किसान की आमदनी बढ़ाने की सार्थक पहल 

राजग सरकार ने चार साल की लंबी प्रतीक्षा के बाद आखिरकार किसानों की सुध ले ली है। आने वाली ़़खरीफ की 14 फसलों की लागत का कम से कम डेढ़ गुना दाम दिलाने की सरकार पहल कर रही है। भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के चुनावी घोषणा-पत्र में यह वादा किया भी था। इसे पूरा करना इसलिए ज़रूरी हो गया था, क्योंकि अक्तूबर-नवम्बर में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव और इसके ठीक चार माह बाद मई 2019 में आम चुनाव होने हैं। हालांकि कुछ ़खरीफ फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य पहले से ही लागत मूल्य का डेढ़ गुना है। लेकिन धान, रागी और मूंग आदि का समर्थन मूल्य लागत की डेढ़ गुनी कीमत से कम है। इन फसलों के उत्पादक किसानों को इस मूल्य वृद्धि से सबसे अधिक लाभ होगा। एमएसपी में न्यूनतम 3.7 प्रतिशत और अधिकतम 52.5 फीसदी तक की बढ़ोत्तरी की गई है। इससे सरकारी खज़ाने पर 33000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त भार बढ़ेगा। इस नए मूल्य निर्धारण से धान की खरीद पर ही 15000 करोड़ रुपए के अतिरिक्त बोझ की उम्मीद है। किसानों की आमदनी में यह बढ़ोतरी व्यापक रूप से देशहित में है। क्योंकि इस घोषणा के सामने आने के साथ ही शेयर बाजार में उछाल आया है। सेंसेक्स 267 अंक उछला तो निफ्टी 10,750 के पार चला गया। दरअसल किसान की आमदनी बढ़ने से चौतरफा लाभ होता है। फसलों के प्रसंस्करण से लेकर कृषि उपकरण और खाद-बीज के कारखानों की गतिशीलता किसान की आय पर ही निर्भर है। मंडियों में आढ़त, अनाज के भरा-भर्ती और यातायात से जुड़े व्यापरियों को भी जीवनदान किसान की उपज से ही मिलता है।          
सरकार ने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1550 रुपए से बढ़ाकर 1750 रुपए प्रति क्ंिवटल कर दिया है। रागी का मूल्य करीब 1000 हज़ार रुपए बढ़ाकर 1900 रुपए से 2897 रुपए, मक्के का 1425 रुपए बढ़ाकर 1700 रुपए किया है। मूंग की कीमत में बड़ी वृद्धि करते हुए 4650 रुपए से 6975 रुपए प्रति क्ंिवटल किया है। यह वृद्धि 2325 रुपए प्रति क्ंिवटल है। इसी तरह तुअर में 2243 रुपए प्रति क्ंिवटल समर्थन मूल्य बढ़ाया गया है। उड़द में 200, बाजरे में 525, ज्वार में 811, मूंगफली में 1630, सूरजमुखी में 1792, सोयाबीन में 1133, तिल में 2083 और रामतिल में 1959 रुपए प्रति क्ंिवटल की वृद्धि की गई है। मध्यम रेशे की कपास में समर्थन मूल्य 4020 रुपए से बढ़ाकर 5150 रुपए और लंबे रेशे के कपास का मूल्य अब 5450 रुपए प्रति क्ंिवटल होगा। कई फसलों के मूल्यों में ये वृद्धियां 50 फीसदी से भी अधिक हैं। तुअर, मूंग, और उड़द में वृद्धि करने से भविष्य में सरकार को दालें आयात करने से निजात मिल सकती है। इन फसलों की पैदावार में समय ज्यादा लगने के कारण किसान इस उपज से पीछा छुड़ाने में लग गया था। नतीजतन सरकार को अफ्रीकी देशों से बड़ी मात्रा में दालों के आयात के लिए मजबूर होना पड़ रहा था। गोया, देश इन दालों के उत्पादन में न केवल आत्म-निर्भर होगा, बल्कि कल का किसान भी आर्थिक रूप से सक्षम होने की दिशा में कदम बढ़ा देगा। हालांकि ये घोषणाएं खेतों में बुवाई शुरू होने के एक माह पहले की गई होती तो किसान समर्थन मूल्य वृद्धि के हिसाब से फसलें बोता। बावजूद मोदी सरकार की यह पहल वंदनीय है। किसान, गरीब और वंचित तबकों की हैसियत बढ़ाने की दृष्टि से आवास और उज्ज्वला योजनाओं के बाद यह तीसरी बड़ी पहल है। हालांकि इसके पहले पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के गन्ना किसानों को बड़ी राहत देते हुए 8,500 करोड़ का पैकेज दिया है। फसल बीमा योजना और भूमि स्वास्थ्य कार्ड भी इसी कड़ी के हिस्सा रहे हैं। बीते चार आम बजटों में भी कई सिंचाई योजनाओं को मंजूर किया गया है, जिससे वर्षा पर