बारे में ज़िक्र करते हुए लिखा है कि, 
संमत सत्रह सै बरस, बिते जबै छपंन। 
गुरु तब खालसा साजियो, प्रगट कीयो सुपंन 
बिसाखी परबु जाने कै, साजियो खासला एह।
इसका मुख्य उद्देश्य अत्याचार और बेइन्साफी के खिलाफ लड़ने के लिए संत और सिपाही वाले मनुष्य बना कर उनके अंदर निर्भऊ और निरवैर जैसे गुण पैदा करना था। आनंदपुर साहिब के निकटवर्ती पहाड़ी राजा और म़ुगल शासक मनुष्यों की बराबरी वाले इस सिद्धांत के विरुद्ध थे, जिस कारण अजमेर चंद कहिलूरिये ने आनंदपुर साहिब पर लगातार हमले करने शुरू कर दिये। सिख इतिहासकार डाक्टर हरजिन्द्र सिंह दिलगीर के महान कोश और भट्ट वहीयों के विवरण अनुसार 29 अगस्त, 1700 को अजमेर चंद की पहाड़ी सेना ने आनंदपुर साहिब से पांच किलोमीटर दूर किला तारागढ़ पर अचानक हमला कर दिया। इस समय साहिबज़ादा अजीत सिंह के नेतृत्व में सिख सेना ने पहाड़ी सेना के साथ डट कर मुकाबला किया। इस लड़ाई में भाई ईशर सिंह, भाई कल्याण सिंह और मंगत सिंह शहीद हो गये। पहाड़ी सेना ने अपनी हार के तुरंत बाद 30 अगस्त 1700 को किला फतेहगढ़ पर हमला किया, जिसमें भाई भगवान सिंह, भाई जवाहर सिंह और भाई नंद सिंह शहीद हो गये। तीसरे दिन 31 अगस्त को किला अगंमगढ़ की लड़ाई के दौरान भाई बाघ सिंह घरबारा शहीद हो गये। लगातार तीन दिन की हार के बाद राजा अजमेर चंद कहिलूरिये ने अपने मामा केसरी चंद जसवालिया के साथ मिल कर आनंदपुर साहिब के किला लोहगढ़ पर हमला करने की रणनीति तैयार की। इस किले में राम सिंह सिकलीगर ने लोहे के हथियार तैयार करने का कारखाना लगाया हुआ था। अजमेर चंद ने किले पर सेना के साथ लड़ाई करने की बजाये एक हाथी को शराब पिला कर भेजने का फैसला किया। भाई बचित्तर सिंह ने नागनी बरछे के साथ हाथी का मुकाबला करके उसको मैदान में से भागने के लिए मजबूर कर दिया और उनके दूसरे भाई उदय सिंह ने केसरी चंद जलवालिया को हरा दिया। इस लड़ाई के दौरान भाई कुशाल सिंह, भाई आलम सिंह और भाई दयाल सिंह शहीद हो गये। अजमेर चंद कहिलूरिये ने लगातार चार दिन आनंदपुर साहिब पर हमले किए लेकिन हार होने के उपरांत उसने गुरु जी से माफी मांग ली। अजमेर चंद ने अपने पंडित परमा नंद द्वारा गुरु जी को पत्र भेज कर निवेदन करते हुए कहा कि वह आनंदपुर साहिब को कुछ दिनों के लिए छोड़ जाएं जिस कारण पहाड़ी रियासतों में मेरी इज्ज्ज़त रह जाएगी। गुरु साहिबान ने इस इलाके की अमन शांति को देखते हुए पहली बार 4 अक्तूबर से लेकर 15 अक्तूबर 1700 तक आनंदपुर साहिब को छोड़कर कीरतपुर साहिब की पहाड़ी निरमोहगढ़ पर अपने सिखों सहित तम्बू लगा लिये। जबकि अजमेर चंद को इस बात का पता चला, तो उसने अपनी सेना लेकर निरमोहगढ़ की पहाड़ी को चारों तरफ से घेर लिया और सरहिंद के सूबेदार को खबर भेज दी। 8 अक्तूबर को इस पहाड़ी के मैदानी क्षेत्र मे हुई लड़ाई के दौरान भाई साहिब सिंह, भाई सूरत सिंह, भाई देवा सिंह, भाई अनूप सिंह, भाई सरूप सिंह और भाई माथुरा सिंह के अलावा दुनी चंद मसंद के भतीजे भाई अनूप सिंह और भाई सरूप सिंह शहीद हो गये। 