कम्प्यूटरों की जासूसी : नागरिकों की निजता के लिए खतरा

केंद्र सरकार ने इंटेलिजेंस, टैक्स व कानून लागू करने वाली दस एजेंसीज को कंप्यूटरों पर मौजूद जानकारी में हस्तक्षेप व डिक्रिप्ट करने की अनुमति दी है। सरल शब्दों में इसका अर्थ यह है कि अब प्रत्येक कंप्यूटर की जासूसी या निगरानी की जा सकती है या की जायेगी। इस निर्णय पर राजनीतिक हंगामा होना व पक्ष और विपक्ष की ओर से आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला आरंभ होना स्वाभाविक था। लेकिन इस संदर्भ में तीन प्रश्न महत्वपूर्ण हैं- एक, इस बारे में विशेषज्ञों का क्या कहना है? दो, ऐसा क्या घटित हो गया है जो इस समय यह निर्णय लिया गया? और अंतिम यह कि जब सरकार स्वयं चीन की टेलिकॉम कंपनी को देश में 5जी ट्रायल व इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने की अनुमति देकर सुरक्षा को खतरे में डाल रही है तो अपने देश के कंप्यूटरों की जासूसी का उद्देश्य मात्र राजनीतिक तो नहीं? साल 2009 आईटी एक्ट के अनुसार रक्षा व सुरक्षा कारणों से सरकार ‘किसी भी उचित सरकारी एजेंसी (राज्य या केंद्र) को आदेश दे सकती है’ कि वह किसी भी कंप्यूटर पर उपलब्ध जानकारी को एक्सेस कर ले। लेकिन ऐसा करने की अनुमति गृह सचिव से लेनी होगी। इस आधार पर सरकार कह रही है कि यह नियम तो पिछली सरकार (यूपीए) ने बनाया था, तो फिर इस पर विपक्ष अब हाय-तौबा क्यों मचा रहा है? दरअसल, देखना यह है कि इस समय इस नियम में क्या परिवर्तन लाया गया है? सबसे पहले तो सरकार ने निगरानी करने के लिए दस एजेंसीज को अधिकार दिए हैं- आईबी, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, ईडी, सीबीडीटी, डीआरआई, सीबीआई, काबिना सचिवालय (रॉ), एनआईए, डायरेक्टरेट ऑफ  सिग्नल इंटेलिजेंस और दिल्ली पुलिस आयुक्त। इन्हें अब भी गृह सचिव से क्लियरेंस की आवश्यकता पड़ेगी, लेकिन ‘आपात स्थितियों’ में ये एजेंसीज अपने तौर पर कार्यवाही कर सकती हैं और तीन दिन बाद अनुमति ले सकती हैं। जब अपने तौर पर जासूसी या निगरानी कर ही ली जायेगी तो फिर अनुमति लेने या न लेने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। एजेंसीज के चयन व उन्हें दिए गये अधिकार ने इस नये आदेश को विवादित बना दिया है। संयुक्त विपक्ष का आरोप है कि इलेक्ट्रॉनिक सर्विलेंस को अनुमति देना न सिर्फ  नागरिकों की व्यक्तिगत आज़ादी पर हमला है बल्कि देश को ‘पुलिस स्टेट’ बनाना है। दूसरी ओर सरकार का कहना है कि यह अधिकार दिए जाने का आदेश है जिसका प्रावधान अनुच्छेद 69 में है ताकि कोई राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ न कर सके। बहरहाल, इस समय राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित ऐसी कोई घटना ध्यान में नहीं आ रही है जिसने सरकार को यह ‘कठोर कदम’ उठाने के लिए ‘प्रेरित’ किया हो। इसलिए इसका कारण फि लहाल राजनीतिक ही प्रतीत होता है। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राजस्थान में विधानसभा चुनाव हारने के बाद केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा 2019 के आम चुनाव में अपने विरुद्ध प्रत्येक सियासी चाल की जानकारी रखना चाहती है ताकि समय रहते उसका तोड़ निकाला जा सके। दूसरी वजह यह हो सकती है कि चीन-पाकिस्तान इकनोमिक कॉरिडोर (सीपीईसी) चीनी आश्वासनों के बावजूद सैन्य मोड़ ले रहा है। चीनी अधिकारियों से मिलकर पाकिस्तानी एयर फ ोर्स एडवांस्ड जेट्स, हथियार व अन्य सैन्य हार्डवेयर निर्माण की गुप्त योजना को अंतिम रूप दे रही है। पाकिस्तान एकमात्र देश है जिसे चीन के बेईडोउ नेविगेशन सैटेलाइट सिस्टम की सैन्य सेवा का एक्सेस प्राप्त है, जिससे पाकिस्तानी मिसाइलों, शिप्स व एयरक्राफ्ट को सटीक गाइडेंस मिल सकता है। जाहिर है इस प्रकार की डील से भारत ही वह देश है जिसकी सुरक्षा को सबसे अधिक खतरा होगा। रक्षा का तकाजा है कि आंतरिक सुरक्षातंत्र भी मज़बूत रहे, जिसके लिए अपने ही लोगों की निगरानी करना भी आवश्यक हो जाता है क्योंकि अक्सर घर का भेदी ही लंका ढाता है। लेकिन यह कारण गौण ही लगता है। नई दिल्ली ने चीन की टेलिकॉम कंपनी हुवेई को भारत में 5जी ट्रायल व इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने के लिए आमंत्रित किया है।  इससे सुरक्षा चिंताओं की घंटियां बजना स्वाभाविक है क्योंकि पश्चिमी देश हुवेई की पहुंच को सीमित कर रहे हैं इस आशंका से कि इसके गियर में स्नूपवेयर प्लांट किया जा सकता है, चीन की इंटेलिजेंस सेवाओं को एक्सेस प्रदान करने के लिए। असुरक्षित 5जी इंफ्रास्ट्रक्चर चीन व पाकिस्तान को भारत के खिलाफ घातक साइबर वारफेयर छेड़ने का अवसर दे देगा। इसलिए टेलिकॉम इक्विपमेंट एंड सर्विसेज एक्सपोर्ट प्रमोशन काऊंसिल चिंतित है और इस बारे में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल को सचेत कर रहा है। अपनी सुरक्षा की कीमत पर चीन को अनुचित लाभ देना ठीक नहीं है। बहरहाल, डिजिटल टैपिंग समस्या का सिर्फ  एक हिस्सा है। हमारी चिंता केवल उक्त दस एजेंसीज तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। अनुच्छे द 69 को पूरी तरह से निरस्त कर देना चाहिए क्योंकि यह नागरिकों की प्राइवेसी के लिए बड़ा खतरा है और सुप्रीम कोर्ट के 2017 के निर्णय का उल्लंघन करता है। साथ ही यह सिर्फ  एग्जिक्यूटिव स्तर पर कार्य करता है। दरअसल, राज्य द्वारा समर्थित सारा सर्विलेंस सिस्टम ही नागरिकों की स्वतंत्रता व प्राइवेसी के लिए समस्या है। गृह मंत्रालय के आदेश में अस्पष्टता भी है क्योंकि ‘कोई भी जानकारी’ में फेसबुक प्रोफाइल से लेकर व्हाट्सएप्प संदेशों तक कुछ भी आ सकता है। इसलिए सरकार को अपने असंवैधानिक व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करने वाले आदेश को वापस लेना चाहिए। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर