आज़ादी की सूखी रोटी भली

एक बार एक जंगल में सूखा पड़ा। भूख-प्यास के मारे जंगली जानवर बेहाल हो गए। जंगल में एक भेड़िया रहता था। जब उससे भूख बर्दाश्त नहीं हुई तो उसने अपने साथियों से कहा कि वह जंगल छोड़कर जा रहा है। सार्थियों ने बहुत मना किया, पर वह नहीं माना। शहर में जाकर उसने देखा कि एक हृष्ट-पुष्ट श्वान अपने मालिक के घर के बाहर घूम रहा है। भेड़िए की जब उससे बात हुई तो उसने बताया कि उसका मालिक उसे बहुत अच्छा भोजन देता है। उसने भेड़िए से कहा-‘मैं श्वान होकर भी बलवान हूं और तुम भेड़िया होकर भी कमज़ोर। तुम चाहो तो मैं तुम्हारे लिए खाने की व्यवस्था कर सकता हूं। बस तुम्हें रात को मालिक के घर की रखवाली करनी होगी।’भेड़िए ने उसकी बात मान ली और उसके साथ चल पड़ा। तभी अचानक उसकी नजर श्वान की गर्दन पर पड़ी। गर्दन पर कुछ अजीब-सा घेरा बना हुआ था। भेड़िए द्वारा उसके बारे में पूछने पर श्वान ने जवाब दिया-‘यह तो पट्टे का निशान है। मालिक दिन में मुझे पट्टे से बांध देता है और रात में खोल देता है, परन्तु भोजन बढ़िया देता है।’ यह सुनकर भेड़िए ने उसके साथ जाने से इंकार कर दिया। वजह पूछने पर उसने कहा-‘बंधन में बंधकर ऐसा भोजन निगलने से तो अच्छा है, आज़ाद रहकर कम टुकड़े खा लेना। मेरा जंगल ही भला है। वहां आज नहीं तो कल भोजन की व्यवस्था हो ही जाएगी।’ इतना कहकर वह वापस जंगल की ओर चल दिया। दरअसल, सेवाभाव और दासभाव में थोड़ा अंतर है। सेवा में इस बात की स्वतन्त्रता है कि सेवक अपने स्वामी का चयन खुद कर सकता है। किन्तु दास तो पूरी तरह स्वामी पर ही निर्भर रहता है। दासभाव की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इसमें प्राणी की पूरी स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। सेवक की स्वतन्त्रता फिर भी बनी रहती है। जो आज़ाद नहीं है, समझ लीजिए, वह घोर पीड़ा उठा रहा है।

— धर्मपाल डोगरा, ‘मिंटू’