शहीद भगत सिंह की रचनाएं व लेखन-शैली

वर्ष 1931 की 23 मार्च को शहीद भगत सिंह ने फांसी का फंदा चूम कर अपने देशवासियों की आन, बहादुरी तथा कुर्बानी का परचम लहराया था। इसकी महिमा एवं महानता इतनी बड़ी थी कि हम प्रत्येक वर्ष 23 मार्च को इस कर्म को तो याद करते हैं, परन्तु उनकी रचनाएं, लेखन-शैली तथा शब्दों की शक्ति की ओर कम ध्यान दिया जाता है। पटियाला निवासी एडवोकेट सर्बजीत सिंह विर्क ने यह सब कुछ को ‘समूची रचनाएं शहीद भगत सिंह’ (वाल्नट पब्लिकेशन, कनाट प्लेस, नई दिल्ली) के शीर्षक से पुस्तक का रूप देकर पंजाबी जगत की झोली में डाला है। इसमें भगत सिंह द्वारा अपने पूर्वजों को लिखे पत्र भी शामिल हैं और वह भी जो उन्होंने चक्क नम्बर 105 (अब पाकिस्तान) का प्राइमरी स्कूल छोड़ने के बाद दयानंद एंग्लो वैदिक स्कूल, लाहौर में पढ़ते समय लिखें। इनसे पता चलता है कि बाल भगत सिंह पर आर्य समाज लहर का पूरा प्रभाव था। अपने पूर्वजों की भांति, परन्तु जब अक्तूबर, 1921 में ननकाना साहिब में महंतों की शह पर सिखों का नरसंहार हुआ तो वह इसे देखने भी गए। इस दौरे का प्रभाव उनके पत्रों में भी प्रत्यक्ष रूप में है। उनकी अपनी चाची को लिखे पत्र के आरम्भ में तो ‘नमस्ते’ लिखा मिलता है, परन्तु इसके भीतर के वाक्य में ‘कुलतार तथा कुलबीर को सत् श्री अकाल या नमस्ते’ लिखा हुआ है। कुलतार तथा कुलबीर उसके भाई थे। उससे छोटे। पढ़ें :
मेरी प्यारे चाची जी नमस्ते
मुझे पत्र लिखने में देर हो गई है। सो, उम्मीद है कि आप माफ करोगे। भाइया जी दिल्ली गए हुए हैं। बेबे मोरांवाली को गई हुई हैं। बाकी सब राज़ी खुशी है। बड़ी चाची जी को माथा टेकना। माता जी को भी माथा टेकना। कुलतार, कुलबीर सिंह को सत् श्री अकाल या नमस्ते। 
आपका आज्ञाकारी भगत सिंह। इस पत्र की संक्षिप्ता जनवरी 1928 में बचपन के मित्र अमरचंद को लिखे पत्र की संक्षिप्ता एवं स्पष्टता की पुष्टि करता है। पत्र लिखते समय अमरचंद अमरीका की किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ने जा चुका था और पत्र वहां के पते पर लिखा गया था। 
भाई साहिब, विदेश में जाकर पढ़ाई करने की मेरी इच्छा बर्बाद हो चुकी है। खैर! आप के लिए मेरी शुभकामनाएं हाज़िर हैं। यदि आपको अवसर मिला तो कुछ अच्छी पुस्तकें भेजने की तकलीफ उठाना। 
भगत सिंह की लेखन-शैली तथा समय के सच को पेश करने का पता उस लेख से भी लगता है जो उन्होंने अमृतसर से प्रकाशित ‘किरती’ समाचार पत्र में मई 1927 के किसी अंक के लिए लिखा था। शीर्षक था ‘काकोरी के वीरों से जान-पहचान’। पेश है उसका एक पैरा—वह समय आया जब तीनों को फांसी, एक को उम्रकैद, एक को 14 वर्ष की कैद, पांच को 10 वर्ष तथा अन्य को 5 से 10 वर्ष की सख्त कैद सुना कर जज ने कहा, ‘आप सच्चे सेवक तथा त्यागी हैं, परन्तु गलत राह पर चल पड़े हैं।’ जज के शब्दों में मजबूरी तो थी, परन्तु इससे यह भी प्रत्यक्ष था कि गुलाम भारत में ही सच्चे देश भक्तों का यह हाल होता है। 
