मानवीय भाईचारे का संदेश देता है त्यौहार ईद-उल-अज़हा


संसार में बहुत से त्यौहार मनाए जाते हैं। कुछ त्यौहार किसी महान व्यक्ति के जन्म या मृत्यु से संबंधित होते हैं और कुछ त्यौहार श्रद्धालुओं की तबदीली से संबंध रखते हैं। कुछ ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़े हुए होते हैं। अर्थात् संसार का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं, जहां कोई न कोई त्यौहार न मनाया जाता हो।
इस्लाम धर्म में सिर्फ दो ही त्यौहार हैं। ईद-उल-फितर और ईद-उल-अज़हा, जिसको आम तौर पर ‘बकरीद’ भी कहा जाता है। ईद अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ खुशी है और खुशहाली, कुर्बानी को अरबी भाषा में अज़हा कहते हैं।
संसार की आरम्भ से परम्परा है कि प्यार, मोहब्बत और इश्क करने वालों को परखा जाए। जो जितना निकट होता है, उसकी उतनी ही कड़ी परीक्षा भी ली जाती है। फिर रब्ब का भी यही कानून और दस्तूर है कि जो इन्सान उसके करीब और प्यारा है तो अल्लाह का रवैया उसके साथ वो नहीं होता, जो आम इन्सानों के साथ होता है, बल्कि उसको परख और परीक्षा के कई पड़ावों से अधिक गुजरना पड़ता है। इस्लाम धर्म के आखिरी पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सॅल) साहिब का इर्शाद है कि सारे नबियों को रुतबे के मुताबिक ही इम्तिहान की दु:ख-तकलीफें झेलनी पड़ीं। इसी प्रकार की एक उदाहरण हज़रत इब्राहिम (अलै.) का है, जिन्होंने व्यक्तिगत तौहीद (एक रब्ब की भक्ति) का संदेश देकर सारी मानव जाति में भाईचारे की नींव रखी। आपने जिस कौम में जन्म लिया, उस कौम में रब्ब की बंदगी (भक्ति) की जगह सूरज, चांद और सितारों की पूजा होती थी। चांद और सितारों की पूजा उस समय एक धार्मिक परिपक्वता ही नहीं थी, बल्कि उस समय की राजनीति की नींव भी थी। हज़रत इब्राहिम (अलै.) ने इस परिपक्वता (भरोसे) में की कशिश (खींच) न देखते हुए सांसारिक ढांचे के बारे में सोचना शुरू कर दिया, जो कुछ चमकता है और फिर धुंधला हो जाता है, सितारे निकलते हैं, छिप जाते हैं, सूरज निकलता है, फिर रात के अंधेरे में अलोप होने वाली चीज़ें अल्लाह नहीं हो सकती, अल्लाह तो वह है जो इन सब चीज़ों को पैदा करने वाला है। इस सही सोच, चिंता और सच्चा यकीन (भरोसे) के ऐलान के बदले में आपको कीमत चुकानी पड़ी कि आप घर से बेघर हो गए, समाज में आप का मुकाम एक अजनबी इन्सान की तरह हो गया, लोगों ने आपको हर तरह से परेशान करना और दुख तकलीफें देनी शुरू कर दी और लोग आपकी बातें सुन कर आपके दुश्मन बन गए, यहां तक कि ‘इराक’ का शासक ‘नमदूर’ भी आपकी जान का दुश्मन हो गया और क्रोध में आकर उसने इब्राहिम को मौत की सज़ा देनी चाही। आग की जलती लपटों में आपको फैंकने का अटल फैसला कर दिया। हुकूमत के दबाव में लोगों ने खुलकर उनका साथ नहीं दिया। 
फिर हज़रत इब्राहिम (अलै.) ने अपना घर छोड़कर खाली हाथ देश इराक से निकल कर मुल्क-ए-शाम (सीरिया) में अपनी रिहायश बनाई। इस समय आपके कोई औलाद नहीं थी। जब हज़रत इब्राहिम (अलै.) काफी ज़इफ (वृद्ध) हो चुके थे, उनकी वृद्ध-अवस्था में सहारे के लिए अल्लाह पाक के पास एक पुत्र की दुआ (अरदास) मांगी। अल्लाह पाक ने उनकी दुआ को कबूल (स्वीकार) कर लिया। 86 वर्ष की उम्र में आपकी पत्नी हज़रत हाज़रा की कोख से एक पुत्र ने जन्म लिया, जिसका नाम मुहम्मद इस्माइल रखा गया। अकेले सुपुत्र ज़इफ (बूढ़े) और वृद्ध हो चुके पिता की तमन्ना का यह मंजर (दृश्य) था कि जब चलने-फिरने लग पड़ा, बच्चे का पालन-पोषण करने और परेशानियां झेलने के बाद अब समय आया था कि ज़इ़फ (कमज़ोर) हो चुके पिता का सहारा बनता लेकिन आपको अल्लाह पाक का हुक्म मिलता है कि हे इब्राहिम! आप अपने लाडले सुपुत्र को मेरे रास्ते में कुर्बान करो। इस समय हज़रत इस्माइल (अलै.) की उम्र करीब 13 वर्ष की थी।
