जुमलों के पुल


एक हिन्दुस्तान उनका है और एक हमारा। उस हिन्दुस्तान में भव्य अट्टालिकायें हैं, बहुमूल्य बहु-मंज़िली इमारतें हैं, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं, और दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ते अरबपतियों की संख्या है।
हमारे हिन्दुस्तान को सत्ता के प्राचीर पर बैठे मुट्ठी भर लोग बताते हैं कि यह उनकी कृपा से लगभग पौन सदी पहले आज़ाद हुआ था। आज़ादी का अर्थ था ‘कायाकल्प, परिवर्तन और रंग बदलती क्रांतियां।’ रंग हरा हुआ, तो कहा तेरे खेतों की हरियावल लौटायी, सफेद क्रांति दूध अंडे की क्रांति थी, जो डेयरी फार्मों से उठी थी, इसके बाद नीली क्रांति का रंग पोखरों से उछला और हमें कहा गया ‘यहां मछलियां पाल-बेच अपना जीवन सफल करो।’ ये रंग है रंगों का क्या? ये भाषणों के पंखों पर तैरते हुए उभरते हैं, फिर मंद पड़ के मिट जाते हैं। बाकी रह जाते हैं असर होते खेत, धरती के नीचे धंसता जल स्तर और डेयरी फार्मों के उखड़े हुए ढांचे और उखड़े हुए पोखर। अब उनके परेशान हाल क्रांति दूत अपनी क्रांतियों का मातम मनाते हुए निरन्तर फंदा ले जीवनलीला समाप्त करते नज़र आते हैं। सरकारी आंकड़े इन मौतों की खोज खबर लेने निकलते हैं तो कहते हैं ‘अपच से मर गया, नशे से मरा, मुकद्दमेबाज़ी में मरा।’
लेकिन कोई नहीं बताता यह अपच अधिक खाने की वजह से नहीं, बल्कि घटिया और सस्ता मुफ्त राशन निगलने की वजह से था, मुकद्दमा अपना हक पाने के लिए थे, जिनकी सुनवाई बरसों से टल रही थी और नशे का अंधकार उन्होंने तब गले लगाया जब रोजी, रोटी और छत मिलने का एहसान भी इस पौन सदी में उन्हें न हुआ। ये आदमी ऐसी ज़िन्दगी हज़म न कर सका और अपच से मर गया। अब इनकी लापता लाशें अपनी पहचान मांगती हैं, अपने बाकी बचे परिवार के लिए इस कल्याणकारी राष्ट्र से मुआवज़ा मांगती हैं। वह मुआवज़ा जो उनके लिए वोट बटोरने के लिए घोषित होता है, लेकिन कभी मिलता नहीं।
क्योंकि जिन्होंने इसे बांटना है वह दूसरे भारत में रहते हैं। आयातित गाड़ियों वाला भारत, डिस्को क्लबों वाला भारत, फैशन शो वाला भारत और उस साहित्य और संस्कृति की गरिमा बखानता भारत, जो कभी उनके पुरुखों ने लिखा था, या वह संस्कृति जो उनकी वंशावली ने सजायी थी। इस भारत से हमारे भारत तक जिसे ‘आम आदमी का भारत’ कहा जाता है, उन्होंने जुमलों का पुल बना रखा है। इस पुल से बगूलों की तरह तैर कर कभी ‘अच्छे दिन आने’ का सन्देश आता है। यह बरसों से महानगर के फुटपाथों से लेकर गंदी बस्तियों तक में घिसट-घिसट कर अपना जीवन जीते हुए लाखों लोगों तक पहुंचता है, उन्हें इन जुमलेबाज़ नेताओं की शोभा यात्रा में शरीक कर जयघोष बना देता है।
यह नेता कभी रिटायर नहीं होते। यहां रिटायर महसूस करता है तो वह झुर्रियों से भरा चेहरा लिए असमय बूढ़ा हो गया नौजवान, जिसके बरसों रोज़गार दफ्तरों के बाहर एड़ियां रगड़ते गुज़र गये, और उसका बेरोज़गारी भत्ता तक राजनीतिक दलों का वह चुनाव एजेंडा बन गया, जिसकी नियति केवल घोषणा एक रही। उसके या सामाजिक सुरक्षा के किसी और लच्छेदार सपने को साकार करने के लिए सामाजिक सुरक्षा कोष बनाने के नाम पर यहां सरचार्ज लगते हैं, लेकिन वह राजस्व सरकार का खाली खज़ाना लील जाता है, जिसकी गठरी में इतने चोर लगे रहते हैं कि खाली रहना ही उसका भाग्य बन जाता है।
उनका भारत चमकदार भारत है, जहां देश उदय हो गया, आर्थिक विकास दर कुलांचे भर कर दौड़ भागी, और जा कर भव्य प्रासादों के प्रांगण में बैठ गई। एक महान नेता ने फरमाया कि देश दस प्रतिशत आर्थिक विकास दर प्राप्त करेगा और स्वत; स्फूर्त हो जाएगा। देखो, अंतर्राष्ट्रीय सूचाकांक भी कहते हैं कि यहां व्यापार करने की सुविधा बढ़ गई, और विदेश निवेशकों में देश की साख बड़ी है। लेकिन यह साख केवल निवेश करने के मौखिक समझौतों तक सीमित रहती है। कभी धरती पर नहीं उतरती।
उधर आसमान से वायदों की परियां नृत्य करती हैं। देश से काले धन और भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए नोटबंदी का आर्थिक प्रहार बनती हैं। जो बैंकों के खाते में जमा हो कर काले से सफेद हो गया, वहा क्या उपलब्धियां नहीं। नेता फिर बोले देश डिज़िटल युद्ध लड़ेगा, भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए, और तब रिकार्ड स्तर पर खेले गये जन-धन खाते खाली हो कर बैंकिंग व्यवस्था पर बोझ बन जाते हैं।
लो चुनावी वयार बहने लगी। अब जिस ओर से गुज़रेगी वहां प्रधान सेवक हज़ारों करोड़ की नई विकास योजनाओं की घोषणा करेंगे। लेकिन पिछले विकास अभियान का क्या नतीज़ा निकला? यह उन लोगों को कोई नहीं बताता जिनके मनरेगा कार्ड पर जाली मध्यजन अपनी दिहाड़ी उगाह गया। क्या उन्हें अभी भी वह अनुपस्थित मत बने रहना है, जो उनकी जगह कोई चुनावी दलाल वोटिंग मशीन पर उंगली रख दे गया। हम इन उंगलियों के पीछे लम्बे हाथों और लम्बी ज़ुबान की तलाश करते हैं, लेकिन वह नहीं मिलती, क्योंकि वे किसी नई चुनाव रैली में व्यस्त हैं।