शब्द और सुरों का संगम थी तारन गुजराल

भाषा विभाग पंजाब की ओर से लेखिका तारन गुजराल को 2016 के लिए शिरोमणि पंजाबी साहित्यकार पुरस्कार से नवाज़ा गया था। तारन गुजराल नारी शक्ति, जीवन आशा से भरपूर, साहसी, मिलनसार, सहजमय शख्सियत थीं। वर्ष 1931 में पाकिस्तान की धरती पर जन्मी तारन 1947 में रांची पहुंची। जहां देश के विभाजन ने उन्हें वहां आने के लिए विवश किया था। अटारी से उनके बचपन की कई यादें जुड़ी हुई थी। जहां उन्होंने 14 वर्ष का अपने बचपन का समय देश के विभाजन से पूर्व बिताया था। यहीं उनके पिता ईशर सिंह 1931 से 1943 तक अटारी हाई स्कूल के पहले मुख्य अध्यापक थे। वह अपनी मां को याद करते हुए भावुक हो जाती थी जिनका स्वभाव बहुत ही मिलनसार था। जो उन्हें रोचक कहानियां सुनाती थी और शायद उनकी कहानियों से अचेत ही तारन के भीतर कथा संसार का सृजन हो गया था। संगीत और साहित्य से ओत-प्रोत इस शख्सियत ने पहले गाना शुरू किया। हर समय संगीत की धुनें उनकी आत्मा को रोशन करती थीं। उन्हें प्रीत नगर रहने का अवसर भी मिला, जहां लाइब्रेरी में पढ़ते, स्कूल एसैम्बली में गीत गाते हुये उनके भीतर संगीत और साहित्य की लगन जाग उठी थी। उनके पिता ने उन्हें आगे बढ़ने के लिए उनका मार्ग प्रशस्त किया। 
तारन का साहित्यक स़फर ‘बाल सन्देश’ में प्रकाशित कविताओं से शुरू हुआ। मन की तृप्ति और संतुष्टि के लिए वह लिखती थीं। शादी के बाद तारन को कानपुर में रहने का अवसर प्राप्त हुआ जहां उनके ससुराल वालों का साहित्य के साथ दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था। बहुत मुश्किल से उन्हें संगीत सीखने की स्वीकृति मिली थी और फिर उन्होंने साहित्य सभा से जुड़ने की इजाज़त भी ले ली थी तथा यहीं से उनका साहित्यक स़फर शुरू हुआ। गगन पाकिस्तानी, मक्खन सिंह साथी और महिन्दर फारग जैसे लेखकों की संगत में उन्होंने महसूस किया कि साहित्य रचना करने के लिए साहित्यक रचनाओं को पढ़ना भी ज़रूरी है। 1965 में उन्होंने अपनी पहली कहानी ‘धमाका’ लिखी और जिसे बाद में नाम ‘आपो-अपने सप्प’ रख दिया गया। 
1981 में उनका पहला संग्रह ‘जुगनुओं दा कब्रिस्तान’ प्रकाशित हुआ था। घरेलू ज़िम्मेदारियां निभाती हुई ़गैर-साहित्यक घरेलू माहौल में भी तारन ने अपनी साहित्यक लगन को निराश नहीं होने दिया था। संगीत में एम.ए. पास तारन ने अपनी संगीतमय उड़ान को अपनी मानसिक संतुष्टि  और सहज के लिए ही शौक के तौर पर जारी रखा था। वह कहती ‘संगीत के साथ मेरे घर कविता और कहानियां मेहमान की तरह आईं और फिर मेरे साथ जीने लगी’ तारन के पति गुजराल जी अक्सर उन्हें प्रोत्साहित करते और कलाकारों का  खुशी से स्वागत करते। तारन गुजराल को एक महिला के होने नाते नि:सन्देह बहुत-से पारिवारिक और सामाजिक चुनौतियां का भी सामना करना पड़ा, लेकिन उन्हें उनके सुरों और शब्दों ने हमेशा ताकत दी। वह कहती थी कि ‘वार्ता और कहानियां उनकी मुख्य विधा है लेकिन यह गीत और कविताएं कभी-कभी विशेष रूप से आये अतिथियों की भांति उनके समक्ष आईं और उन्होंने अपने दिल से इन्हें भरपूर माना है।’
उनकी पुस्तक ‘जुगनूआं दा कब्रिस्तान’ ने पंजाबी साहित्य जगत में उनकी विशेष पहचान बनाई। डा. हरभजन सिंह, डा. प्रेम प्रकाश और अन्य बहुत-से साहित्यकारों ने इस पुस्तक की विशेष रूप से प्रशंसा की। अमृता प्रीतम ने उनकी तीनों कहानियां इकट्ठा ही ‘नागमणि’ में प्रकाशित करके उनके हौसले को बढ़ाया। वह सच को बेबाकी से अपनी रचनाओं के द्वारा चित्रित करने वाली थीं। जीवन के हर पल को वह उत्साह से जीने में विश्वास रखती थी। उन्होंने देश विभाजन से संबंधित कहानियां लिखीं। 1984 के दौर को उन्होंने अपनी पुस्तक ‘रत्त दा कुंगू’ में चित्रित किया। ‘अटारी बाज़ार, खप्परा महिल, रिमझिम आया मेघला, पक्के पुराने पल’ उनकी चर्चित पुस्तकें हैं। तारन के शौक संगीत और साहित्यक तो थे ही इसी के साथ ही उन्हें खाना बनाना भी एक पवित्र कर्म लगता था। उन्हें खिले हुये फूल और खिले हुये चेहरे बहुत पसंद थे। तारन गुजराल की शख्सियत में एक ऐसा आकर्षण था जो उन्हें मिलने वालों के भीतर एक ऊर्जा और ज़िंदादिली भर देता था। वह कहानी रचना के संसार में भी पात्रों के साथ एक रिश्ता बना लेती थी। उनकी कहानियां उनके निजी अनुभव में से निकलती थीं। उनकी सृजना प्रक्रिया भी अद्भुत थी। उन्हें जब कहानी आती तो एक बैठक में लिख लेती थी और और कहानियां 15-20 दिनों में तथा फिर सोच-विचार करते हुए दो-तीन महीनें और लग जाते थे। उनके अनुसार वह अपनी कहानी सात-आठ बार पढ़ती और उसमें संशोधन करती थी।
-हंस राज महिला महाविद्यालय, जालन्धर