भगत सिंह ने गुरमुखी स्कूल में नहीं, इससे बाहरी समय में पढ़ी थी, जिस कारण उनकी लिखित में शब्द जोड़ कर व्याकरण की समरसता तो खटकती है, परन्तु तत्व प्रभाव व संदेश स्पष्ट है। उपरोक्त पैरे में आज की मजबूरी वाली भावना भी बहुत कुछ कह देती है। 
उनके पत्रों तथा समाचार पत्रों के लिए लिखे लेख तथा ‘महारथी’ के सम्पादक को लिखे पत्र काकोरी के शहीदों की भांति मदन लाल ढींगरा तथा मार्शल लॉ में कुर्बानी देने वाले खुशी राम के जीवन पर ही नहीं, अपितु नौजवान भारत सभा के मैनिफैस्टो पर भी रौशनी डालते हैं : 
‘क्हां हमें बार-बार यह सुनकर शर्म नहीं आती कि हम अपना शासन चलाने के योग्य नहीं? क्या यह हमारे लिए बड़े अपमान की बात नहीं कि गुरु गोबिन्द सिंह, शिवाजी तथा हरि सिंह नलवा जैसे योद्धाओं के वारिस होते हुए हमें यह कहा जाए कि आप अपनी हिफाजत करने के योग्य नहीं?’
नौजवान सभा के लक्ष्य में किसानों तथा श्रमिकों की सम्पूर्ण स्वतंत्रता विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा पुन: विश्व युद्ध शुरू होने के समय जनता को अंग्रेज़ शासन के साथ सहयोग से रोकना था। 
अपनी अनेक गतिविधियों में व्यस्त होने के बावजूद वह अछूतों या अराजकतावादियों को समझने तथा उनके बारे लिखने का समय कैसे निकाल लेते थे, हैरान करता है। पेश है उनकी अराजकता पर टिप्पणी : 
अराजकता के अनुसार जिस आदर्श से आज़ादी की कल्पना की जाती है, वह ऐसी आज़ादी है जिसमें तन-मन पर परमात्मा तथा मज़हब का भूत सवार नहीं होता और न ही दिमाग में माया का लालच समाता है। यहां किसी प्रकार की सरकार तथा शासन शरीर पर ज़जीरें नहीं कस सकती।
अराजकता की मूल भावना यह है कि काम की मांग करें, यदि न मिले तो रोटी मांगें और यदि काम व रोटी नहीं देते तो रोटी छीन लें। 
ताज़ा पुस्तक में उनके आवेदनों का भी कोई अंत नहीं, जो स्वागत से पहले दिल्ली तथा पाकिस्तान के हिस्से आईं मीयां वाली तथा लाहौर की जेलों में कैद काटते हुए साथी कैदियों तथा स्वयं के लिए ज़रूरी वस्तुओं, पुस्तकों एवं आपेक्षित व्यवहार तथा सुविधाओं की मांग करते हैं। इन आवेदनों में दी गईं दलीलों में अन्य देशों में प्राप्त सुविधाएं तथा अंतर्राष्ट्रीय चिन्तकों के शब्द भी दर्ज हैं। 
सवा पांच सौ पृष्ठों का यह सचित्र ग्रंथ पंजाबी पाठकों को पेश करने के लिए लेखक प्रशंसा व स्वागत का हकदार है। पढ़ें तथा आनन्द लें। 
अंतिका
(भगत कबीर जी)
सूरा सो पहचानीअै जु लरै तीन के हेत,
पुरजा-पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेत।