प्राकृतिक स्रोतों को बचाना ज़रूरी

हाल ही में वैश्विक धरातल पर मनाये गये पर्यावरण दिवस पर, इस सन्दर्भ में विचारशील रहने वाले लोगों द्वारा व्यक्त किये गये विचारों से नि:संदेह यह आभास मिलता है कि विगत कुछ दशकों में यह चुनौती किसी भी सूरत कम नहीं हुई है, अपितु इसका आकार और बड़ा हुआ है। पर्यावरण पर बढ़ते प्रदूषण का प्रभाव मौसमों के बदलाव के अतिरिक्त पहाड़ों पर बढ़ते प्लास्टिक कचरे, सागरों के व्यापक होते पानी के स्तर और सीमित होती जाती जलचरों की प्रजातियों से अवश्य देखा और महसूस किया जा सकता है। वैश्विक धरातल पर जितने भी सर्वेक्षण हाल ही के वर्षों में प्लास्टिक को लेकर हुए हैं, उन सभी ने विश्व धरा पर निरन्तर बढ़ते इस संकट को और घना किया है। समस्या यह भी है कि दुनिया के प्राय: सभी विकसित और अधिकतर विकासशील देश इस मामले को लेकर अपनी चिन्ताएं तो ज़ाहिर करते हैं, किन्तु किसी समाधान को हासिल करने के लिए उद्यमशील होने की बजाय एक-दूसरे की ओर ज़िम्मेदारी आयद करने की उंगली उठाते हुए दिखाई देते हैं। इसका परिणाम यह निकला है कि ‘मज़र् बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’ के मुहावरे के अनुसार इस समस्या का दुष्प्रभाव पूरे विश्व को अपने घेरे में लेता जा रहा है।
पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण और इसके दुष्प्रभावों का सामना यूं तो विश्व के सभी देश चिरकाल से करते आ रहे हैं, किन्तु पिछली शताब्दी के दूसरे पक्ष के दौरान इस समस्या का आकार अमीबा की तरह बढ़ा है। नि:संदेह इसका बड़ा दायित्व विकसित देशों पर आयद होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी पर्यावरण दिवस पर उपालम्भ दिया है कि कुछ विकसित देशों की सीनाजोरी का खमियाज़ा विश्व के ़गरीब देशों को भुगतना पड़ रहा है। यहां एक कटु सत्य है कि विकसित देश ही पर्यावरण के बिगाड़ हेतु अधिक ज़िम्मेदार भी होते हैं। स्थितियों की गम्भीरता को देखते हुए वैश्विक धरातल पर जागरूकता पैदा करने की मंशा से वर्ष 1973 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाने लगा, किन्तु पांच दशक से अधिक का समय व्यतीत हो जाने के बाद भी इस समस्या के समाधान की कोई आस जगी हो, ऐसा तो कभी प्रतीत नहीं हुआ। प्राकृतिक स्रोतों और साधनों का जितना दुरुपयोग एवं शोषण विगत कुछ दशकों में हुआ है, इतना तो पहले कभी भी नहीं हुआ। एक प्रकार से पर्यावरण दिवस मनाना एक औपचारिकता मात्र बन कर रह गया है। यह भी एक बड़ा मुद्दा है कि पर्यावरण के बिगाड़ में सर्वाधिक योगदान प्लास्टिक कचरे का रहता है, किन्तु प्लास्टिक के उपयोग के विरुद्ध तमाम तरह के अभियानों एवं प्रयासों के बावजूद इसका प्रकोप निरन्तर बढ़ता जाता है। इस समस्या का सर्वाधिक चिन्तनीय पक्ष यह है कि मौजूदा हालात के दृष्टिगत समुद्रों, पहाड़ों और नदी-नालों के प्रदूषण के ज़रिये मानवता की आगामी पीढ़ी के लिए सिर्फ तपती हुई धरती और आग उगलता आकाश ही बचने वाला है।
नि:सन्देह यदि मौजूदा संसार को अपनी भावी पीढ़ियों के लिए विरासत में एक हरित धरती और संतुलित आकाश सौंप कर जाना है, तो पर्यावरण में सुधार करने, प्रदूषण में कमी लाने और प्रकृति एवं मनुष्य के बीच संबंधों का एक संतुलित दृष्टिकोण उत्पन्न करने के लिए कुछ उपायों को अवश्य अपनाना होगा। सर्वाधिक बड़ी ज़रूरत प्लास्टिक और पोलीथिन के प्रयोग को बंद करना होगा, अथवा न्यूनतम धरातल पर लाना होगा। आगामी वर्षों में विश्व धरा पर वार्षिक रूप से, 370 लाख टन तक प्लास्टिक कचरा उपजने लगेगा। भारत में वर्तमान में भी 94 लाख टन से अधिक कचरा हर साल पैदा होता है। समुद्रों में यह कचरा जल-चरों के लिए तो ़खतरा बनता ही है, पर्यावरण के प्रदूषण को भी बढ़ाता है। ग्रीन हाऊस गैसों पर पर्याप्त अंकुश लगा कर यथा-सम्भव हरित ऊर्जा का उपयोग करना भी आवश्यक है। इसके लिए वनों को बढ़ाया जाना और अधिकाधिक वृक्षों को लगाया जाना ज़रूरी होगा। एक और बड़ा उपाय जो मौजूदा दौर में मनुष्य को करना चाहिए, वह है वर्षा के पानी को अधिकाधिक मात्रा में बचाया जाना। बिजली-चालित उपकरणों के उपयोग पर भी अंकुश लगाया जाना होगा। आर्गेनिक खेती पर निर्भरता बढ़ा कर भी हम अपने पर्यावरण को संरक्षण प्रदान कर सकते हैं। रासायनिक खादों के उपयोग से संकोच करके कृषि सुधार को विस्तार दिया जा सकता है। ऐसे उपाय करके नि:संदेह हम अपनी धरती, अपने आकाश और अपनी भावी पीढ़ियों की उम्र को बढ़ा सकते हैं। नि:संदेह आज यदि हमने प्राकृतिक स्रोतों एवं साधनों को बचाने का उपाय नहीं किया, तो प्रकृति भी धरती के आशंकित विनाश से संकोच नहीं करेगी।