जलियांवाला बाग के शहीदों को नमन

जलियांवाला बाग में भारतीयों के हुए नर-संहार वाले दिन बाग में क्या हुआ और उसके पीछे क्या-क्या कारण रहे, इस पर अनेक बार चर्चा हो चुकी है। इस कांड को स्कूली किताबों के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है। कई फिल्में भी बनाई जा चुकी हैं, परन्तु इस सबके बावजूद लोगों के पास वही जानकारियां पहुंच सकी हैं जो स्वयं में अधूरी महसूस होती हैं या जिन पर पूरी तरह से खोज नहीं की जा सकी। इस लेख में उन लोगों द्वारा दी गई जानकारियों पर चर्चा कर रहे हैं जो इस कांड के चश्मदीद गवाह ही नहीं अपितु इस कांड के भोगी भी रहे हैं।  13 अप्रैल 1919 को जब जनरल आर. ई. एच. (रिनाल्ड एडवर्ड हैनरी) डायर द्वारा  अमृतसर के जलियांवाला बाग में हज़ारों निर्दोषों के साथ खूनी खेल खेला जा रहा था, उस समय बाग से थोड़ी दूरी पर एक 14 वर्षीय बालक भी बेबस हुआ बाग में से आ रही घायलों की चीखें सुन रहा था। इस कांड के चश्मदीद गवाह सेठ राधाकृष्ण के जीवन पर पुस्तक लिखते हुए बहुत सारी ऐसी जानकारियां मिलीं जो न तो इतिहास की पुस्तकों में दर्ज हैं और न ही आम जनता की ज़ुबान पर हैं।  
सेठ राधाकृष्ण ने अपनी डायरी में लिखा है, ‘मैं उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन सायं 4.30 बजे चौक फव्वारा में खड़ा था।  जनरल डायर तथा उसका चहेता कैप्टन ब्रिगस दोनों सबसे आगे वाली कार में बैठे हुए थे। उनके पीछे दो बख्तरबंद जीपें और एक पुलिस कार थी, जिसमें डी.एस.पी. पलूमर तथा सुपरिंटैंडैंट ऑफ पुलिस रिहल बैठे थे। इन कारों के पीछे पैदल सिपाही तेज़ रफ्तार दौड़ कर आ रहे थे। सबसे आगे एक रास्ता बताने वाला सिपाही मोटरसाइकिल पर जा रहा था। यह सैनिक जुलूस हाल बाज़ार के बीच से होता हुआ चौक फव्वारा में पहुंचा था। सभी कारों सहित वह जीप जिस पर मशीनगन लगाई गई थी, को चौक में ही खड़ा करना पड़ा, क्योंकि आगे रास्ता बहुत तंग था। जब बाग में गोलियां चलने की आवाज़ आई तो दूसरे लोगों की तरह मैं भी बाज़ार की तरफ भागा और छिप गया। सैनिकों के बाग से चले जाने के बाद अन्य लोगों की तरह मैं भी घायलों को पानी पिलाने या किसी प्रकार की और सहायता देने की हिम्मत न कर सका। 
जनरल डायर के सैनिकों द्वारा चलाई गोलियों के बाद बाग की भूमि पर लाशों के ढेर लग गए। बाग से सैनिकों के जाने के बाद डरे और सहमे हुए कुछ लोग बाग से निकले, परन्तु उनको यह नहीं पता था कि उनको गोली कहां लगी है। इसलिए बहुत सारे लोगों की लाशें कांड के अगले दिन बाग के साथ लगती निचली गली तथा अन्य गलियों में से मिलीं। समय पर डाक्टरी सहायता न मिलने के कारण बहुत सारे लोग मारे गए। बहुत सारे लोग लाशों के नीचे दबे रहे। उनको पानी पिलाने वाला भी कोई नहीं था।’
सचमुच13 अप्रैल, 1919 के दिन जलियांवाला बाग में जनरल डायर द्वारा निहत्थे भारतीयों पर ज़ुल्म ढाने की सारी सीमाएं पार की गईं। उस सब का दर्द शायद ही कभी कम हो सके। दुख इस बात का है कि उस कांड में मारे गए लोग आज भी आम जनता के लिए अज्ञात हैं। इसलिए सरकार को चाहिए कि जलियांवाला बाग कांड में मारे जाने या शहीद होने वाले नागरिकों को अज्ञात न रहने दे अपितु उनके नाम और तस्वीरें सम्मान सहित बाग में लगाई जाएं। आज लोग उपरोक्त यादगार पर जलियांवाला बाग कांड के शहीदों को श्रद्धांजलि भेंट करते हैं।