बीमारियों के मौसम में सावधानी की ज़रूरत

अक्तूबर का महीना हमारे यहाँ मौसम में बदलाव लाता है। गरमी और बरसात लगभग सभी जगह अपने अंतिम पड़ाव पर होती है। इसी के साथ यह महीना शारदीय नवरात्र, रामलीला, दशहरा और फिर दीवाली के त्योहार भी लाता है। हल्की-सी ठंडक लिए सर्दी के दिन आने वाले हैं, यह भी महसूस होने लगता है।  इसी के साथ यह दिन मौसम के मिजाज से सावधान रहने के भी हैं। जरा सी लापरवाही सेहत पर भारी पड़ सकती है। बरसात के बाद जिन इलाकों में नदियों ने बाढ़ का तांडव किया था, वहाँ पानी की अगर निकासी नहीं हो पाई तो जमा पानी ऐसे रोगों के लिए दावत है जो दूषित जल के इस्तेमाल और जलभराव के कारण पैदा हुए मच्छरों से होते हैं। इनमें मलेरिया, चिकनगुनिया और डेंगू जैसे महारोग हैं जो अगर मृत्यु का कारण न भी बन पाएँ पर इनसे ग्रसित लोगों के हाथ, पैर, बदन सब कुछ इतना तोड़कर रख देते हैं कि बीमार उनसे पनाह माँगने लगता है। इसके साथ ही इन दिनों प्रात: काल की सैर भी निरापद नहीं रहती क्योंकि सुबह आसमान में सूर्य की लालिमा के साथ धुँध की तरह दिखाई देने वाला नजारा असल में प्रदूषण जनित धुआँ होता है जो साँस के साथ शरीर में जाकर फेफड़ों पर हल्ला बोल देता है और खाँसते- खाँसते बुरा हाल हो जाता है। इसी के साथ जुकाम, छींक भी जुड़ जाते हैं और जब यह आ गए तो बुखार भी जकड़ ही लेता है और इस हालत में डॉक्टर और बिस्तर का सहारा लेना ही पड़ता है। मौसम परिवर्तन और धुएँ के धुँध के बहरूपियेपन से कैसे बचा जाए कि त्योहारों के रंग में भंग न पड़ने पाए। यदि सैर सूर्योदय से पहले यानि ब्रह्म मुहूर्त में कर ली जाए तो सुरक्षित है पर यह समय सब के लिए सुविधाजनक नहीं होता। जल और धुआँ जनित बीमारियों से बचने के लिए सबसे पहले तो अपने आसपास यह व्यवस्था कर लें कि कहीं भी पानी जमा होने न पाए ताकि मच्छरों को पैदा होने का मौका न मिले। दूसरा यह कि सुबह की सैर अगर करते हों और यह लगे कि साँस लेते समय हवा के साथ कुछ और भी जा रहा है तो विशेषकर वरिष्ठ नागरिक सैर बंद कर दें और युवा तेज दौड़ने और गहरी साँस लेने से परहेज करें।  एक बात और यह कि धुँध के वेश में धुएँ की अवधि ज्यादा देर की नहीं होती। जैसे ही सूर्य ललिमा त्यागकर चमकने लगता है, धुएँ का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है। उसके बाद तो केवल सड़क पर दानव की तरह धुआँ उगलते वाहनों से अपनी सेहत की रक्षा करनी होती है। इसका उपाय आम आदमी के बस में नहीं है। यह जो आसमान से धुएँ की बारिश होती है उसके लिए वह जिम्मेदार नहीं है बल्कि सरकार का प्रदूषण को लेकर ढुलमुल और उदासीन रवैया है। इसलिए अपनी सेहत बरकरार रखने के लिए स्वयं जो सावधानी बरत सकते हैं वह तो बरतनी ही चाहिए। यह धुंआ दिनों-दिन बढ़ रहा है क्योंकि फसलों के कटने के बाद छीजन जलाने का मौसम भी आ गया है क्योंकि उसके डिस्पोजल का अभी तक न तो सरकार ने और न तो किसान ने कोई उपाय सोचा है। आने वाले दिनों में दिल्ली और आस-पास रहने वालों की जिंदगी और दूभर होने वाली है।
मी टू : यौन उत्पीड़न तक ही क्यों ?
दुनिया के सबसे आधुनिक कहे जाने वाले देशों से निकला आंदोलन ‘मी टू’ ( मैं भी ) भारत में केवल उस वर्ग की महिलाओं के यौन शोषण की मुहिम का प्रतीक बन गया है जो अभिनय, नृत्य, गायन जैसे व्यवसायों से जुड़े हैं। इनमें पीड़ित और प्रताड़क दोनों ही अपने पेशे के मशहूर लोग हैं। यह प्रोफेशन खुलेपन उन्मुक्त जीवन शैली और बिंदास होकर जीने के नियमों पर ही अधिकतर आधारित हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि जो दोषी है उसे सज़ा मिलनी चाहिए और शिकायत कर्ता को न्याय। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या केवल स्वयं ही हथियाए तथाकथित सिलेब्रिटी स्टैट्स और सम्पन्न वर्ग तक ही यह आंदोलन सीमित रहे या जन जन की आवाज बने। आज दुष्कर्म जैसे अपराध ज्यादातर छोटी उम्र की लड़कियों के साथ होते हैं। इसी तरह लड़कों का भी उत्पीड़न होता है। यह सबसे अधिक घिनौने अपराध हैं जो दबंग, ताकतवर या अपराधी मानसिकता वाले लोगों द्वारा किए जाते हैं। इनमें अपराधी को ज्यादातर मामलों में सजा नहीं मिलती क्योंकि सबूत नहीं मिलते। दुष्कर्म के अतिरिक्त कुछ अन्य अपराध भी हैं जिनमें न्याय के लिए इस आंदोलन के पैरोकारों को पीड़ितों की आवाज बनने के लिए आगे आना चाहिए। सबसे पहले उन बच्चों की सिसकियाँ सुननी होंगी जो भीख मंगवाने वाले गैंग की गिरफ्त में हैं। उन लोगों को सज़ा दिलाने के लिए कौन आगे आएगा जो कम उम्र के बच्चों से ऐसे कल कारखानों में मज़दूरी करवाते हैं जहाँ उनका बचपन खो जाता है। दुष्कर्म के अतिरिक्त क्या इस आंदोलन के कार्यकर्ता उन लोगों की भी आवाज बनने के लिए तैय्यार हैं जिनके साथ उनके दफ्तर या फैक्टरी में दूसरी तरह के उत्पीड़न या शोषण होते हैं। इन पर श्रम कानून भी लागू नहीं होते। घरेलू हिंसा, घर से निकाल देना, मारपीट करना, बिना बात मज़दूरी या वेतन काट लेना इसी परिधि में आते हैं।  स्त्री हो या पुरुष, हमारे देश में मी टू जैसे आंदोलन की सार्थकता तब ही है जब यह कमज़ोर की पीड़ा को उजागर करने का स्वर बने, अन्यथा इसका भी वही हश्र होगा जो मनोरंजन तो करेगा लेकिन न्याय की तराजू तक नहीं पहुँचेगा।