13 अक्तूबर को सरहिंद से भेजे म़ुगल जनरैल रुस्तम खान और नासर अली खान ने एक ऊंची पहाड़डी पर आकर तोप के गोले के साथ गुरु जी को निशाना बनाने की कोशिश की। गुरु जी के एक ही तीर के निशाने ने रुस्तम खान को वहीं पर मार दिया और भाई उदय सिंह के तीर ने नासर अली खान की जान ले ली। इस दौरान तोप के गोले ने भाई राम सिंह कश्मीरी को शहीद कर दिया। इस लड़ाई में भाई हिम्मत सिंह राठौर और भाई मोहर सिंह भी शहीद हो गये। जब बसाली के राजा सलाही चंद को अजमेर चंद की इस बेईमानी का पता चला तो उसने गुरु जी को अपनी रियासत में आने का निवेदन किया। यह रियासत सतलुज दरिया पार करके नूरपुर बेदी की पहाड़ियों की ओर थी। गुरु साहिब ने निरमोहगढ़ की पहाड़ी से नीचे की ओर जब दरिया पार किया, तो अजमेर चंद की सेना ने एक बार फिर से हमला किया। इस समय हुई लड़ाई के दौरान भाई अजीत सिंह, भाई नेता सिंह और भाई केसरा सिंह शहीद हो गये। गुरु गोबिन्द सिंह साहिब जी के बसाली रहते हुए राजा सलाही चंद ने अजमेर चंद को समझा कर मामला हल करवा दिया। 30 अक्तूबर 1700 ई. को गुरु साहिब दोबारा आनंदपुर साहिब आ गये। 
करीब चार साल बाद 30 जनवरी 1704 को अजमेर चंद कहिलूरिये ने अपने साथी राजाओं गोपाल चंद हंडूरिया, चंबे का राजा उदय सिंह और फतेहपुर के राजा देव सरन के साथ मिलकर एक बार फिर से आनंदपुर साहिब पर हमला करने की कोशिश की। इस लड़ाई के दौरान भाई हेम सिंह और भाई काहन सिंह राठौर शहीद हो गये। 29 मार्च 1705 को गुरु साहिब को गुप्तचरों से से सूचना मिली कि पहाड़ी राजा मुगल हकूमत के साथ मिल कर आनंदपुर साहिब को चारों तरफ से घेरा डालने की योजना बना रहे हैं। गुरु जी ने परिवार के सभी सिखों को आनंदपुर साहिब से जाने के लिए आदेश दिया। 3 मई 1705 ई. को अजमेर चंद ने हंडूर की सेना, गुज्जरों, रंगड़ों और सरहिंद की मुगल सेना की सहायता के साथ आनंदपुर साहिब को घेरा डाल लिया। यह घेरा सात माह के करीब रहा। अंतत: 4 दिसम्बर 1705 को समाना का रहने वाला शाही काज़ी सय्यद अली हसन आनंदपुर साहिब में कुरॉन शऱीफ की जिल्द पर रखा औरंगज़ेब का पत्र लेकर आया। इस पत्र पर लिखा था कि गुरु जी सिखों सहित आनंदपुर साहिब को छोड़कर कांगड़ की ओर आ जाएं, जहां हालातों पर विचार किया जाएगा। आनंदपुर साहिब में भुखे-प्यासे और मुगल सेना से भयभीत किसी भी सिख ने कोई बेदावा नहीं लिखा, बल्कि सभी सिख गुरु जी पर अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए तैयार थे।
शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, अमृतसर द्वारा किला आनंदपुर साहिब सामने लगाए सूचना बोर्ड अनुसार गुरु जी ने अपने परिवार और सिखों सहित 5 और 6 दिसम्बर की बीच की रात को आनंदपुर साहिब हमेशा के लिए छोड़ दिया। इस समय गुरु जी के साथ उनके पारिवारिक सदस्यों के अलावा 500 के करीब (कुछ स्रोत 1000) सिंह थे। सारा समूह अभी कीरतपुर साहिब से रोपड़ की तरफ जा ही रहा था कि शाही टिब्बी की चौकी पर तैनात सैन्य टुकड़ी ने हमला कर दिया। ऐतिहासिक भूगौलिक प्रसंग के अनुसार यह ऊंची पहाड़ी सतलुज के किनारे और मैदानी