आपने अल्लाह पाक के हुक्म के बारे में जब अपने लाडले सपुत्र को बताया तो फरमाबरदार (नेक) सुपुत्र रब्ब के हुक्म के आगे झुक गया। सुपुत्र ने कहा कि अब्बा जान वह कर गुजरो, जिसका आपको रब्बी हुक्म मिला है। पिता ने जैसे ही ज़िबाह (हलाल) करने के लिए अपने लाडले सुपुत्र को ज़मीन पर लिटा लिया। एक अद्भुत ढंग से अल्लाह पाक ने यह कुर्बानी कबूल कर ली। अल्लाह की ज़ात तो पिता-पुत्र की यह अदा इतनी पसंद आई कि हज़रत इब्राहिम को अपना ़खलील (दोस्त) इस्माइल को अपना पैगम्बर बनाया और उनके वंशज में ही आखिरी पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (सॅल.) साहिब को बनाया। यह ‘जिल-हिजा’ (इस्लामी महीना) की दसवीं तारीख का वाक्या है, इसी दिन ईद-उल-अज़हा मनाई जाती है, जोकि कुर्बानी और त्याग का प्रतीक है। सच यह है कि व्यक्ति अल्लाह पाक के आदेशों के ऊपर अपने सारे जज्बों को कुर्बान करने के लिए तैयार हो जाता है, तो अल्लाह भी उसके बदले दुनियावी परेशानियों से निजात (छुटकारा) और खुशहाली वाला बना देता है। अल्लाह का अपने बंदों से वायदा है कि जो इन्सान भी इस दुनियावी जीवन में रहकर उसके आदेशों का उसी प्रकार से पालन करेगा, वह उनको बदले में ‘जन्नत’ (स्वर्ग) में स्थान मिलेगा।
इसलिए रब्ब को हज़रत इब्राहिम (अलै) और हज़रत इस्माइल (अलै) का यह अमल इतना पसंद आया कि कयामत (रहती दुनिया) तक आपकी याद को बरकरार रखने के लिए अपनी महबूब (प्यारी), बंदगी (भक्ति) करार देकर बंदों के ऊपर कुर्बानी लाज़िमी कर दी। कुर्बानी की असलियत के बारे में पवित्र कुरान पाक में आया है कि अल्लाह के पास कुर्बानी का गोश्त और खून नहीं पहुंचता, बल्कि उसके पास आपका तकवा (परहेज़गारी) पहुंचती है।
रोज़ाना की ज़िंदगी में जो लोग नफस (ख्वाहिश) के खिलाफ, झूठ और फरेब के खिलाफ, शिर्क और गुमराही के खिलाफ, रिश्वत और चोर बाज़ारी के खिलाफ, जुल्म और फसाद के खिलाफ संघर्ष करते हैं, उनकी कुर्बानी भी स्वीकार योग्य है। जैसे कि हज़रत इब्राहिम (अलै.) और हज़रत इस्माइल (अलै.) के इस पूरे वाक्या से हमें शिक्षा मिलती है कि अधिकार, सच और सही बात कहने के ऊपर इन्सान को तरह-तरह की आज़माइशों का सामना करना पड़ता है। ऐसे मौकों पर सबब और संतोष का दामन थाम कर रखना ही अच्छे मनुष्य की पहचान और कामयाबी की निशानी है। कुर्बानी कोई रस्मों-रिवाज़ नहीं, बल्कि ईमान की ताज़गी का नाम है। हकीकत में कुर्बानी का यही एक रास्ता है, जिस पर चलकर रब्ब के नेक इन्सान ने पूरी इन्सानियत की किस्मत बदल दी। रब्ब की रज़ा हासिल करने के लिए आज भी ऐसे रास्ते हैं, जिन पर चलकर इन्सान रब्ब की सहायता हासिल कर सकता है।
कुर्बानी का मकसद
कुर्बानी का अर्थ सिर्फ यह नहीं कि एक पशु की कुर्बानी करके उसका गोश्त खा लिया जाए, दोस्तों, मित्रों या रिश्तेदारों में बांट दिया जाए, बल्कि असल मकसद यह है कि हमारे दिल की क़ैफीयत (हालत) ऐसी बन जाए कि चाहे जिस तरह के भी हालात हों लेकिन रब्ब की रज़ा हासिल करने के लिए कोई भी प्यारी से प्यारी चीज़ रास्ते में रुकावट न बन सके। अगर हम गंभीरता से सोचते हैं तो पता चलेगा कि इस पूरे संसार में कुर्बानी का चक्कर निरन्तर जारी है। मिसाल के तौर पर जब आत्मा टुकड़े-टुकड़े हो जाती है, तो लिहाफ में भरी जाती है। अनाज अपनी हस्ती मिटा कर हमारी खुराक बनता है। तेल अपने आपको जलाकर ही हमें रोशनी देता है। पानी अपनी हस्ती मिटाकर हमारी प्यास बुझाता है। छोटे जानवरों को बड़े जानवर खा जाते हैं। रब्ब अपने कुरान शरीफ में फरमाता है कि हर चीज़ इन्सान के लिए है और उसके फायदे के लिए अपने आप को खत्म कर रही है।
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