जुमलों का युद्ध


उन्होंने कहा, ‘वह मुझे बहस नहीं करने देते।’ संसद में बहस करना चाहता हूं तो उसे बाधित करवा देते हैं। सत्र के बाद सत्र गुजर जाते हैं। बहस नहीं होती। होता है तो केवल हल्ला-गुल्ला। मेज़ें थपथपाई जाती हैं। कागज़ फाड़ कर एक-दूसरे पर या स्पीकर महोदया की ओर फेंके जाते हैं। चन्द भद्र नेता उग्र हो जाते हैं, सदन के कुएं में जाकर प्रदर्शन के नाम पर तानाकशी करते हैं, बाद में वह गाली-गलौच में बदल जाती है। यह जनता का कीमती समय है। एक मिनट कम से कम अढ़ाई लाख रुपए का। एक मिनट नहीं पूरा सत्र कोलाहल के बट्टे खाते में डाल दिया जाता है, किसी ने नहीं सोचा कि जनता के गाड़े पसीने की कुल कमाई नष्ट हो गई?
अजी नष्ट न होती तो गरीबों की बस्तियों में इससे कितने स्कूल खुल जाते। भूखे पेटों के लिए न जाने कितना राशन बंटता। लेकिन स्कूल खोलने की चिन्ता किसे है? इनमें पढ़ना ही कौन चाहता है? जो पढ़ लेता है, वही क्या आसमान में थिगली लगा लेता है। अखबारें बोलती हैं एक चपड़ासी की नौकरी के लिए आजकल हज़ारों एम.ए., बी.ए. कतार लगा देते हैं। नौकरी फिर भी पहुंच के बिस्तर से उठकर आये साहिब के भाई-भतीजों को मिलती है। शेष रद्द हो गये लोग चिल्ला-चिल्ला कर कहते हैं, ‘अरे हमारी हालत पर तरस नहीं खाना, तो इस पर कम से कम बहस ही कर लो। बहस नहीं तो कम से कम चिन्ता कर लो। हुज़ूर आपने तो जनाब अकबर इलाहाबादी साहिब को भी झुठला दिया। उन्होंने कहा था, ‘हाकिमों को बहुत चिन्ता है, अपना डिनर खाने के बाद।’
लीजिये साहिब! ऐसा तो हुआ नहीं। हाकिमों ने अपना डिनर खा लिया, लेकिन देश के करोड़ों भूखे नंगों की चिन्ता ही नहीं की। अपना सांसद या विधायक होने का वेतन बढ़वा लिया। अपने लिये पैन्शन भी लगवा ली, लेकिन हमारी तो लगी लगाई पैंशन कटवा दी। उसका कॉरपस फंड बना कर शेयर मार्किट के रहमो-करम पर छोड़ दिया। कभी सर्वोच्च न्यायालय ने मज़दूर संगठनों को फरमाया था, ‘पैन्शन कोई खैरात नहीं, आपका अधिकार है। आपने उम्र भर जो मेहनत की उसका स्थगित भुगतान है।’
हाकिम बोले, ‘अजी हमने आपका अधिकार कहां नकारा। केवल उसका भुगतान करने का तरीका बदल दिया।’ पहले यह सरकारी खजाने से आता था, अब यह निजी निवेशक के व्यवसायिक उतार-चढ़ाव से पैदा होगा। या फिर अधिकतर या सैस के रूप में सामाजिक कोष में योगदान करो, तभी बेचारे वंचितों को पैंशन अदा करें। तुम कर नहीं दोगे, तो उनकी पैंशन रुक जायेगी। आखिरी अपनी जेब कटवाओ तो किसी गरीब की फटी हुई जेब सिले। लेकिन वह जेब तो फिर भी सिल नहीं पाई। ‘कैग’ साहिब ने फरमाया, सवाल गन्दम जबाव चना। अर्थात् जाते थे जापान पहुंच गये चीन समझ गये न। सैस इकट्ठा हुआ गरीब के संरक्षण के लिए, उसे लगा दिया सरकारी नेताओं के बंगलों की मुरम्मत या उनकी नई गाड़ियां खरीदने वास्ते। कहीं की ईंट किसी और चौबारे में जा लगी, भानुमती ने कुनबा तो जोड़ लिया, लेकिन गरीब कहता रहा, न हमें ईंट मिली न रोड़ा।
किसान बोला, हमारी फसल खरीद के भुगतान के लिए इक्तीस हज़ार करोड़ रुपया का अनुदान आया। कज़र्ा बन कर हमारे गले से लटक गया, लेकिन पैसा किसी मद पर खर्च हो गया, ‘कैग’ महोदय पता कर रहे हैं। लेकिन इतना पक्का है कि यह खर्च कहीं न कहीं सरकारी मशीनरी को तेल देने में ही खर्च हुआ होगा। अब इसकी परवाह कीजिये, और हमारा कज़र् माफ कर दीजिये।
लेकिन जनता पूछती है, कज़र् केवल इक्तीस हज़ार करोड़ का नहीं, दो लाख करोड़ से ऊपर है। यहां केवल धरती पुत्र ही 80,000 करोड़ रुपए का कज़र्दार हो गया। आप उसे फिलहाल 1500 करोड़ रुपए के भुगतान से बहलाना चाहते हैं। लेकिन इसकी कज़र् माफी की चिट्ठियां भी अभी लालफीताशाही की भेंट चढ़ रही हैं। हां, कज़र्दारों ने फिलहाल सहकारी बैंकों को अपनी कज़र् माफी की किस्तें चुकानी बन्द कर दी। उसके खाते मृत होते चले गये, बैंकों के ढांचे धराशायी हो रहे हैं।
जनता पूछती है यह कैसा डिज़ीटल इंडिया? यह कैसा महाजनी सभ्यता से छुटकारा? लेकिन ये सवाल शून्य मेें उभरती चीखों से अधिक रुतबा नहीं पाते। क्योंकि उनके सांसदों और विधायकों ने सदन के प्रश्नकाल में ऐसे प्रश्न पूछने पर कीमत टैग लगा दिये हैं। जब ऐसे घपले बेनकाब होने लगे, तो पूरे के पूरे प्रश्नकाल ही शोर-शराबे के दरिया में बहा दिया गया।देखो, अब पन्द्रह मिनट बहस करने की चुनौतियां दी जा रही हैं। प्रधानमंत्री कहते हैं मुझे संसद में बोलने नहीं देते, इसलिए मैं जनता की अदालत में बोलता हूं। नेता विपक्ष कहता है यह पन्द्रह मिनट वहां खड़ा होकर हमारे सवालों का जवाब नहीं दे सकता।
उत्तर में जवाब नहीं शर्त मिलती है, तुम पन्द्रह मिनट लिखा पढ़े बिना बोल के दिखाओ तो हम मानें? जनता की चिन्ता यह नहीं कि आप लिखा पढ़ कर या बिना पढ़े जुमले फेंकते हैं या नहीं। उन्हें तो चिन्ता है कि उन्हें जुमलों के युद्ध की जगह रोटी कब मिलेगी? रोज़गार की उम्मीद कब पूरी होगी? जुमलों के युद्ध में ऐसे सवालों के जवाब नहीं होते क्या?