निर्भरता कम हो। गरीबी रेखा से नीचे जीने वालों को बीमार होने पर पांच लाख रुपए तक की आर्थिक मदद के अहम् प्रावधान किए गए हैं। मोदी सरकार के ये ऐसे काम हैं, जिन पर यदि उचित व ईमानदारी से क्रियान्वयन होता है तो किसान और गरीब मज़दूर का कल्याण तो होगा ही, 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मोदी सरकार की वापसी हो सकती है। इन योजनाओं के वजूद में आ जाने से कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों द्वारा मोदी सरकार को किसान विरोधी सरकार साबित करने के प्रयास किए जा रहे थे, उनको भी पलीता लगना तय है। राहुल गांधी अक्सर किसानों के मुद्दे पर ही मोदी को कठघरे में खड़ा करते रहे हैं। किंतु अब समर्थन मूल्यों में जो दोगुनी वृद्धि कर दी गई है, उससे विपक्ष की बोलती बंद होना तय है।   यह मूल्य वृद्धियां की जाना इसलिए जरूरी थीं, क्योंकि अतिवृष्टि और अनावृष्टि जैसे प्राकृतिक प्रकोपों के बावजूद देश में कृषि उत्पादन चरम पर है। सरकार द्वारा पेश आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2016-17 में करीब 275 मिलियन टन खाद्यान्न और करीब 300 मिलियन टन फलों व सब्ज़ियों का रिकॉर्ड उत्पादन हुआ है। बावजूद किसान सड़कों पर उपज फेंकते हुए आंदोलित थे और आत्महत्या भी कर रहे थे, लिहाजा किसी भी संवेदनशील सरकार के लिए किसान चिंतनीय पहलू होना चाहिए था। गोया, इसकी पृष्ठभूमि 2018-19 के आम बजट में ही रख दी गई थी। हालांकि  कृषि, किसान और गरीब को सर्वोच्च प्राथमिकता देना सरकार की कृपा नहीं बल्कि दायित्व है, क्योंकि देश की आबादी की आजीविका और कृषि आधारित उद्योग अंतत: किसान द्वारा खून-पसीने से उगाई फसल से ही गतिमान रहते हैं। यदि ग्रामीण भारत पर फोकस नहीं किया गया होता तो जिस आर्थिक विकास दर को 7 से 7.8 प्रतिशत तक ले जाने की उम्मीद जताई जा रही है, वह संभव ही नहीं थी। इस समय पूरे देश में ग्रामों से मांग की कमी दर्ज की गई है। नि:संदेह गांव और कृषि क्षेत्र से जुड़ी जिन योजनाओं की श्रृंखला को ज़मीन पर उतारने के लिए 14.3 लाख करोड़ रुपए का बजट प्रावधान किया गया था, उसका उपयोग अब सार्थक रूप में होते लग रहा है। ऐसे ही उपायों से किसान की आय सही मायनों में 2022 तक दोगुनी हो पाएगी। इस हेतु अभी फसलों का उत्पादन बढ़ाने, कृषि की लागत कम करने, खाद्य प्रसंस्करण और कृषि आधारित वस्तुओं का निर्यात बढ़ाने की भी जरूरत है। केंद्र सरकार फिलहाल एमएसपी तय करने के तरीके में ‘ए-2’ फार्मूला अपनाती रही है। यानी फसल उपजाने की लागत में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम का मूल्य जोड़ा जाता है। इसके अनुसार जो लागत बैठती है, उसमें 50 फीसदी धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य तय कर दिया जाता है। जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है कि इस उत्पादन लागत में कृषि भूमि का किराया भी जोड़ा जाए। इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली 50 प्रतिशत धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। फसल का अंतर्राष्ट्रीय भाव तय करने का मानक भी यही है। यदि भविष्य में ये मानक तय कर दिए जाते हैं तो किसान की खुशहाली और बढ़ जाएगी। एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय आयोग ने भी वर्र्ष 2006 में यही युक्ति सुझाई थी। समर्थन मूल्य में की गई इन वृद्धियों से ऐसा लग रहा है कि भविष्य में कृषि भूमि का किराया भी इस मूल्य में जोड़ दिया जाएगा। इन वृद्धियों से कृषि क्षेत्र की विकास दर में भी वृद्धि होने की उम्मीद है। यदि देश की सकल घरेलू उत्पाद दर को दहाई अंक में ले जाना है तो कृषि क्षेत्र की विकास दर 4 प्रतिशत होनी चाहिए। साफ  है, कालांतर में इस दिशा में भी अनुकूल परिणाम निकलेंगे।

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