राजद के सामने अस्तित्व का संकट

लालू यादव एक बार फिर जेल में हैं। सजा पाकर पहली बार वे 2013 में जेल गए थे। उसके बाद उनके राजनीतिक कैरियर के साथ-साथ उनके राष्ट्रीय जनता दल के भविष्य पर सवाल खड़ा कर दिया था। पर कुछ दिनों के बाद वे जमानत पर जेल से बाहर आ गए थे। वे खुद तो चुनाव लड़ नहीं सकते थे, लेकिन अपनी पार्टी का नेतृत्व करने में वे सक्षम थे और 2014 का चुनाव उनके दल ने उनके नेतृत्व में ही लड़ा। पर वे बुरी तरह चुनाव हार गए। उनकी बेटी भी चुनाव हारी और उनकी पत्नी भी। लगने लगा कि उनकी राजनीतिक मौत हो चुकी है। पर हार के बावजूद उनके पास 20 फीसदी से ज्यादा मतों का एक बैंक था और उसे भुनाकर उन्होंने 2015 के विधानसभा चुनाव में नितीश से गठबंधन कर न केवल अपनी राजनीति बचा ली, बल्कि नितीश कुमार को भी मुख्यमंत्री बनवा डाला। इस तरह उन्होंने अपनी राजनीतिक मौत को टाल दिया।अब एक बार फिर लालू यादव जेल में हैं। इस बार चारा घोटाले के एक दूसरे मामले में वे सजा पाकर जेल में हैं। कानूनविदों की मानें, तो उन्हें इस बार जमानत मिलना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि जिस व्यक्ति को बार- बार सजा सुनाई जाती है, वह कानून की नजरों में आदतन अपराधी मान लिया जाता है और उसे जमानत न देने का वह एक बड़ा आधार बन जाता है। लालू की समस्या यहीं तक सीमित नहीं है। उनके खिलाफ  चारा घोटाले के चार अन्य मामले भी चल रहे हैं। तीन मामले रांची की अदालतों में हैं, तो एक मामला पटना की अदालत में भी है। रांची में चल रहे दो मामलों की सुनवाई करीब-करीब पूरी हो चुकी है और इसी महीने या अगले महीने के शुरुआती दिनों में फैसले आने वाले हैं। चूंकि उन मामलों में भी सबूत और तर्क वही हैं, जो पहले के दो मामलों के थे। इसलिए कानून जानने वाले लोगों का मानना है कि उन दोनों मामलों में उनको सजा होगी। तीसरे मामले में आधा से ज्यादा सुनवाई हो चुकी है। उसमें फैसला अप्रैल महीने में या उससे पहले ही आ सकता है। पटना में चल रहे मामले का फैसला भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण अप्रैल या मई महीने में आ जाएगा। और उम्मीद है कि सभी मुकदमों में उनको सजा होगी, क्योंकि साजिश के लिए जो सबूत है, वह सभी मामलों में एक ही है। वह सबूत उनके द्वारा पेश किया गया बजट है, जिसमें घोटाले की राशि को दबा दिया गया था और इसके अलावा घोटाले में संलग्न पशुपालन विभाग के निदेशक को गलत तरीके से उनके द्वारा दिया गया सेवा विस्तार है। जाहिर है, लालू को शेष मुकदमे में भी सजा मिलने की पूरी-पूरी संभावना है और उन सब में उन्हें अलग-अलग जमानत के लिए आवेदन करना होगा। अव्वल तो उन्हें जमानत मिलना आसान नहीं है और यदि वह मिलती भी है जो जेल से निकलते-निकलते उन्हें काफी समय लग जाएगा। अब सवाल उठता है कि क्या उनकी अनुपस्थिति में उनका दल एक रह पाएगा। यदि एक रह भी गया, तो क्या दल की ताकत पहले जैसी रह पाएगी? जहां तक दल की एकता की बात है, तो फि लहाल इस पर कोई खतरा नहीं दिखाई दे रहा है। राबड़ी देवी अभी भी सांकेतिक तौर पर सबका नेतृत्व कर रही हैं और लालू ने अपने दोनों बेटों को अपना राजनीतिक वारिस घोषित कर रखा है। दोनों बेटों के बीच संघर्ष नहीं हो, इसके लिए उन्होंने दोनों को समझा रखा है कि बड़ा वाला कृष्ण की भूमिका में रहेगा, तो छोटा वाला अर्जुन की भूमिका में। वैसे वह अपनी राजनीतिक विरासत अपने छोटे बेटे को सौंपना चाहते हैं।दल लालू यादव पर इतना निर्भर है कि इसमें किसी प्रकार के विभाजन के बारे में सोचना भी गलत है। यदि किसी ने विद्रोह किया, तो यह उसका निजी मामला होगा और वह दल से बाहर हो जाएगा, लेकिन इससे दल को कोई नुकसान नहीं होना है। वास्तविक विभाजन तभी हो सकता है, जब लालू के दोनों बेटे दो खेमे में चले जाएं। लेकिन राबड़ी देवी की उपस्थिति शायद वैसा होने नहीं देगी और खुद लालू यादव ने भी अपने बेटों को कुछ ऐसा तैयार कर दिया है कि वे एक दूसरे के साथ तालमेल बनाकर ही चलना चाहेंगे। लेकिन असली चुनौती जमीनी स्तर से ही आएगी। लालू यादव के रहते दल जमीनी स्तर पर बहुत कमजोर हो चुका है। 2005 और उसके बाद हुए 2014 तक के सारे चुनावों में लालू की पार्टी का जनाधार खिसकता हुआ दिखाई दिया। 2010 के चुनाव में तो राजद को मात्र 23 सीटें ही मिलीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में 4 सीटों पर जीत मिली। यदि 2015 के विधानसभा का चुनाव उनका दल अकेले लड़ता तो शायद 20 से भी कम सीटें मिलती। 
राजद अब दो ही समुदायों का वोट मुख्यतौर पर पाता है। वे समुदाय हैं यादव और मुस्लिम। इन दोनों के बाहर लालू की स्वीकार्यता लगभग समाप्त हो चुकी है। अगड़ी जातियों के लोग तो उनसे पहले से ही नाराज थे। गैर यादव ओबीसी उनसे इसलिए नाराज हो गए, क्योंकि लालू ने सरकार में सिर्फ  अपनी जाति और मुस्लिम समुदाय के लोगों को ही तवज्जो दी। दलित मतदाता मायावती, रामविलास पासवान और सीपीआई (माले) को पसंद करते हैं। लालू से उनकी शिकायत वही है जो गैर यादव ओबीसी मतदाताओं की है।
सवाल उठता है कि जब खुद लालू अपना जनाधार मुस्लिम और यादव समुदाय से बाहर फैलाने में सफ ल नहीं हो पा रहे हैं, तो उनके बेटे कैसे सफ ल हो पाएंगे? लालू की स्थिति इस समय भले खराब हो, लेकिन एक समय था कि सभी पिछड़े और दलित उनको अपना मसीहा समझते थे। लालू ने उनके लिए क्या क्या किया, यह सही या गलत बताया जा सकता है, लेकिन उनके बेटों के योगदान के बारे में राजद के लोग क्या बताएंगे? जाहिर है, लालू के नेतृत्व से विहीन राजद के सामने आज अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है। उनके बेटों के खिलाफ  भी गंभीर अपराध के मामले में जांच चल रही है। यदि वे उनमें फंसते हैं, तब तो राजद पूरी तरह नेतृत्वहीन हो जाएगा और फिर इसका अस्तित्व बचना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। (संवाद)