इलाके से पहाड़ी इलाके की तरफ जाने के मुख्य मार्ग पर स्थित होने के कारण रणनीतिक चौकी के तौर पर बहुत महत्वपूर्ण थी। गुरु साहिब ने 50 सिख सैनिकों सहित भाई उदय सिंह को पहाड़ी सेना का रास्ता रोकने के लिए जिम्मेदारी सौंपी। इस चौकी में मौजूद और आनंदपुर साहिब की तरफ से आई पहाड़ी सेना के साथ युद्ध करते हुए जत्थे के 50 सिखों भाई उदय सिंह शहीद हो गये। भाई उदय सिंह का चेहरा गुरु साहिब के साथ मिलता होने के कारण अजमेर चंद ने उनको गुरु साहिब समझ लिया। उसने शीश कटवाकर रोपड़ के नवाब को भेज दिया और शोर डाल दिया कि हमने सिखों का गुरु मार दिया है। दूसरी तरफ सिरसा नदी के किनारे भाई जीवन सिंह (जैता) और बीबी भिक्खां ने 100 सिखों के साथ आनंदपुर साहिब की तरफ से आने वाली पहाड़ी सेना को रोकने के लिए मोर्चा लगा लिया और भाई बचित्तर सिंह ने अपने जत्थे के 100 सिखों सहित रोपड़ की तरफ से आने वाली सरहिंद की सेना को रोकने के लिए मोर्चा संभाल लिया। इस समय मची अफरा-तफरी और मार-काट के समय सभी गुट एक-दूसरे से अलग हो गये। गुरु साहिब जी के छोटे साहिबजादे और माता गुजरी जी चमकौर साहिब से होते हुए सहेड़ी की तरफ चले गये। आनंदपुर साहिब से चल कर आये वहीर में से गुरु साहिब के परिवार सहित 48 सिंह ही बाकी बचे थे और अन्य सभी शहीद हो चुके थे। गुरु साहिब सिरसा नदी से होते हुए कोटला निहंग खान के किले में सुबह से लेकर शाम तक रहे। यहां से ही साहिबज़ादा अजीत सिंह मलकपुर गांव की लड़ाई दौरान घायलावस्था में भाई बचितर सिंह को लेकर आये थे। कोटला निहंग खान की सुपुत्री बीबी मुमताज़ ने भाई बचित्तर सिंह की बहुत सेवा की परन्तु घाव ज्यादा होने के कारण वह बच न सके। गुरु गोबिन्द सिंह जी कोटला निहंग से सिखों सहित चल कर 7 दिसम्बर 1705 की सुबह श्री चमकौर साहिब में भाई बुद्धि चंद रावत की गढ़ी में आ गये। यहां हुए भयानक और असंतुलित युद्ध में सिखों ने बहादुरी की मिसाल पेश की। गुरु साहिब ने पांच-पांच सिखों के जत्थे बनाकर गढ़ी से बाहर भेजे, ताकि दुश्मन की सेना को भ्रम रहे कि अंदर बहुत बड़ी सेना है। 
शाम तक चली इस लड़ाई के दौरान गुरु जी के दो साहिबज़ादे बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह सहित 38 सिंह शहीद हो चुके थे। अब रात के समय गुरु जी के साथ गढ़ी में दो प्यारों सहित पांच सिंह रह गये थे। इन सिखों ने पंच प्रधानी खालसा के सिद्धांत के अनुसार गुरु जी को आदेश किया कि वह अपने-आप को बचा कर गढ़ी में से निकल जाएं, ताकि खालसा पंथ का नेतृत्व जारी रखा जा सके। गुरु जी खालसा के आदेश को मानते हुए पांच सिखों सहित गढ़ी को छोड़ कर माछीवाड़ा की तरफ चले गये। 8 दिसम्बर की सुबह को भाई संत सिंह बंगेशरी और भाई संगत सिंह अरोड़ा ने मुगलों के साथ लड़ते हुए शहीदी प्राप्त की। चमकौर साहिब की लड़ाई दुनिया के इतिहास की बेमिसाल लड़ाई है जहां मुट्ठी भर सिखों ने लाखों की सेना के साथ मुकाबला किया।

-गांव रसूलपुर, डा, मोरिंडा, ज़िला रूपनगर
मो. 9417370699

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